CLASS XII POL SC UNIT III राजनीतिक विचारधाराएँ

UNIT : 03 राजनीतिक विचारधाराएँ

कक्षा 12 राजनीति विज्ञान : यूनिट III राजनीतिक
विचारधाराएँ  उदारवाद समाजवाद मार्क्सवाद गांधीवाद

 

L- 8 :
उदारवाद

अर्थ :-

     
उदारवाद का अंग्रेजी पर्याय लिबरलिज्म
है जो कि लेटिन भाषा के
लिबर शब्द से बना है जिसका अर्थ है स्वतंत्र।

उदारवाद ( हिन्दी शब्द )

Liberalism ( अंग्रेजी शब्द )

Liber ( लैटिन शब्द )   
स्वतंत्र / मुक्त

                  अतः उदारवाद एक ऐसी
विचारधारा है जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल दिया गया हैं और राज्य की
सीमितता पर बल दिया गया है।

 

 उदारवाद की उत्पत्ति के कारण :-

           मध्यकालीन व्यवस्थाओं में राज्य व चर्च की अव्यवस्थाओं के कारण आए निम्न आंदोलनों द्वारा उदारवाद की
उत्पत्ति हुई :-

1. सामंतवाद का पतन।

2. निरंकुशवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया।

3. पुनर्जागरण आंदोलन।

4. धर्म सुधार आंदोलन।

5. औद्योगिक क्रांति व पूंजीपति वर्ग का उदय।

 

 उदारवाद का
विकास :-

                                     उदारवाद सामंतवादी व्यवस्था के पतन और यूरोप की दो महान क्रांतियों – 1. पुनर्जागरण व 2. धर्म सुधार आंदोलन की देन है।  इनके फलस्वरूप इंग्लैंड में औद्योगीकरण की शुरुआत हुई जिससे पूंजीपति वर्ग का
उदय हुआ। अपने विकास के प्रथम चरण में उदारवाद ने पूंजीपति वर्ग का पक्ष लिया। परंतु मार्क्सवादी एवं साम्यवादी विचारधारा के डर से यह गरीबों के
हित की बात करने लगा। वर्तमान में उदारवाद लोककल्याण की अवधारणा
का प्रबल समर्थक बना हुआ है। प्रारंभिक समय में उदारवाद का स्वरूप
नकारात्मकता था। इसे चिरसम्मत या शास्त्रीय उदारवाद भी कहा जाता है। इसका प्रवर्तक जॉन लॉक था जिसने
व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल देते हुए राज्य को व्यक्तिगत कार्यों में हस्तक्षेप
नहीं करने की बात कही। इस विचारधारा का समर्थन जेरेमी बेंथम, एडम स्मिथ, जेम्स मिल, हरबर्ट स्पेंसर आदि ने किया। 19वीं शताब्दी में जे. एस. मिल ने उदारवाद के सकारात्मक स्वरूप को प्रस्तुत किया जिसका समर्थन लास्की, मैकाइवर, रिची आदि ने किया। उदारवाद के विकास में के विभिन्न
चरणों में निम्न क्रांतियों
ने विशेष योगदान दिया है :-

 

 

क्रम
संख्या

क्रांति

योगदान

1

1688
की इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण
क्रांति

व्यक्तिवाद
पर बल

2

1776
की अमेरिकी क्रांति

अधिकारों
पर बल

3

1789
की फ्रांसीसी क्रांति

स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व पर बल

 

उदारवाद की विशेषताएं/ प्रकृति/सिद्धान्त/ तत्व
:-

 

1.व्यक्ति के विवेक में विश्वास :-

                         उदारवादी व्यक्ति को विवेकशील प्राणी मानते हैं। उनका मानना है कि व्यक्तियों ने अपने विवेक द्वारा ही राज्य जैसी संस्थाओं
का निर्माण किया है।

 2. राज्य उत्पत्ति का कारण सहमति :-

                उदारवाद के अनुसार व्यक्तियों ने आपस में समझौता कर अपने अधिकार राज्य को सौंपे हैं अर्थात आपसी सहमति से राज्य का निर्माण
हुआ है।

3. व्यक्ति और राज्य का संबंध समझौते पर आधारित :-

                 व्यक्ति और राज्य का संबंध एक समझौते पर आधारित है जिसमें सभी व्यक्तियों
ने अपने अधिकार राज्य को सौंप दिए और प्रत्युत्तर में राज्य ने व्यक्तियों की रक्षा, विकास आदि हेतु अपनी जवाबदेही
निर्धारित की है।

4. 
कानून सर्वोच्च :-

                उदारवादियों का मानना है कि देश का संविधान
या कानून ही सर्वोच्च है। इसका उल्लंघन न तो नागरिक कर सकते
हैं और न ही राज्य।

5. सीमित सरकार :-

                उदारवादियों का मानना है कि कम से कम शासन करने वाली सरकार ही अच्छी सरकार
होती हैं अर्थात राज्य के कार्य सीमित होने चाहिए।

 6. स्वतंत्रता में विश्वास :-

               उदारवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करता हैं। उनका मानना है कि राज्य को व्यक्ति के कार्यो में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

7. 
आर्थिक
क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता
:-

               उदारवादियों ने मुक्त बाजार व्यवस्था पर बल देते हुए कहा है कि आर्थिक क्षेत्र में
व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता दे देनी चाहिए।

8. व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार :-

               उदारवादियों ने व्यक्तिगत संपत्ति का समर्थन
करते हुए कहा है कि व्यक्ति को संपत्ति अर्जित करने का अधिकार होना चाहिए।

9. प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन :-

        
उदारवादियों ने प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करते हुए जीवन, स्वतंत्रता व संपत्ति के प्राकृतिक अधिकारों की वकालत की है।

 

उदारवाद
के प्रकार

:-

 

I. परंपरागत उदारवाद :-

                 इसे शास्त्रीय / चिरसम्मत /नकारात्मक / उदान्त उदारवाद के नाम से भी ज्यादा जाना जाता है। उदारवाद को एक विचारधारा के रूप में सर्वप्रथम जॉन लॉक ने प्रस्तुत
किया। इसलिए जॉन लॉक को उदारवाद का जनक कहा जाता
है। परंपरागत उदारवाद व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सीमित राज्य और मुक्त व्यापार
का समर्थन कर पूंजीवाद का समर्थन करता है तथा राज्य को एक आवश्यक बुराई समझता है जिसके
कारण इसका स्वरूप नकारात्मक हो गया। इस विचारधारा का काल 17वीं
से 18वीं सदी तक रहा। इसके समर्थक लॉक, हॉब्स, ह्यूम, स्मिथ, स्पेंसर, पेन, अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा, फ्रेंच क्रांति आदि है।

परम्परागत उदारवाद की विशेषताएं :-

A. दार्शनिक आधार पर :-

 1. व्यक्तिवाद पर बल।

2. मनुष्य की विवेकशीलता व अच्छाई में विश्वास।

3. मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों
में विश्वास।

4. व्यक्तियों की आध्यात्मिक समानता
में विश्वास।

5. व्यक्तियों की स्वतंत्र इच्छा में विश्वास।

B. राजनीतिक आधार पर :-

1. राज्य की उत्पत्ति व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा हेतु समझौते से हुई
है।

2. व्यक्ति को राज्य का विरोध
करने का अधिकार है।

3.  कानून का आधार विवेक है।

4.  राज्य आवश्यक बुराई है।

5.  सीमित सरकार सर्वोत्तम है।

C. 
सामाजिक
आधार पर
:-

1. समाज कृत्रिम संस्था है क्योंकि इसका निर्माण
मनुष्य के द्वारा किया गया है।

2. समाज निर्माण का उद्देश्य व्यक्ति
का हित है।

3. व्यक्ति के हित में ही समाज का हित संभव है।

D. 
आर्थिक
आधार पर
:-

1. मुक्त व्यापार का समर्थन।

2. पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन।

3. निजी संपत्ति के अधिकार को
मान्यता।

4. राज्य के हस्तक्षेप व नियंत्रण
का विरोध।

 

परंपरागत उदारवाद की आलोचना :-

1. परंपरागत उदारवाद अत्यधिक स्वतंत्रता या खुलापन पर जोर देता है जो कि नैतिकता व सामाजिक हित के विरुद्ध
हैं।

2. सीमित राज्य की कल्पना से राज्य
जन कल्याण का कोई कार्य नहीं कर पाएगा।

3. केवल पूंजीपति वर्ग के हितों
पर बल देता है।

4. मुक्त व्यापार का समर्थन अर्थव्यवस्था को बाजारू बना देगा जिससे व्यक्ति अधिक से अधिक धन कमाने की होड़ में लग जाएंगे।

5.  राज्य की अहस्तक्षेपी और अनियंत्रण की नीति से अव्यवस्था का माहौल
बन जाएगा।

 

II. आधुनिक उदारवाद :-

                 इसे सकारात्मक उदारवाद भी कहा जाता है। परंपरागत उदारवाद की अवधारणा ने पूंजीवाद को पोषित किया जिसके कारण
समाज दो वर्गों पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग में बंट गया। परंपरागत उदारवादी सरकार गरीबों के कल्याण हेतु प्रतिबद्ध नहीं थी जिसके कारण मार्क्सवाद और साम्यवाद का जन्म हुआ। इन दो विचारधाराओं से अपने अस्तित्व पर आए संकट के डर से उदारवाद ने लोक कल्याणकारी राज्य का समर्थन किया और निजी संपत्ति पर अंकुश लगाने
की व पूंजीपतियों पर कर लगाने की वकालत की। जॉन स्टूअर्ट मिल ने उदारवाद के सकारात्मक स्वरूप की अवधारणा को प्रस्तुत
किया और राज्य को आवश्यक अच्छाई माना। इस विचारधारा का समर्थन टी. एच. ग्रीन, लास्की, मैकाइवर, हॉबहाउस आदि ने किया।

 

 आधुनिक उदारवाद
की विशेषताएं
:-

1. कल्याणकारी राज्य पर बल।

2. व्यक्ति के सर्वांगीण विकास
पर बल।

3. सकारात्मक स्वतंत्रता, समानता व अधिकारों पर बल।

4. विकास व वैज्ञानिक प्रगति की धारणा में
विश्वास।

5. व्यक्तियों की मूलभूत आवश्यकताओं
की पूर्ति पर बल।

6. राज्य के सामाजिक हित के संदर्भ
में हस्तक्षेप का समर्थन।

7. वर्ग सामंजस्य पर बल।

8. शांतिपूर्ण, सुधारवादी और क्रमिक परिवर्तन
पर बल।

9. अल्पसंख्यकों, वृद्धों व दलितों के विशेष
हितों के संवर्धन पर बल।

10. मुक्त अर्थव्यवस्था के स्थान
पर नियंत्रित अर्थव्यवस्था पर बल।

11. संपत्ति के अधिकार को सीमित
करने पर बल।

12. पूंजीपतियों पर कर लगाने की वकालत।

13. लोकतंत्र व समाजवाद को मिलाने पर बल।

 

