वीर सावरकर के प्रेरक प्रसंग

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VEER SAVARKAR

    देश के महान स्वतंत्रता सैनानी और हिंदुत्ववादी चिंतक विनायक दामोदर सावरकर का संपूर्ण जीवन हमारे लिए एक प्रेरणा का स्रोत है। वे ऐसे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। उनके अद्मय साहस और धर्य का लोहा अंग्रेज अधिकारी भी मानते थे।</p>       
                                    <img width="512" height="512" src="https://shalasugam.com/wp-content/uploads/2019/10/logo.png" alt="CITIZEN UTILITY" loading="lazy" srcset="https://i2.wp.com/shalasugam.com/wp-content/uploads/2019/10/logo.png?w=512&amp;ssl=1 512w, https://i2.wp.com/shalasugam.com/wp-content/uploads/2019/10/logo.png?resize=300%2C300&amp;ssl=1 300w, https://i2.wp.com/shalasugam.com/wp-content/uploads/2019/10/logo.png?resize=150%2C150&amp;ssl=1 150w" sizes="(max-width: 512px) 100vw, 512px" />                                           
        <h4>K. L. SEN MERTA</h4>        
    <p></p><p align="center" style="text-align: center;">पहला प्रसंग<o:p></o:p></p>

 वीर सावरकर को
अंग्रेजों के द्वारा दिया गया घोर कष्ट, भोगी गयी यातनाएँ, भोगलिप्सा के शिकार लोगों
को लज्जित कर सही हैं। उन्हीं से अपने कष्टों का बयान सुनते हैं।

 ‘जब मैं विदेश
को प्रस्थान कर रहा था, उस समय मुझे विदा करने को जो परिवार या मित्र उपस्थित थे, उनमें
ज्येष्ठ बन्धु भी थे। उस समय मैंने उनके दर्शन किए थे। उसके बाद लम्बा अर्सा बीत जाने
पर अब (अण्डमान) जेल में उनके दर्शन करने थे। मन में आया मिलने से उन्हें अत्यनत दुःख
होगा। अतः मिलने की इच्छा छोड़ देनी चाहिए। मगर उसी क्षण विचार आया कि मिलना टालना तो
दुःख से डरना होगा। दुःख रूपी गजराज जब पूरा का पूरा अन्दर समा ही गया, तो केवल उसकी
पूँछ से क्या डर? वे अपनी आशाओं पर राख डालकर अत्यन्त करूणाजनक स्थिति में आज मुझे
देख रहे थे। क्षण भर तो वे विमूढ़ बने रहे। उनके मूक दुःख का परिचायक केवल एक ही उद्गार
उनके मुख से फूट निकला-

 

‘तात्याँ, तुम
यहाँ कैसे?’ ये शब्द उनकी असहाय वेदनाओं के प्रतीक थे और मेरे हृदय में भाले की तरह
बैठ गए।”

देश के महान स्वतंत्रता सैनानी और हिंदुत्ववादी
चिंतक विनायक दामोदर सावरकर का संपूर्ण जीवन हमारे लिए एक प्रेरणा का स्रोत है। वे
ऐसे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। उनके अद्मय साहस
और धर्य का लोहा अंग्रेज अधिकारी भी मानते थे।

 यहाँ उनके जीवन से जुड़े कुछ प्रेरक प्रसंग दिये
जा रहे हैं, जो मुख्यतः अंडमान-निकोबार के सेल्लुलर जेल में दि जाने वाली कठोर यातनाओं
और सावरकर के साहस के विषय में हैं।

दूसरा प्रसंग

 