 आधुनिक उदारवाद
की आलोचना :-

1. उदारवाद का यह स्वरूप मूलतः पूंजीवादी वर्ग
का ही दर्शन है।

2. यह यथास्थितिवाद पर बल देता है।

3. इसका सामाजिक न्याय मात्र ढकोसला
है।

4. इसका वर्तमान स्वरूप गरीबों
को बरगलाता है।

5. स्वतंत्रता की आवश्यक परिस्थितियों
का निर्माण राज्य द्वारा ही संभव है।

6. पूंजी व्यवस्था को समाप्त करने
में असमर्थ।

 

 परंपरागत और आधुनिक उदारवाद में अंतर :-

 

क्रम संख्या

विषय

परम्परागत उदारवाद

आधुनिक उदारवाद

1

उदय का कारण

सामंतवाद, पोपवाद व निरंकुश राजतन्त्र

पूंजीवादी व्यवस्था और मार्क्सवाद

2

विकास का समय

16वीं से 18वीं सदी

19वीं सदी से वर्तमान तक

3

राज्य के प्रति दृष्टिकोण

राज्य एक आवश्यक बुराई है।

राज्य एक सकारात्मक अच्छाई है।

4

राज्य का स्वरूप

अहस्तक्षेपवादी

हस्तक्षेपवादी

5

स्वतन्त्रता का स्वरूप

असीमित या नकारात्मक
स्वतंत्रता का समर्थन

सीमित या सकारात्मक
स्वतंत्रता का समर्थन

6

अधिकारों का स्वरूप

प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन

संवैधानिक अधिकारों का समर्थन

7

आर्थिक आधार

मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन

नियन्त्रित अर्थव्यवस्था का समर्थन

8

सम्पति का स्वरूप

असीमित सम्पति अर्जित करने का समर्थन

सम्पति को सीमित करने का समर्थन

 

उदारवाद और जॉन लॉक  का दर्शन :-    

           जॉन लॉक का जन्म 1632 ई. में इंग्लैंड में हुआ। लॉक के समय इंग्लैंड में संसद और राज्य के मध्य सत्ता के लिए गृहयुद्ध छिड़ गया जिसका उसके दर्शन पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। जॉन लॉक के दर्शन की निम्नलिखित बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उदारवाद का जन्म उसके विचारों से ही हुआ है :-

1. मनुष्य स्वभाव से अच्छा और
विवेकशील है।

2. राज्य की उत्पत्ति सामाजिक समझौते के सिद्धांत से हुई है जिसका आधार
था – व्यक्तियों के अधिकारों की
रक्षा।

3. समझौता जनता की सहमति पर आधारित
है।

4. सीमित सरकार का समर्थन।

5. व्यक्तिवाद का समर्थन।

6. प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन।

7. राज्य एक आवश्यक बुराई है।

8. कानूनों का आधार विवेक है।

9. नकारात्मक स्वतंत्रता का समर्थन।

  1. जनता को विद्रोह करने का अधिकार।

L – 09 : समाजवाद

 

समाजवाद का अर्थ एवं परिभाषा :-

                       समाजवाद अंग्रेजी भाषा के सोशलिज्म
(socialism) शब्द का हिन्दी पर्याय
है जिसकी उत्पत्ति  अंग्रेजी भाषा के ही सोशियस ( socious ) शब्द से हुर्इ है जिसका अर्थ है समाज ।

समाजवाद 
(
हिन्दी शब्द )

Socialism
(
अंग्रेजी
शब्द

)

Socious
(
अंग्रेजी
शब्द

)

अर्थ

समाज

          इस प्रकार समाजवाद का सम्बन्ध समाज और उसके
सुधार से है। अर्थात समाजवाद मूलत: समाज से सम्बन्धित है और
न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील है। समाजवाद शब्द मुख्य रूप से तीन अर्थो
में प्रयुक्त किया जाता है –

1. यह एक राजनीतिक सिद्धांत है।

2. यह एक राजनीतिक आंदोलन है।

3. इसका प्रयोग एक विशेष प्रकार की समाजिक व आर्थिक व्यवस्था के लिये किया
जाता है।

परिभाषाएं  :-

1. ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार “समाजवाद वह सिद्धान्त या नीति है जो उत्पादन
एवं वितरण के सभी साधनों पर समाज के स्वामित्व का और इन साधनों का उपयोग समाज के हित में करने का समर्थन करती है।”

2. जवाहरलाल नेहरु की अनुसार “बल के बजाय जन सहमति के तरीकों से राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियों के विकेंद्रीकरण की न्यायपूर्ण व्यवस्था ही लोकतांत्रिक समाजवाद है।”

3. राम मनोहर लोहिया के अनुसार “समाजवाद ने साम्यवाद की आर्थिक लक्ष्यों और पूंजीवाद के सामान्य लक्षणों को अपना लिया है। प्रजातांत्रिक समाजवाद का लक्ष्य दोनों में सामंजस्य स्थापित करना
है।”

4. वेकर कोकर के अनुसार -‘‘समाजवाद
वह नीति या सिद्धांत है जिसका उददेश्य एक लोकतांत्रिक
केन्द्रीय सत्ता द्वारा प्रचलित व्यवस्था की अपेक्षा धन का श्रेष्ठतर वितरण
और उसके अधीन रहते हुए धन का श्रेष्ठतर उत्पादन करना है।’’

5. बर्नार्ड शॉ के अनुसार ‘‘समाजवाद का अभिप्राय संपत्ति के सभी आधारभूत साधनों पर नियंत्रण से है। यह नियंत्रण समाजवाद के किसी एक वर्ग द्वारा न होकर
स्वयं समाज के द्वारा होगा और धीरे धीरे व्यवस्थित ढंग से स्थापित किया जायेगा।’’

                    इस प्रकार परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक तरीकों से उत्पादन और वितरण के सभी साधनों पर राज्य का नियंत्रण और उससे सामाजिक व आर्थिक न्याय की स्थापना ही समाजवाद है।

 

समाजवादी अवधारणा का विकास :-

( A ) प्राचीन काल में समाजवाद :-

                  प्राचीन काल में यूनान के स्टोइक दर्शन में आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय का सिद्धांत दिया गया था।

( B ) 
मध्यकाल
में समाजवाद

:-

                 मध्यकाल में थॉमस मूर ने अपनी प्रसिद्ध कृति “यूटोपिया” में एक आदर्श समाजवादी राज्य की कल्पना प्रस्तुत की है। इसी प्रकार बेकन ने अपनी पुस्तक “न्यू अटलांटिस” में समाजवादी विचारों का उल्लेख किया है ।

( C ) आधुनिक काल में समाजवाद :-

                 समाजवाद की वास्तविक प्रगति 1789 की फ्रेंच क्रांति से हुई जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा दिया गया। 19वीं सदी में सेन्ट साइमन, चार्ल्स
फूरियर और रॉबर्ट ओवन जैसे विचारकों ने पूंजीवाद के दोषों को उजागर कर
सामाजिक और आर्थिक कल्याण की बात की। प्रूधों ने तो अपनी पुस्तक “What is Property” में निजी संपत्ति को चोरी की संज्ञा
तक दे डाली। बाकुनिन, जी. डी. कॉल, बर्नार्ड शॉ आदि विचारकों ने अनेक समाजवादी विचारधाराओं के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। इसी क्रम में कार्ल मार्क्स ने वैज्ञानिक समाजवाद
की अवधारणा प्रस्तुत कर समाजवाद को नवीन दिशा प्रदान की। चूँकि औद्योगिक क्रांति की
शुरुआत इंग्लैण्ड से हुई जिससे वहाँ शहरी श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ और इसी वर्ग ने आगे
चलकर पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध समाजवाद की अवधारणा को प्रस्तुत किया। इस प्रकार
समाजवाद की शुरुआत इंग्लैण्ड से मानी जाती है।

 

समाजवाद के तत्व या मूल सिद्धांत या विशेषताएं :-

1. व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व :-

                   समाजवाद व्यक्तिवाद के विपरीत विचार है जो व्यक्ति की अपेक्षा समाज
को अधिक महत्व देता है। इस विचारधारा की मान्यता है
कि समाज के माध्यम से ही व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास हो सकता है।

2. पूंजीवाद का विरोधी :-

                    समाजवाद पूंजीवाद का विरोधी है। समाजवाद के अनुसार समाज में असमानता तथा अन्याय का कारण पूंजीवाद की
विद्यमानता है। पूंजीवाद में उत्पादन का समान वितरण न होने के कारण संपत्ति पर पूंजीपतियों का अधिकार होता है। समाजवादियों के विचार में पूंजीपतियों व श्रमिको में सघंर्ष अनिवार्य है। अत: समाजवाद उत्पादन व वितरण के
साधनों को पूंजीपतियों के हाथों से समाज को सौंपना चाहता है।

3. सहयोग पर आधारित :-

                     समाजवाद प्रतियोगिता का विरोध करता है और सहयोग में वृद्धि करने पर बल देता है। राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग करके अनावश्यक प्रतिस्पर्धाओं को समाप्त किया जा सकता है।

4. आर्थिक समानता पर आधारित :-

                      समाजवाद सभी व्यक्तियों के लिये आर्थिक समानता प्रदान करने
का पक्षपाती है। समाजवादी विचारकों का मत है कि आर्थिक असमानता अधिकांश देशों के पिछड़ेपन का मूल कारण है।

5. उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर राज्य का नियंत्रण :-

                       समाजवादी विचारकों का मत है कि सम्पूर्ण देश की सम्पत्ति पर किसी व्यक्ति विशेष का नियंत्रण न होकर सम्पूर्ण समाज का नियंत्रण होना चाहिए। उत्पादन
तथा वितरण के साधन यदि राज्य के नियंत्रण में रहेंगे तो सभी व्यक्तियों की
आवश्यकताओं की पूरी हो जायेंगी।

6. लोकतांत्रीय शासन में आस्था :-

                       समाजवादी विचारक राज्य के लोकतंत्रीय स्वरूप में विश्वास
रखते है। ये मताधिकार का विस्तार करके संसद को उसकी व्यवस्था चलाने के लिये एक महत्वपूर्ण
साधन मानते है। इस व्यवस्था से व्यक्तियों को राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति होती है।

7. उत्पादन का लक्ष्य समाजीकरण :-

                       उत्पादन के समाजीकरण का तात्पर्य है कि उद्योग
चाहे सार्वजनिक क्षेत्र का हो या निजी क्षेत्र का हो, उन पर नियंत्रण की व्यवस्था
राज्य के निर्देशानुसार होनी चाहिए और इनका संचालन लाभ
प्राप्ति के लिए  नहीं अपितु सामाजिक हितों की दृष्टि
से किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए स्कूल, अस्पताल आदि चाहे सरकारी हो या निजी, उनका लक्ष्य समाज का भला करना होता है। भले ही निजी संस्थाएं लाभ की मंशा रखते हैं परंतु वह लाभ राज्य द्वारा
जारी गाइडलाइन के तहत ही प्राप्त किया जा सकता है।

8. असीमित संपत्ति संग्रह के विरुद्ध :-

                             समाजवाद का मानना है कि संपति भेदभाव को बढ़ावा देती है जो कि शोषण को जन्म देती है। अतः संपत्ति के असीमित संग्रह के अधिकार को समाप्त किया जाना चाहिए। इसी क्रम में समाजवाद का मानना
है कि बड़े-बड़े उद्योग असीमित संपत्ति को जन्म देते हैं। अतः सभी बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना चाहिए।

9. 
राजनीतिक
और आर्थिक आजादी का समर्थन
:-

                              समाजवाद राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता का पक्षधर भी है। इसका मानना है कि व्यक्तियों को काम का अधिकार, उचित पारिश्रमिक का अधिकार
एवं अवकाश का अधिकार होना चाहिए। समाजवाद का मानना है कि आर्थिक
स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है।

 10. श्रेष्ठ मानव जीवन का लक्ष्य :-

                              समाजवाद राज्य को सद्गुणों को विकसित करने वाली संस्था मानता है। इसका मानना है कि समाजवादी राज्य ही शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, मनोरंजन और श्रेष्ठ सांस्कृतिक जीवन की सुविधाएं जुटा सकता है। अतः श्रेष्ठ मानव जीवन सामाजिक राज्य द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

 

समाजवाद के पक्ष में तर्क या गुण

1. शोषण का अन्त :

                             समाजवाद श्रमिकों एवं निर्धनों के शोषण का विरोध करता है। समाजवादियों ने स्पष्ट कर दिया है कि पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों के षडयंत्रों के कारण ही निर्घनों व श्रमिकों का शोषण होता है। यह विचारधारा शोषण के अन्त में आस्था रखने वाली है।
इसलिये विश्व के श्रमिक, किसान व निर्घन इसका समर्थन करते है।

2. सामाजिक न्याय पर आधारित :-

                           समाजवादी व्यवस्था में किसी वर्ग विशेष के हितों को महत्व न देकर समाज के सभी व्यक्तियों के हितों को महत्व दिया जाता है। यह व्यवस्था पूंजीपतियों के अन्याय को
समाप्त करके एक ऐसे वर्गविहीन समाज की स्थापना करने का समर्थन
करती है जिसमें विषमता न्यनूतम हो।

3. उत्पादन का लक्ष्य सामाजिक आवश्यकता :

                          व्यक्तिवादी व्यवस्था में व्यक्तिगत लाभ को ध्यान में रखकर किये जाने
वाले उत्पादन के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था में समाजिक आवश्यकता और हित को ध्यान में रखकर उत्पादन करने पर बल दिया जाता है  क्योंकि समाजवाद इस बात पर
बल देता है कि जो उत्पादन हो वह समाज के बहुसंख्यक लोगो के लाभ के लिए हो।

4. उत्पादन पर समाज का नियंत्रण : –

                    समाजवादियों का मत है कि उत्पादन और वितरण के
साधनों पर राज्य का स्वामित्व स्थापित करके विषमता को समाप्त किया जा सकता
है।

5. सभी को उन्नति के समान अवसर :-

                    समाजवाद सभी लोगों को उन्नति के समान अवसर प्रदान
करने के पक्षपाती है। इस व्यवस्था में कोर्इ विशेष सुविधा संपन्न वर्ग नही होगा। सभी लोगो
को समान रूप से अपनी उन्नति एव विकास के अवसर प्राप्त होंगे।

6. साम्राज्यवाद का विरोधी : –

                   समाजवाद औपनिवेशिक परतत्रंता और साम्राज्यवाद का विरोधी है। यह राष्ट्रीय
स्वतंत्रता का समर्थक है। लेनिन के शब्दों में ‘‘साम्राज्यवाद
पूंजीवाद का अंतिम चरण है।’’ समाजवादियों का मत है कि जिस प्रकार पूंजीवाद में व्यक्तिगत शोषण होता है, ठीक उसी प्रकार साम्राज्यवाद
मे राज्यों को राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से परतंत्र बनाकर शोषण किया जाता है।

7. सत्ता के राजनीतिक एवं आर्थिक विकेन्द्रीकरण पर
बल।

8. धर्म एवं नैतिकता के महत्व को स्वीकारना।

 

समाजवाद के विपक्ष में तर्क अथवा
आलोचना
:-

 

1. राज्य के कार्य क्षेत्र में वृद्धि :-

                       समाजवाद में आर्थिक तथा राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में राज्य का अधिकार होने से
राज्य का कार्य क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जायेगा जिसके परिणामस्वरूप राज्य द्वारा
किये जाने वाले कार्य समुचित रूप से संचालित और सम्पादित नही होंगे।

2. वस्तुओं के उत्पादन में कमी :-

                       समाजवाद के आलोचकों की मान्यता है कि यदि उत्पादन के
साधनों पर सम्पूर्ण समाज का नियंत्रण हो तो व्यक्ति की कार्य करने की प्रेरणा समाप्त हो जायेगी और कार्यक्षमता भी धीरे-धीरे घट जायेगी। व्यक्ति को अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने का अवसर
नही मिलेगा जिससे वस्तुओं के उत्पादन की मात्रा घट जायेगी।

3. पूर्ण समानता संभव नही :-

                      प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान उत्पन्न
नही किया। जन्म से कुछ बुद्धिमान, कुछ मुर्ख, कुछ स्वस्थ व कुछ परिश्रमी होते है। इन सबको समान समझना प्राकृतिक सिद्धांत की अवहेलना करना है। अत: पूर्ण समानता स्थापित नही की जा सकती।

4. समाजवाद प्रजातंत्र का विरोधी :-

              प्रजातंत्र में व्यक्ति के अस्तित्व को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। वहीं समाजवाद में वह राज्य रूपी विशाल मशीन में एक निर्जीव पुर्जा बन जाता है।

5. नौकरशाही का महत्व : –

                   समाजवाद में राज्य के कार्यो में वृद्धि होने के कारण नौकरशाही का महत्व बढ़ता है और सभी निर्णय
सरकारी कर्मचारियों द्वारा लिये जाते है। ऐसी स्थिति में
भष्टाचार बढ़ता है।

6. 
समाजवाद
हिंसा को बढाता है
:-

                  समाजवाद अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्रांतिकारी तथा हिंसात्मक
मार्ग को अपनाता है। वह शांतिपूर्ण तरीको में विश्वास नही करता। वह वर्ग संघर्ष
पर बल देता है। जिसके परिणामस्वरूप समाज में वैमनस्यता और विभाजन की भावना फैलती है।

7. स्पष्ट विचारधारा नहीं :-

                   समाजवाद में अस्पष्टता और अनिश्चितता है। उदाहरण के लिए कुछ समाजवादी राष्ट्रीयकरण पर बल देते हैं तो कुछ समाजीकरण पर। निजी संपत्ति पर किस सीमा तक नियंत्रण रखा जाए, इस संबंध में भी समाजवादियों
में एकमत नहीं है।

 8. विरोधाभासी विचारधारा :-

                   लोकतंत्र स्वतंत्रता में विश्वास करता है जबकि समाजवाद
नियंत्रण की व्यवस्था में विश्वास करता है। इस प्रकार लोकतंत्र और समाजवाद के परस्पर विरोधाभासी
विचारधारा होने के कारण समाजवादियों की विचारधारा विरोधाभासी प्रतीत होती है।

समाजवाद की आलोचना को हम निम्न दो कथनों से
भलीभांति समझ सकते है
:-

जोड़ ने कहा है- ”समाजवाद एक ऐसी टोपी है जिसका रूप प्रत्येक व्यक्ति
के पहनने के कारण बिगड़ गया है ।”

ब्रिटिश राजनीतिज्ञ  हैरॉल्ड लॉस्की ने कभी समाजवाद को एक ऐसी टोपी कहा था जिसे
कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है।

निष्कर्ष :-

                   उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि समाजवादी
आर्थिक प्रणाली अनेक गुणों से सम्पन्न होते हुए भी दोषमुक्त नहीं है । पूंजीवादी आर्थिक
प्रणाली की भांति इस प्रणाली में भी अनेक कमियां एवं दोष दृष्टिगोचर होते है ।                                                                                           
                                           पूंजीवादी एवं समाजवादी आर्थिक प्रणालियों
का यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट होता है कि दोनों प्रणालियों में से कोई भी प्रणाली
अपने आप में पूर्ण नहीं है । किन्तु तुलनात्मक रूप से यदि विश्लेषण किया जाये तो समाजवादी
आर्थिक प्रणाली पूंजीवादी प्रणाली की तुलना में अधिक सफल एवं विकसित हुई है ।

           इस सफलता का कारण समाजवादी प्रणाली की अधिकतम
सामाजिक कल्याण की भावना का होना है । साथ ही पूंजीवाद के दोष एवं शोषण (मुख्यत: आर्थिक विषमताएं, वर्ग संघर्ष, अन्याय, शोषण,
अत्याचार आदि) से जनमानस को मुक्ति दिलाने में समाजवादी आर्थिक प्रणाली ने महत्वपूर्ण
भूमिका अदा की है ।

समाजवाद की इसी विशेषता के कारण अल्प समय में
यह प्रणाली अनेक देशों में विकसित हो गई ।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जहां पूंजीवाद
असफल होता है, वहां समाजवाद सफल होता है ।