अब वीर सावरकर
की अण्मान जेल की दिल दहलाने वाली आपबीती सुनें-

”सबेरे उठते ही
लंगोटी पहनकर कमरे में बंद हो जाना तथा अन्दर कोल्हू का डण्डा हाथ से घुमाते रहना।
कोल्हू में नारियल की गरी पड़ते ही वह इतना भारी चलता कि कसे हुए शरीर के बन्दी भी उसकी
बीस फेरियाँ करते रोने लगते। बीस-बीस वर्ष तक की आयु के चोर-डाकुओं तक को इस भारी मशक्कत
के काम से वंचित कर दिया जाता, किन्तु राजबन्दी, चाहे वह जिस आयु का हो, उसे यह कठिन
और कष्टकर कार्य करने से अण्डमान का वैद्यक शास्त्र भी नहीं रोक पाता। कोल्हू के इस
डण्डे को हाथों से उठाकर आधे रास्ते तक चला जाता और उसके बाद का अर्धबोला पूरा करने
के लिए डण्डे पर लटकना पड़ता, क्योंकि हाथों में बल नहीं रहता था। तब कहीं कोल्हू की
गोल दाँडी पूरा चक्कर काटती। कोल्हू में काम करते भीषण प्यास लगती। पानी वाला पानी
देने से इनकार कर देता। जमादार कहता- ‘कैदी को दो कटोरी पानी देने का हुक्म है और तुम
तो तीन पी गए और पानी क्या तुम्हारे बाप के घर से लाएँ?’ लंगोटी पहनकर सवेरे दस बजे
तक काम करना पड़ता, निरन्तर फिरते रहने से चक्कर आने लगते। शरीर बुरी तरह से थक कर चूर
हो जाता, दुखने लगता। रात को जमीन पर लेटते ही नींद का आना तो दूर, बेचैनी में करवटें
बदलते ही रात बीतती। दूसरे दिन सवेरे पही कोल्हू सामने खड़ा होता। उस कोल्हू को पेरते
समय पसीने से तरह हुए शरीर पर जब धूल उड़कर उसे सान देती, बाहर से आते हुए कूड़े-कचरे
की तह उस पर जम जाती, तब कुरूप बने उस नंग-धड़ंग शरीर को देखकर मन बार-बार विद्रोह कर
उठता। ऐसा दुःख क्यों झेल रहे हो, जिससे स्वयं पर घृणा पैदा हो।

इस कार्य के लिए,
मातृभूमि के उद्धार के लिए, कौड़ी का भी मूल्य नहीं है। वहाँ (भारत में) तुम्हारी यातनाओं
का ज्ञान किसी को भी नहीं होगा। फिर उसका नैतिक परिणाम तो दूर की बात है। इसका न कार्य
के लिए उपयोग है, न स्वयं के लिए। इतना ही नहीं भार, भूत बनकर रहने में क्या रखा है?
फिर यह जीवन व्यर्थ में क्यों धारण करते हो? जो कुछ भी इसका उपयोग होना था, हो चुका।
अब चलो फाँसी का एक ही झटका देकर जीवन का अन्त कर डालो।”

इस भयंकर अन्तर्द्वन्द्व
एवं ग्लानि में भी वीर सावरकर अडिग-अडोल बने रहे।

            <figure><img src="https://shalasugam.com/wp-content/uploads/2021/03/VS-4-150x150.jpg" alt="VS 4" /></figure><figure><img src="https://shalasugam.com/wp-content/uploads/2021/03/VS-3-150x150.jpg" alt="VS 3" /></figure><figure><img src="https://shalasugam.com/wp-content/uploads/2021/03/VS-2-150x150.jpg" alt="VS 2" /></figure><figure><img src="https://shalasugam.com/wp-content/uploads/2021/03/VS-1-150x150.jpg" alt="VS 1" /></figure>            
    <p></p><p align="center" style="text-align: center;">तीसरा प्रसंग<o:p></o:p></p>

वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे, जिन्हें राजद्रोह
के आरोप में दो आजनम कारावास की सजा सुनायी गई। इन्होंने पहले लेखक की ख्याति
‘1857 का स्वातंन्न्य समर’ लिखकर प्राप्त किया। इस ग्रन्थ का प्रचार भगतसिंह और नेताजी
सुभाष चन्द्र बोस ने किया। ये पहले साहसी बन्दी थे जिन्होंने इंगलैण्ड से भारत लाए
जाते समय सामुद्रिक जहाज से कूदकर भागने का प्रयास किया। ये पहले लेखक थे, जिनके अधिकांश
ग्रन्थ जब्त किए गए। इनकी इंगलैण्ड में लिखी कविताओं ‘ओ शहीदो’ और ‘गुरू गोविन्द सिंह’
को जब्त किया गया और स्कॉटलैण्ड के पुलिस अधिकारी ने कहा – ‘जिस कागज पर सावरकर लिखते
हैं, वह जलकर राख क्यों नहीं हो जाता?’

उन्होंने पचास वर्ष के काले पानी की सजा साहस
और धैर्य से स्वीकार करते हुए अधिकारी से कहा- ‘क्या मुझे इस निर्णय की प्रति देखने
को मिल सकती है?’ अधिकारी ने कहा था, ‘यह बात मेरे हाथ में नहीं है, फिर भी आपके लिए
मुझसे जो कुछ बनेगा, अवश्य करूँगा। तथापि इतनी लम्बी सजा का समाचार, जो मुझ जैसे व्यक्ति
को भी विदीर्ण करने वाला था, आपने जिस धैर्य से सुना, उसे देखकर मैं यह नहीं मानता
कि आप किसी भी सहायता या सहानुभूति के पात्र होंगे।’

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