इस प्रकार समाजवाद पूंजीवाद के दोषों को दूर
करने का एक साधन है । यदि समाजवादी आर्थिक प्रणाली को समाजवाद की मौलिक मान्यताओं के
अन्तर्गत क्रियान्वित किया जाए तो समाजवाद की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है ।

प्रमुख समाजवादी विचारक :-  सेंट साइमन, चार्ल्स फूरियर, रोबर्ट ओवन, R.H.
टॉनी, हेराल्ड लास्की, क्लीमेंट एटली, रैम्जे मैकडोनल्ड।

प्रमुख भारतीय समाजवादी विचारक : जवाहरलाल
नेहरू, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय, जयप्रकाश नारायण


L 10 : मार्क्सवाद

 

मार्क्सवाद का अभिप्राय

                

               जर्मनी के प्रसिद्ध विचारक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल्स ने मिलकर
दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र, विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि की विभिन्न समस्याओं पर अत्यधिक गंभीर अध्ययन करते हुए
सभी समस्याओं के संबंध में एक सुनिश्चित विचारधारा और एक नवीन दृष्टिकोण विश्व के सामने
रखा जिसे मार्क्सवाद के नाम से जाना जाता है।

मार्क्सवाद में
योगदान :-

राजनीतिक पहलू का
चिंतन : कार्ल मार्क्स

वैज्ञानिक एवं
दार्शनिक पहलू का चिंतन : फ्रेडरिक एंजिल्स

       
 इस विचारधारा के
समर्थक कार्ल मार्क्स के अतिरिक्त फ्रेडरिक एंजिल्स, लेनिन, स्टालिन,  कोटसी, रोजा लक्जमबर्ग, माओ, ग्राम्शी आदि है।

 कार्ल मार्क्स
का जीवन परिचय :-

                             कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी में 1818 ई. को एक यहूदी परिवार में हुआ। इनके पिता एक वकील थे। उनके बचपन में
ही इनके पिता ने इसाई धर्म स्वीकार कर लिया। इन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। यहां पर उन्होंने हीगल के द्वन्दात्मक दर्शन का अध्ययन किया। मार्क्स शुरुआत में विश्वविद्यालय
के शिक्षक बनना चाहते थे परंतु नास्तिक विचारधारा का होने के कारण वह शिक्षक नहीं बन पाया। 1841 ई. में मार्क्स ने जेना विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। 1843
ई. में उनका विवाह जैनी नामक
युवती से हुआ। 1849 ई. में मार्क्स इंग्लैंड चले गए
जहां पर उनकी मित्रता फ्रेडरिक एंजिल्स से हुई और यहीं पर कार्ल मार्क्स ने फ्रेडरिक एंजिल्स  के साथ मिलकर मार्क्सवादी विचारधारा
का प्रतिपादन किया। 14 मार्च 1883 ई. को लंदन में इनका देहांत हो
गया।

   कार्ल मार्क्स
के दर्शन के स्रोत :

            ऐसा नहीं है कि मार्क्स ने जो दर्शन प्रतिपादित किया वह पूर्णत: मौलिक था। मार्क्स ने विभिन्न विचारकों के सिद्धांतों को अपनाकर मार्क्सवाद का
प्रतिपादन किया। उस पर निम्नलिखित विचारकों का स्पष्ट प्रभाव था :-

1. जर्मन विचारकों का प्रभाव :-        

       
जर्मन विचारक हीगल से मार्क्स ने द्वन्दात्मक पद्धति और फायरबाख से भौतिकवाद का विचार ग्रहण किया।

2.  ब्रिटिश
अर्थशास्त्रियों का प्रभाव :-

   
                    मार्क्स ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों जैसे एडम स्मिथ, रिकार्डो आदि के विचारों से प्रभावित थे। इनसे प्रभावित होकर मार्क्स ने श्रम का
सिद्धांत और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।

3. फ्रेंच समाजवादियों का प्रभाव :-

             फ्रेंच विचारक सेंट साइमन, चार्ल्स फोरियर आदि ने समाजवाद का प्रतिपादन
किया और इन विचारकों का मार्क्स पर स्पष्ट प्रभाव
पड़ा है। इन विचारकों से ही प्रभावित होकर मार्क्स ने
उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व का सिद्धांत, श्रमिकों का उत्पादन और उनका
शोषण करने वाले वर्ग के विनाश का सिद्धांत और वर्ग विहीन समाज की स्थापना का विचार प्रस्तुत किया।

4. सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियां का प्रभाव
:-             

                तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों में पूंजीवाद
का वर्चस्व था जिसने समाज के शोषणवादी चरित्र को प्रस्तुत किया और इन्हीं परिस्थितियों
ने मार्क्स को क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया।

         
 इस प्रकार हम कह
सकते हैं कि मार्क्स
में अलग-अलग स्थानों से अलग-अलग प्रकार की विषय-वस्तु एवं विचार ग्रहण किए परंतु उसने साम्यवाद का जो विशाल भवन बनाया, वह पूर्णत: मौलिक है।

 

मार्क्सवाद की प्रमुख रचनाएं :-

1. द पॉवर्टी ऑफ फिलोसॉफी 1847

2. इकोनॉमिक एंड फिलोसॉफिक मनुस्क्रिप्ट 1844

3. थीसिस ऑन फायरबाख
-1888

4.  क्लास स्ट्रगल इन फ्रांस

5. द क्रिटिक ऑफ पॉलीटिकल इकोनॉमी – 1859

6.  वैल्यू प्राइस एंड प्रॉफिट – 1865

7. दास कैपिटल ( तीन खण्ड 1867,1885 व 1894 )

8. द सिविल वार इन फ्रांस -1871

9.  द गोथा प्रोग्राम

10.  दे होली फैमिली – 1845 एंजिल्स द्वारा,  जर्मन आईडियोलॉजी – 1845 और द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो – 1848 दोनों एंजिल्स के साथ मिलकर
लिखी।

11. द ओरिजन ऑफ फैमिली,
प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट – एंजिल्स

12. स्टेट एंड
रेवोल्यूशन – लेनिन

13. ऑन
कॉन्ट्रेडिक्शन – माओत्से तुंग ( माओ )

14. द प्रिजन नोट
बुक्स – ग्राम्शी

 

मार्क्स के प्रमुख विचार या मान्यताएं :-

 

A. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद :-

                 द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्स के संपूर्ण चिंतन का मूल आधार है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में  द्वंद्वात्मक का आशय  सृष्टि के विकास की प्रक्रिया
से है और भौतिकवाद का आश्य सृष्टि के मूल तत्व से हैं। इस सिद्धांत के प्रतिपादन में मार्क्स ने हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति और फायरबाख से भौतिकवाद का  दृष्टिकोण ग्रहण किया।

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रक्रिया :    

             जहाँ हीगल अपने दर्शन में सृष्टि का मूल तत्व आत्मा या चेतना को मानता है वहीं मार्क्स ने सृष्टि का मूल तत्व जड़ या पदार्थ
को माना है। मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया को गेहूँ के पौधे के उदाहरण से स्पष्ट किया है :-

 

चरण

द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया

विवरण

प्रथम

वाद

गेहूं का दाना

द्वितीय

प्रतिवाद

गेहूं का पौधा

तृतीय

संवाद

बाली आना, गेहूं का दाना बनना, पौधे का सूखकर नष्ट होना

 

 इसी प्रकार मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया द्वारा साम्यवाद को समझाने
का प्रयास किया है :-

 

चरण

द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया

विवरण

प्रथम

वाद

पूंजीवाद

द्वितीय

प्रतिवाद

सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व

तृतीय

संवाद

 साम्यवाद

 

द्वन्द्वात्मक विकास के नियम :-

        

    
मार्क्स के द्वंद्वात्मक विकास के
निम्न 3 बुनियादी नियम बताए हैं :-

·       परस्पर एवं विपरित तत्वों की एकता एवं संघर्ष

·       परिमाण से गुण की ओर परिवर्तन

·       निषेध का निषेध नियम

 

B.  इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या :-

 

                         इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से भी जाना जाता है। मार्क्स का मानना है कि मानव इतिहास में होने वाले विभिन्न परिवर्तन
एवं घटनाएं कुछ विशेष व महान व्यक्तियों के कार्यों के परिणामस्वरुप नहीं होते हैं बल्कि ये परिवर्तन व घटनाएं भौतिक और आर्थिक कारणों से होती हैं। मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद को निम्न प्रकार
समझा जा सकता है |            

          इस प्रकार स्पष्ट है कि जब जब उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन हुआ है
तब तब मनुष्य के सामाजिक संबंधों में परिवर्तन हुआ है। मार्क्स ने आर्थिक आधार पर मानव इतिहास के विकास को 6 भागों में बांटा है :-

·         
आदिम साम्यवादी अवस्था

·         
दास अवस्था

·         
सामंती व्यवस्था

·         
पूंजीवादी अवस्था

·         
सर्वहारा वर्ग
का अधिनायकवाद

·         
साम्यवादी अवस्था

            मार्क्स का मानना है कि प्रथम तीन अवस्थाएं गुजर चुकी हैं, चौथी अवस्था यानि पूंजीवादी अवस्था चल रही है और दो अवस्था अभी आनी बाकी है।

इतिहास की आर्थिक व्याख्या की के निष्कर्ष :-

1. मानव जीवन में सभ्यता के विकास की प्रक्रिया का संचालक आर्थिक तत्व
है।

2. प्रत्येक युग में जिसका आर्थिक
व्यवस्था पर नियंत्रण था उसका सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था पर नियंत्रण था।

3. आर्थिक परिवर्तनों से ही सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन होते हैं।

4.  आदिम साम्यवाद अवस्था को छोड़कर पूंजीवादी अवस्था तक वर्ग संघर्ष की
अवस्था रही है।

5. इतिहास की आर्थिक व्याख्या
के आधार पर ही मार्क्स  पूंजीवाद के अंत और साम्यवाद के
आगमन की घोषणा करता है।

 

 इतिहास की आर्थिक व्याख्या की आलोचना :-

1. आर्थिक तत्व पर अत्यंत बल।

2. सभी ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या
आर्थिक आधार पर संभव नहीं है।

3. इतिहास की धारणा राज्य विहीन समाज पर आकर रुकना संभव नहीं है।

4. राजनीतिक सत्ता का एकमात्र
आधार आर्थिक सत्ता नहीं हो सकता है।

 

C. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत :-                

                मार्क्स ने अपनी पुस्तक “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” का प्रारंभ इस वाक्य से किया
है कि समाज का अब तक का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। उसका मानना है कि आदिम साम्यवाद अवस्था को छोड़कर वर्तमान तक का इतिहास
वर्ग संघर्ष से भरा पड़ा है। दास अवस्था में स्वामी व दासों के मध्य, सामंती अवस्था में जमींदारों और किसानों के मध्य और पूंजीवादी अवस्था में पूंजीपतियों व मजदूरों के मध्य संघर्ष होता आया है। सभी युगों में यह संघर्ष कभी चोरी-छुपे तो कभी खुलेआम होता रहा है। परिणामत: इस संघर्ष का अंत कभी क्रांतिकारी
पुनर्निर्माण से तो कभी-कभी
दोनों पक्षों के विनाश से हुआ हैं। मार्क्स का कहना है कि अब तक के इतिहास में जिस वर्ग ने शोषणकर्त्ता से सत्ता छीनी है कालांतर में वही वर्ग शोषणकर्त्ता साबित हुए हैं।

एंगेल्स ने अपनी
पुस्तक ” Origin of Family : Private Property and State ”  में लिखा है कि पहली शोषक संस्था परिवार है और
शोषित वर्ग महिला है।

वर्ग :-  जिस समूह का एक समान आर्थिक हित हो उसे वर्ग कहते है। जैसे श्रमिक वर्ग, पूंजीपति
वर्ग आदि।

संघर्ष :- असंतोष, रोष व असहयोग

 

 वर्ग संघर्ष
के सिद्धांत की आलोचना :-

·    एकांकी व दोषपूर्ण ।

·    सामाजिक जीवन का मूल तत्व सहयोग है, संघर्ष नहीं ।

·    समाज में केवल दो ही वर्ग ( शोषक व शोषित वर्ग ) नहीं होते हैं।

·    सामाजिक वर्ग व आर्थिक वर्ग में अंतर होता है।

·    क्रांति श्रमिक वर्ग की बजाय बुद्धिजीवी वर्ग से ही संभव है।

·    समस्त इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास नहीं हो सकता है।

 

D. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत :-

         
मार्क्स
का यह सिद्धांत पूंजीवादी अवस्था में मजदूरों
के शोषण की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। मार्क्स ने यह सिद्धांत रिकार्डो के श्रम सिद्धांत के आधार पर प्रस्तुत किया है। मार्क्स के अनुसार उपयोगिता मूल्य एवं विनिमय मूल्य का अंतर अतिरिक्त मूल्य है।

मार्क्स के अनुसार
बाजार में माल परिचालन का सामान्य सूत्र है :- C – M – C अर्थात वस्तु – मुद्रा –
वस्तु

अर्थात पूंजीपति
अपने पास उपलब्ध वस्तु को लेकर बाजार में आता है और उसे उचित मूल्य पर बेच कर
मुद्रा कमाता है तथा उसी मुद्रा से अपनी दूसरी इच्छित वस्तु खरीद कर बाजार छोड़
देता है। इस प्रकार वस्तु के विनिमय से पूंजी का निर्माण करता है।

मार्क्स के अनुसार
पूंजी के परिचालन का सूत्र है :- M – C – M’ अर्थात मुद्रा – वस्तु – (मुद्रा +
लाभ )

इस प्रकार पूंजीपति
अपनी मुद्रा ( M ) लेकर बाजार में आता है। इससे माल खरीद कर व श्रम शक्ति लगा कर
नया माल बनाता है तथा फिर इसे बाजार में अधिक मूल्य पर बेचकर अधिक मुद्रा ( M’ )
कमा लेता है।

इस प्रकार (  M’ – M ) को मार्क्स अतिरिक्त मूल्य कहता है।

इसके अलावा पूंजीपति
निर्वाह मजदूरी पर श्रमिक का श्रम खरीद लेता है और वह मजदूर को निर्वाह मजदूरी से
तय श्रम से ज्यादा श्रम करने के लिए बाध्य करता है। इस प्रकार इस अतिरिक्त श्रम का
मूल्य श्रमिक के पास न जाकर पूंजीपति के पास चला जाता है जो कि अतिरिक्त मूल्य है।

साथ ही कभी कभी
बाजार में मांग पूर्ति के कारण भी पूंजीपति को मुनाफा होता है, वह भी अतिरिक्त
मूल्य है।

इस प्रकार अतिरिक्त
मूल्य पूंजी का निर्माण करता है जिससे पूंजीपति और अधिक अमीर बन जाता है एवं
श्रमिक की स्थिति दयनीय होने लगती है।

 

अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की आलोचना :-

1. श्रम एकमात्र उत्पादन का साधन
नहीं।

2. मानसिक श्रम की अवहेलना।

3. मौलिक नहीं ( रिकार्डो से प्रभावित )।

 

मूल्य का प्रभाव :-

1. श्रमिकों की दयनीय स्थिति।

2. सर्वहारा वर्ग की क्रांति का कारण।

3. जनसंख्या वृद्धि का कारण।

 

E. अलगाव का सिद्धांत :-

                 अलगाव का सिद्धांत मार्क्स की पुस्तक “इकोनामिक एंड फिलोसॉफिकल मनुस्क्रिप्ट – 1844” में दिया गया है। मार्क्स के जीवन काल में यह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाई। बाद में हंगरी की मार्क्सवादी विचारक जॉर्ज ल्यूकास ने सर्वप्रथम अलगाववाद पर लेख लिखे। जब मार्क्स की पुस्तक प्रकाशित हुई तो इस सिद्धांत का महत्व और अधिक बढ़ गया।

 मार्क्स ने
पूंजीवादी समाज के अंतर्गत अलगाव के चार स्तरों की पहचान की है :-

1. उत्पादन उत्पादन प्रणाली से अलगाव:-

         
 इसे हम कमीज बनाने
की प्रक्रिया से समझ सकते है। पूर्ववर्ती सामंतवादी अवस्था में मजदूर या कारीगर कमीज का पूर्ण निर्माण स्वयं करता था जिसमें उसे इस बात का अपनापन
महसूस होता था कि अमुक कमीज उसके द्वारा बनाया गया है परंतु पूंजीवादी अवस्था में मशीन
के उपयोग से अब  कमीज एक व्यक्ति नहीं बनाता
है बल्कि कमीज के अलग-अलग भाग अलग-अलग व्यक्ति बनाते हैं जिससे कामगार का उस कमीज से कोई लगाव नहीं रहता है।

2. प्रकृति से अलगाव :-

        
 मशीनों पर काम
करते-करते मनुष्य का प्राकृतिक वातावरण जैसे खेतों की हरियाली, घास के मैदान, बारिश के घने बादल आदि से संबंध
टूट जाता है।

3. साथियों से अलगाव :-

         
 आर्थिक प्रणाली
प्रतिस्पर्धात्मक होने के कारण व्यक्ति अपने साथियों से भी प्रतिस्पर्धा करने लगता
है जिससे हमें यह लगने लगता है कि मेरा काम कोई दूसरा न ले ले। इस प्रकार व्यक्ति अपने साथियों के साथ भी अलगाव रखने
लगता हैं।

 4. स्वयं से अलगाव :-

         
 अंतत: मनुष्य धन कमाने की अंध-दौड़ में इतना अधिक व्यस्त हो जाता है कि उसे साहित्य, कला, संस्कृति, रीति-रिवाजों, परंपराओं, त्यौहारों आदि से कोई लगाव नहीं रहता है और वह इन सब को मात्र औपचारिक
समझने लगता है। इस
प्रकार वह स्वयं से भी अलगाव करने लगता है।

 

F.  पूंजीवाद का विश्लेषण :-

           मार्क्स के अनुसार इतिहास की प्रत्येक अवस्था अपनी पिछली अवस्था से उन्नत होती हैं क्योंकि वह उत्पादन की शक्तियों के विकास का संकेत देती है। अतः सामंतवाद
की तुलना में पूंजीवाद श्रेष्ठ है।

 मार्क्स ने
अपनी पुस्तक “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” में लिखा है कि पूंजीवादी व्यवस्था ने उत्पादन के साधनों को द्रुत गति से उन्नत
करके और संचार के साधनों को अत्यधिक सुविधाजनक बना कर समस्त राष्ट्रों यहां तक कि बर्बर
एवं असभ्य जातियों को भी सभ्य बना दिया है।

 मार्क्स का
कहना है कि पूंजीवाद में दो विरोधी वर्गों का हित पाया जाता है तथा यह पूंजीपतियों
के लिए निरंतर अथाह पूंजी का निर्माण करता है। इस प्रकार अत्यधिक पूंजी निर्माण की
प्रतिस्पर्धा में पूंजीपतियों द्वारा अत्यधिक
उत्पादन किया जाएगा परिणामस्वरूप माल अधिक होने और
खपत कम होने से मांग कम हो जाएगी जिससे पूंजीपतियों के प्रतिस्पर्धा के तत्व का अंत
हो जाएगा और पूंजीवाद की समाप्ति हो जाएगी।

G. राज्य व शासन संबंधी विचार :-

              कार्ल मार्क्स  के राज्य संबंधी विचार “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” में मिलते हैं जो कि निम्नानुसार है :-

·    राज्य की उत्पत्ति का कारण वर्ग विभेद है।

·    राज्य शोषक वर्ग या पूंजीपति वर्ग के हितों की सुरक्षा करता है।

·    राज्य शोषण का यंत्र है।

·    वर्ग संघर्ष उपरांत राज्य व पूंजीपति वर्ग के अवशेषों को समाप्त करने के लिए सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व की स्थापना होगी।

·    अंततः राज्य समाप्त हो जाएगा और राज्य विहीन व वर्ग विहीन समाज की स्थापना होगी।

 आलोचना
:-

·    राज्य केवल एक वर्गीय संस्था नहीं है बल्कि नैतिक संस्था है।

·    वर्तमान में राज्य सर्वहारा वर्ग का शत्रु न होकर मित्र हैं।

·    राज्य स्थायी हैं न
कि अस्थायी।

·    राज्य के विलुप्त होने की धारणा मात्र कल्पना है।

 

H. लोकतंत्र, धर्म व राष्ट्रवाद के संबंध में मार्क्स के
विचार

:-

                कार्ल मार्क्स लोकतंत्र, धर्म और राष्ट्रवाद को मजदूरों के शोषण का साधन मानता है। मार्क्स के अनुसार धर्म अफीम के समान नशा है जो कि श्रमिकों का शोषण
करता है।

 मार्क्स के
अनुसार मजदूरों का कोई देश नहीं होता है। अतः विश्व के सभी मजदूरों को एक हो जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में मार्क्स राष्ट्रवाद को व्यर्थ बताता है।

 

I. मार्क्सवादी कार्यक्रम :-

·    पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध क्रांति।

·    संक्रमण काल में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना।

·    पूर्ण साम्यवाद की स्थापना।

 

 मार्क्सवाद
की आलोचना :-

1.        
हिंसा व क्रांति
को प्रोत्साहन।

2.        
वर्ग संघर्ष का
प्रचार कर वर्ग सहयोग को समाप्त कर देना चाहता है।

2.        
व्यक्तिगत स्वतंत्रता
के लिए घातक।

3.        
राज्य के विलुप्त
होने की धारणा गलत है।

4.        
राज्य शोषण का
यंत्र है, गलत है।

5.        
समाज दो वर्गों
की बजाय अनेक वर्गों में विभाजित है।

6.        
पदार्थ में स्वतः परिवर्तन संभव नहीं है।

7.        
अलोकतांत्रिक विचारधारा।

मार्क्सवाद का योगदान या
वर्तमान समय में प्रासंगिकता :-

                           कार्ल मार्क्स ने अपने विचारों से समाजवाद लाने का ठोस एवं सुसंगत कार्यक्रम
प्रस्तुत किया जिसने विश्व में हलचल पैदा कर दी। मार्क्स के विचारों को आधार बनाकर लेनिन ने 1917 ई. में सोवियत संघ में और 1949 में माओत्से तुंग ने चीन में साम्यवादी शासन
की स्थापना की जिससे अपने अस्तित्व के संकट को देखकर उदारवादी पूंजीवाद ने अपने आप को सुधारने का प्रयास करते हुए लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा
प्रस्तुत की । हम निम्न तथ्यों के आधार पर मार्क्स के योगदान / प्रासंगिकता को स्पष्ट कर सकते
हैं :-

1.     
विभिन्न
विचारधाराओं का आधार
:-

                         मार्क्सवाद ने आधुनिक विश्व में प्रचलित अनेक विचारधाराओं जैसे समाजवाद, फेबियनवाद, श्रमिक संघवाद, अराजकतावाद, लोकतांत्रिक समाजवाद, बहुलवाद, साम्यवाद, लेनिनवाद आदि को वैचारिक आधार प्रदान किया है।

2.      उदारवाद को चुनौती :-

                       मार्क्स का मानना था कि जब तक उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर पूंजीपतियों का आधिपत्य रहेगा तब तक पूंजीपतियों द्वारा सर्वहारा वर्ग का शोषण
किया जाएगा। अतः सर्वहारा वर्ग को क्रांति के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था को
उखाड़ फेंकना चाहिए और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना करनी चाहिए। इस प्रकार मार्क्स
ने उदारवाद को चुनौती प्रस्तुत की।

3.      समाजवाद की व्यवहारिक योजना प्रस्तुत :-                    

                   मार्क्स ने अपने कार्यक्रम के माध्यम से समाजवाद की व्यवहारिक और वैज्ञानिक
योजना प्रस्तुत की।
मार्क्स से पूर्व का समाजवाद मात्र काल्पनिक था जो समाज में होने वाले परिवर्तनों की आधारभूत योजना प्रस्तुत करने
में असफल रहा था।

  1. श्रमिक वर्ग में जागृति
    :-

                   मार्क्स ने अपने विचारों जैसे अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत, वर्ग संघर्ष के सिद्धांत आदि से श्रमिकों के शोषण की व्यवस्था को उजागर कर उन्हें जागृत किया। साथ ही उन्होंने अपने नारों “विश्व के मजदूरों एक हो जाओ”,  “तुम्हारे पास खोने के लिए जंजीरें है और जीतने के लिए समस्त विश्व है”  के माध्यम से श्रमिकों में अपने अधिकारों के प्रति नवीन चेतना उत्पन्न
की।

  1. समाज का यथार्थवादी चित्रण
    :-

  
               मार्क्स सर्वप्रथम समाजवादी विचारक था जिसने न केवल तत्कालीन समाज का वास्तविक
चित्रण प्रस्तुत किया बल्कि अपने विचारों से समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त
करने का कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया।


L 11 : गांधीवाद

 

गांधीवाद क्या है :- गांधी जी के विचारों
और आदर्शों का संग्रह गांधीवाद है।

 गांधीजी के जीवन मूल्य :-

              गांधीजी के जीवन मूल्य निम्न है :-

 1.सत्य,
2. अहिंसा, 3. भ्रातृत्व व 4. प्रेम ।

1. गांधीजी सत्य, अहिंसा, प्रेम और भ्रातृत्व के पुजारी थे।

2. गांधी जी राजनीति को पवित्र
बनाकर उसे धर्म व न्याय पर आधारित करना चाहते थे।

3. गांधीजी व्यक्तियों में प्रेम
और स्वतंत्रता का संचार करना चाहते थे।

4. गांधीजी व्यक्ति को पुरुषार्थ
का महत्व समझाना चाहते थे।

5. गांधीजी साध्य और साधनों की पवित्रता पर बल देते थे।

 गांधीवाद विचारों का समूह मात्र है :-

       
      गांधीवाद गांधी जी के विचारों का एक समूह मात्र है जिसमें उनके निम्नलिखित
विचार हैं :-

1. गांधी जी के आदर्शों का आधार
है – सत्य, अहिंसा, प्रेम व भ्रातृत्व।

2. मानवतावाद में विश्वास।

3. वे परिवर्तनवादी थे।

4. ईश्वर में अटल विश्वास।

5. समूहवादी विचारक।

6. वर्ग सहयोग व आध्यात्मिक समाजवाद
पर बल।

7. ग्राम स्वराज्य पर बल।

8. राजनीतिक व आर्थिक विकेंद्रीकरण
पर बल।

9. राज्य विहीन एवं वर्ग विहीन समाज के समर्थक।

10. अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य को महत्व।

11. उदारवाद और नैतिकता में विश्वास।

 

 गांधी जी की रचनाएं :-

1. हिंद स्वराज

2. दक्षिण अफ्रीका
के सत्याग्रह का इतिहास

3. सत्य के साथ मेरे
प्रयोग

4.गीता पदार्थ को

गांधीजी द्वारा प्रकाशित एवं सम्पादित समाचार-पत्र और पत्रिकाएं :-

1. इंडियन ओपिनियन
(दक्षिण अफ्रीका में)

2. नवजीवन

3. यंग इंडिया

4. हरिजन

5. आर्यन पथ

 गांधीवाद के स्रोत :-

              गांधी जी के विचारों पर पड़े प्रभावों का विवेचन इस प्रकार कर सकते हैं :-

 

A. धार्मिक ग्रंथों का प्रभाव :-

1. सनातन धर्म ग्रंथों का प्रभाव :-

ग्रन्थ

प्रभाव

पतंजलि का योग सूत्र

योग दर्शन

उपनिषद

अपरिग्रह और त्याग

रामायण

भक्ति

गीता

कर्म का सिद्धान्त

 

 

 

 

 

 

2. जैन व बौद्ध ग्रंथों का प्रभाव :-

(i) अहिंसा का सिद्धांत।

(ii) मांस, मदिरा व पराई स्त्री से दूर रहना।

3. बाइबिल का प्रभाव :-

                बुराई को भलाई से, शत्रुता को मित्रता से, घृणा को प्रेम से, अत्याचार को प्रार्थना से एवं हिंसा को अहिंसा से जीतने का मार्ग गांधी जी ने बाइबिल
से ही सीखा है।

 

विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से गांधीजी ने निम्न विचारों को अपनाया :-

1. सत्य

5. ब्रह्मचर्य

9. शारीरिक श्रम

2. अहिंसा

6. अस्वाद

10. सर्वधर्म

3. अस्तेय

7. अभय

11. समभाव

4. अपरिग्रह

8. अस्पृश्यता निवारण

12. स्वदेशी

 

 

 

 

 

 

B. दार्शनिकों का प्रभाव :-

दार्शनिक

प्रभाव

जॉन रस्किन

सर्वोदय एवं शारीरिक श्रम का महत्त्व

हेनरी डेविड थोरो

सविनय अवज्ञा

लियो टॉलस्टॉय

निष्क्रिय प्रतिरोध

सुकरात

सत्याग्रह का विचार

गोपाल कृष्ण गोखले

राजनीतिक आध्यात्मीकरण

बाल गंगाधर तिलक

असहयोग, जन आंदोलन, बहिष्कार

 

C. सुधारवादी आंदोलनों का प्रभाव :-

                भारत में चल रहे विभिन्न सांस्कृतिक, दार्शनिक
व धार्मिक सुधारवादी आंदोलन का गांधीजी के विचारों पर प्रभाव पड़ा है, विशेषकर रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद का। स्वदेश प्रेम और स्वदेशी की भावना गांधी जी ने इन्हीं से सीखी थी।

 

D. सामाजिकआर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव :-

               भारतीयों की तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक दशा का भी गांधीजी के विचारों पर विशेष प्रभाव पड़ा। उनके समाजवादी विचारों पर भारतीयों
की असहाय दशा और गरीबी की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

 

 दक्षिण अफ्रीका गांधीजी के प्रयोगों की प्रयोगशाला :-

               निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि दक्षिण अफ्रीका गांधी
जी के विचारों की प्रयोगशाला थी क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में ही :-

1. गांधीजी में धार्मिक चेतना का विकास हुआ।

2. पाश्चात्य लेखकों की विचारधारा
का अध्ययन किया।

3. सर्वप्रथम सत्याग्रह का प्रयोग
हुआ।

4. नि:स्वार्थ मानव सेवा की भावना पैदा हुई।

5. समाज के प्रति कर्तव्यों की अनुभूति हुई।

6. राष्ट्रवादी विचार पनपे।

7. श्रमिकों के कार्य का महत्व
समझा।

 

 राजनीति
का आध्यात्
मीकरण :-

             गांधी जी का मानना था कि धर्म व राजनीति में घनिष्ठ संबंध
है और धर्म व राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गांधी जी का मानना था कि धर्म और राजनीति एक ही कार्य के दो नाम है। उनका विश्वास था कि जिस प्रकार धर्म का उद्देश्य अन्याय, अत्याचार और शोषण पर आधारित
सामाजिक संबंधों में परिवर्तन लाना और न्याय की स्थापना करना है, ठीक उसी प्रकार राजनीति भी
इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है। गांधीजी के अनुसार सच्चा धर्म वही है जो मानव सेवा में सलंग्न हो और
जो अहिंसा, प्रेम व सदाचार पर आधारित हो। इसी तरह गांधी जी ने राजनीति को भी मानवीयता पर आधारित माना है। अतः गांधी जी का मानना है कि धर्म और राजनीति दोनों ही नैतिकता पर आधारित
होने चाहिए।

 

साध्य और साधनों की पवित्रता पर विश्वास :-

            गांधी जी ने राजनीति और नैतिकता में निकट संबंध स्थापित करने के लिए साध्य एवं साधनों की पवित्रता पर बल दिया। गांधीजी का मानना
है कि जैसे साधन होंगे, वैसा ही साध्य होगा अर्थात साध्य की प्रकृति साधनों की प्रकृति से निर्धारित होती है। उन्होंने साधन की तुलना बीज से और साध्य की तुलना वृक्ष से करते हुए बताया कि जैसा बीज
बोओगे, वैसा ही वृक्ष उगेगा। बबूल का बीज बोकर आम का पेड़ नहीं उगाया जा सकता। उनका मानना है कि साध्य व साधन एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं जिन्हें पृथक करना संभव नहीं है। यदि साधन अनैतिक होंगे तो साध्य चाहे कितना भी नैतिक क्यों न हो, वह
अवश्य ही भ्रष्ट हो जाएगा क्योंकि गलत
रास्ता कभी भी सही मंजिल तक नहीं ले जा सकता। इसी प्रकार जो सत्ता भय व बल के प्रयोग पर
खड़ी हो जाती है, उससे लोगों के मन में स्नेह और आदर की भावना पैदा नहीं की जा सकती है।

 गांधीजी ने
1922 ई. में असहयोग आंदोलन को चौरी-चौरा कांड की घटना से इसीलिए स्थगित कर दिया था कि
लोगों ने हिंसा को साधन के रूप में इस्तेमाल करना प्रारम्भ कर दिया था।

 

 गांधीजी के
अहिंसा संबंधी विचार :-

             गांधीजी के अनुसार अहिंसा का अर्थ है मन, कर्म
व वचन से किसी को कष्ट नहीं देना।  गांधीजी के अनुसार अहिंसक व्यक्ति
प्रेम, दया, क्षमा, सहानुभूति व सत्य की मूर्ति होता है। गांधीजी के अनुसार अहिंसा के तीन प्रकार हैं :-

1. वीरों की अहिंसा :-

              वीरों की अहिंसा वह अहिंसा है जब किसी के पास बल होने के बावजूद भी बल का प्रयोग नहीं करते हैं

2. निर्बलों की अहिंसा :-

            गरीब व कमजोर वर्ग की अहिंसा को निर्बलों की अहिंसा कहा जाता है।

3. कायरों की हिंसा :-

         
ऐसे व्यक्ति जो डर या भय के कारण अहिंसक हो जाते हैं उनकी अहिंसा को कायरों की अहिंसा का
जाता है।

 

 सत्याग्रह :-

 शाब्दिक अर्थ :-     सत्याग्रह = सत्य + आग्रह अर्थात सत्य पर अडिग रहना।

 अर्थात व्यक्ति जिसे सत्य समझता है उस पर अडिग रहना।

 गांधी जी
ने सत्याग्रह की 7 विशेषताएं बताई है :-

1. ईश्वर में श्रद्धा  
 2.सत्य-अहिंसा पर अटल विश्वास      3. चरित्र      4. निर्व्यसनी

5. शुद्ध ध्येय   
6.  हिंसा का त्याग   
 7. उत्साह, धैर्य व सहिष्णुता।

 सत्याग्रह
का प्रयोग :-

            सत्याग्रह का प्रयोग दूषित सरकार, कौम, जाति,
समूह या व्यक्ति विशेष के विरोध में हो सकता है। इसका प्रयोग शासन / शासक की अत्याचारी नीति के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों के विरोध में भी किया जा सकता है।

 सत्याग्रह
के स्वरूप :-

              गांधी जी ने सत्याग्रह के चार विभिन्न स्वरूप बताएं :-

1. असहयोग

2. हिजरत

3.सविनय अवज्ञा

4. उपवास

1. असहयोग :-

            गांधीजी के अनुसार इसका तात्पर्य है कि जिसे व्यक्ति असत्य, अवैध, अनैतिक या अहितकर समझता है, उसके साथ सहयोग नहीं करना चाहिए। गांधीजी के अनुसार बुराई के साथ असहयोग करना व्यक्ति का न केवल कर्तव्य है बल्कि धर्म भी है। असहयोग के निम्न प्रकार हो सकते हैं :-

(i) हड़ताल :-

         
 व्यक्ति या व्यक्तियों
के समूह द्वारा उनकी न्याय पूर्ण मांगे नहीं माने जाने पर अहिंसक रूप से अपने काम को
बंद करने को हड़ताल कहते हैं।

(ii) 
बहिष्कार :-

               अवांछनीय शासनों, सेवाओं, व्यक्तियों, वस्तुओं, आयोजनों आदि का त्याग करना बहिष्कार है।

(iii) धरना :-

               सरकार, व्यक्ति या व्यवसायी के विरुद्ध मांगे नहीं मानने पर एक स्थान पर
बैठना, धरना कहलाता है।

2. हिजरत :-

               हिजरत का शाब्दिक अर्थ है – स्वेच्छा से स्थान परिवर्तित कर लेना।

               गांधी जी ने उन लोगों को हिजरत की सलाह दी है जो अहिंसक तरीके से अपने
आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर पाते हैं। अतः उन लोगों को
अपना आत्म-सम्मान बचाने
के लिए घर/ गांव /शहर / देश छोड़ देना चाहिए। गांधीजी ने 1928 ई. में बारडोली में और 1939 ई. में जूनागढ़ के सत्याग्रहियों को हिजरत की सलाह दी है।

3. सविनय अवज्ञा :-

     
        इसका अभिप्राय है – अनैतिक कानून को भंग करना।

              गांधीजी के अनुसार अहिंसक रूप से सरकार के कानून को नहीं
मानना, कर देने से मना करना, राज्य की सत्ता को मानने से
इनकार करना आदि सविनय अवज्ञा के रूप है। 1930 ई. में नमक कानून के विरोध में गांधीजी ने सविनय
अवज्ञा आंदोलन चलाया था।

4. उपवास 
:-

             गांधीजी के अनुसार उपवास ऐसा कष्ट है जिसे व्यक्ति स्वयं अपने ऊपर लागू
करता है। उपवास आत्म-शुद्धि के लिए होता है। व्यक्ति को उचित, न्यायसम्मत और स्वार्थरहित कार्य करने के लिए उपवास करना चाहिए। इसे भूख हड़ताल नहीं समझना चाहिए।

 

 गांधीजी के आर्थिक विचार :-

             गांधी जी न तो कोई अर्थशास्त्री थे और न ही उनके आर्थिक विचार अर्थशास्त्र के नियमों पर आधारित है। उनके आर्थिक विचार वास्तविक जीवन और अनुभव पर आधारित है। उनके आर्थिक विचार इस प्रकार हैं :-

 1. यंत्रों
का विरोध :-

           गांधी जी ने अपनी पुस्तक ” हिंद स्वराज्य ” में यंत्रों अर्थात मशीनों का विरोध
करते हुए लिखा है कि वह यंत्रों की निम्न बुराइयों के कारण विरोध करते
है :-

 (i)  यंत्रों की नकल
हो सकती है।

 (ii) यंत्रों के विकास की कोई सीमा नहीं है।

(iii) यह मानव श्रम का स्थान ले लेता है।

2. पूंजीवाद का विरोध :-

             गांधी जी का मानना है कि पूंजीवादी व्यवस्था ने गरीबी, बेरोजगारी, शोषण और साम्राज्यवाद को बढ़ावा
दिया है। परंतु गांधीजी मार्क्स की तरह पूंजीवाद का विरोध नहीं करते है। गांधीजी का पूंजी से कोई विरोध नहीं है परंतु वे पूंजी से उत्पन्न असमानताओं का विरोध करते हैं।

3. शारीरिक श्रम पर बल :-

            गांधीजी का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीविका के लिए निरंतर श्रम करते रहना चाहिए और जो लोग बिना श्रम के पेट भरते हैं, वह समाज के लिए चोर है।

4. अपरिग्रह :-

         
 गांधीजी के अनुसार
आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से आर्थिक विषमता उत्पन्न होती है। अतः आवश्यकतानुसार ही वस्तुओं का संग्रह करना चाहिए।

5. आर्थिक विकेंद्रीकरण पर बल :-

         
 गांधीजी के अनुसार
बड़े-बड़े उद्योग अधिक पूंजी का उत्पादन करते हैं तथा मशीनों द्वारा व्यक्तियों के
शारीरिक श्रम का स्थान ले लिया जाता है जिससे बेरोजगारी बढ़ती
हैं। अतः बड़े उद्योगों की जगह कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

6. ट्रस्टीशिप सिद्धांत :-

           गांधीजी के अनुसार पूंजीपति लोगों को अपनी आवश्यकतानुसार संपत्ति का
प्रयोग करना चाहिए तथा आवश्यकता से अधिक संपत्ति का ट्रस्टी बनकर उसका उपयोग जन कल्याण
के कार्य में करना चाहिए।

7. स्वदेशी :-

         
गांधीजी के अनुसार हमें अपने धर्म, राज्य, अपने उद्योग और अपनी वस्तुओं का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिए।

8. खादी :-

         
 गांधीजी के अनुसार खादी गांवों को स्वावलंबी बनाने
का साधन है जिससे एक ओर लोगों को रोजगार मिलेगा वहीं दूसरी ओर खादी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक भी है।

 

 गांधीजी के आर्थिक
विषमता दूर करने के सुझाव :-

1. अस्तेय :-

      
    अस्तेय का सामान्य अर्थ है – चोरी नहीं करना।

 गांधीजी के
अनुसार मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, वैचारिक और आर्थिक चोरी से सदा दूर रहना चाहिए। गांधीजी के अनुसार पूंजीपति लोग श्रमिक के श्रम की पूंजी की चोरी कर
धन का संचय करते हैं। इसी प्रकार व्यक्ति शारीरिक श्रम की चोरी कर आलसी
बन जाते है। अतः सभी तरह की चोरी के समाप्त हो जाने
पर समाज में आर्थिक समानता आ सकती है।

2. अपरिग्रह :-

      
 अपरिग्रह का शाब्दिक
अर्थ है –  संग्रह नहीं करना।

 गांधीजी के
अनुसार व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक वस्तु या धन का संचय नहीं करना चाहिए। व्यक्ति को निरंतर श्रम करते हुए समाज
से उतना  ही ग्रहण करना चाहिए जितना उसके
जीवन के लिए अनिवार्य हो। शेष को समाज के कल्याण हेतु समर्पित कर देना चाहिए। इस अपरिग्रह का दृढ़तापूर्वक पालन करते रहने से मनुष्य की आवश्यकताएं सीमित रहेगी और समाज में व्याप्त
आर्थिक विषमताओं का अंत संभव होगा।

3. ट्रस्टीशिप का सिद्धांत :-

                    गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के अनुसार पूंजीपति अपनी आवश्यकता के अनुसार ही संपत्ति का उपयोग करें तथा शेष संपत्ति का वह ट्रस्टी अर्थात संरक्षक बन कर उसका उपयोग
जन कल्याण के कार्यों में करे।

 गांधी जी
के ट्रस्टीशिप सिद्धांत के निम्न तत्व बताये है :-

(i) यह पूंजीवादी व्यवस्था को समतावादी समाज में
बदलने का साधन है।

(ii)  इसमें पूंजीवाद का कोई स्थान नहीं है।

(iii) यह हृदय परिवर्तन में विश्वास
रखता है।

(iv) यह निजी संपत्ति के अधिकार
को अस्वीकार करता है।

(v) ट्रस्ट की संपति का उपयोग समाज
के हित में हो।

(vi) आवश्यकता पड़ने पर ट्रस्ट का नियमन राज्य द्वारा हो।

(vii)  उत्पादन सामाजिक आवश्यकताओं पर आधारित हो।

 4. स्वदेशी :-

         
 गांधीजी स्वदेशी
के विचार से समाज में आर्थिक समानता स्थापित करने की बात करते हैं। उनके अनुसार हमें जहां तक संभव हो नजदीक के वातावरण का प्रयोग करना चाहिए और दूर के वातावरण का त्याग करना चाहिए। जैसे हमें अपने धर्म का पालन करना चाहिए, हमें अपनी राजनीतिक संस्थाओं
का प्रयोग करना चाहिए, हमें हमारे समीप में बनी वस्तुओं
का उपयोग करना चाहिए,
हमें अपने उद्योगों का उपयोग करना चाहिए आदि। गांधीजी के स्वदेशी सिद्धांत का आशय यह कतई नही है कि सभी विदेशी वस्तुओं का प्रयोग वर्जित कर दिया जाए। वे केवल उन्हीं विदेशी वस्तुओं को स्वीकार करते थे जो घरेलू या भारतीय
उद्योग को कुशल बनाने में अनिवार्य हो।

5. खादी :-

           गांधीजी का मानना है कि आर्थिक संकट की समस्या का हल करने के लिए खादी अर्थात चरखा प्राकृतिक, सरल, सस्ता और व्यवहारिक तरीका है। खादी के माध्यम से गांवों में रोजगार की
समस्याओं को समाप्त कर गांव को स्वावलम्बी  बनाया जा सकता है ताकि गांवों से शहरों की ओर पलायन भी नहीं होगा और गांवों का शोषण भी नहीं होगा। इस प्रकार खादी आलस्य व बेकारी की समस्या का तात्कालिक समाधान
है। साथ ही खादी के माध्यम से राजनीतिक संगठन और जनसंपर्क द्वारा राष्ट्रीय
आंदोलन भी चलाया जाना सरल होगा।

 गांधीजी के आर्थिक
विचारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन :-

1. अव्यवहारिक।

2. एकपक्षीय।

3. मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं
की उपेक्षा।

4. यंत्रों का अनावश्यक विरोध।

5. वर्तमान समय में खादी का सिद्धांत
प्रासंगिक नहीं।

6. ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अव्यवहारिक एवं मात्र काल्पनिक।

7. पूंजीवाद को समाप्त नहीं करना
चाहते थे।

 

गांधी जी के राजनीतिक विचार :-

1. अहिंसक आदर्श राज्य की कल्पना :-

       
गांधीजी ने अपने विचारों के माध्यम से अहिंसक और शांति पर आधारित राज्य का समर्थन किया है जिसमें उन्होंने
बल आधारित राज्य को नकारा है।

2. मर्यादित राज्य :-

             गांधीजी का मानना है कि राज्य हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है, साथ ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी
होने के कारण सदैव समाज के प्रति वांछित नैतिक उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं कर पाता
है। इसलिए राज्य को अत्यधिक शक्तियां नहीं देकर उसके कार्यक्षेत्र को सीमित
रखा जाए।

3. राज्य अनावश्यक बुराई है :-

             अराजकतावादी विचारक होने के नाते गांधीजी का
मानना है कि राज्य हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है जिससे राज्य बन कर व्यक्तियों की स्वतंत्रता और समाज कल्याण के लिए घातक
सिद्ध हो सकता है।
अतः राज्य एक आवश्यक बुराई है।

4. राज्य की शक्ति व्यक्ति के विकास में बाधक
:-

             गांधीजी का मानना है कि राज्य की शक्ति व्यक्ति के नैतिक गुणों को नष्ट
कर देती हैं जिससे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। अतः राज्य व्यक्ति के विकास में बाधक होता है।

5. व्यक्ति को प्राथमिकता :-

            गांधी जी ने राज्य के प्रभुत्व के सिद्धांत का खंडन करते हुए माना है
कि राज्य का निर्माण व्यक्ति के लिए हुआ है न कि व्यक्ति राज्य के लिए है। अतः राज्य को व्यक्ति के कल्याण पर प्राथमिकता से कार्य करना चाहिए।

6. स्थानीय स्वशासन का समर्थन :-

         
गांधीजी राज्य को व्यक्ति के दैनिक
जीवन से बाहर की संस्था मानते है। इसलिए वे विकेंद्रीकृत आदर्श समाज की स्थापना पर बल देते हैं। उनका मानना है कि गांव को आत्मनिर्भर बनाया जाए। इसके लिए गांवों को प्रशासन और प्रबंध के अधिकार
मिलना चाहिए।

                  उपरोक्त सभी तथ्यों से स्पष्ट है कि गांधीजी अपनी राज्य संबंधी विचारों
से स्पष्ट करना चाहते हैं कि राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित होना चाहिए अर्थात उन्होंने न्यूनतम राज्य का समर्थन किया है।

 

गांधीवाद की राजनीति शास्त्र को दे :-

             गांधीवादी दर्शन की राजनीति शास्त्र को निम्नलिखित देन है :-

1. अहिंसा :-

            यह गांधीजी की राजनीति शास्त्र को सबसे बड़ी देन है। गांधीजी का अहिंसा का सर्वोत्तम साधन सत्याग्रह विश्व के लिए अभूतपूर्व देन है। जहां अब तक विश्व में अन्याय को दूर करने के लिए एकमात्र विकल्प युद्ध
ही था, वहां अब गांधी जी के सत्याग्रह का सिद्धांत विकल्प के रूप में सामने आया है।

2. साधन और साध्य की पवित्रता में आस्था :-

            गांधीजी ने मनुष्य के लक्ष्य अर्थात साध्य और उसे प्राप्ति के विभिन्न तरीकों अर्थात साधनों की पवित्रता पर बल देकर मनुष्य को नैतिक बनाने का प्रयास किया
है।

3. राजनीति में नैतिकता व आदर्शवाद का समावेश :-

             गांधीजी
ने राजनीति का आध्यात्मीकरण कर उसे धर्म से संबंधित कर दिया है। बगैर धर्म के राजनीति को अपूर्ण माना है। इस प्रकार गांधीजी राजनीति में धर्म अर्थात नीति पर बल देते हैं।

 

 

4. नए विचारों का स्वागत :-

           गांधीवादी दर्शन में सभी विचार सम्मिलित है। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, एवं धर्म सभी को एक दूसरे से सम्बद्ध किया गए हैं और नए विचारों का सदैव समर्थन किया है।

 

 गांधीवाद का आलोचनात्मक
मूल्यांकन :-

गांधीवाद के पक्ष में तर्क :-

1. गांधीजी के विचार नैतिक नियमों पर आधारित है।

2. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रांतिकारी विचार है।

3. नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ है।

4. राजनीतिक दृष्टि से सरल, व्यापक और व्यवहारिक हैं।

5. सामाजिक दृष्टि से सरल, व्यापक और व्यवहारिक हैं।

6. आर्थिक स्वावलंबन पर बल।

7. धर्म और नैतिकता पर बल।

8. सर्वधर्म समभाव पर बल।

9. ग्राम स्वराज्य पर बल।

10. सत्याग्रह पर बल।

 गांधीवाद के विपक्ष
में तर्क :-

1. व्यवहारिक

2.अवैज्ञानिक

3. एक पक्षीय

4. मौलिकता रहित

5. काल्पनिक

6. कोरा आदर्शवाद

7. पूंजीवाद का समर्थक

CLASS XII POL SC UNIT I प्रमुख अवधारणाएं

UNIT : 1 प्रमुख अवधारणाएं

 

L -1 न्याय की प्रमुख अवधारणाएं

 

न्याय का अर्थ :-

न्याय यानि Justice लैटिन शब्द Justia से
बना है जिसका अर्थ है जोड़ना या सम्मिलित करना।

न्याय शब्द की व्याख्या अलग अलग विचारकों ने अपने अपने ढंग से की है। जहां
प्राचीन भारतीय विचारकों ने न्याय को धर्म से जोड़कर कर्तव्य पालन पर बल दिया है। वहीं
पाश्चात्य विचारकों में सर्वप्रथम प्लेटो ने न्याय को आत्मीय गुण माना, अरस्तु ने न्याय
को सद्गुण माना, मध्यकालीन विचारकों ने व्यक्ति के राज्य की प्रति कर्तव्यों के पालन
को न्याय माना।

 आधुनिक काल
में डेविड ह्यूम, बेंथम, मिल आदि ने न्याय को उपयोगिता के सिद्धांत से सम्बद्ध किया
है, वहीं जॉन रॉल्स ने औचित्य पूर्ण न्याय की चर्चा की है।

(A) प्लेटो की न्याय की
अवधारणा
:-

 पाश्चात्य
विचारकों में से सर्वप्रथम प्लेटो ने ही न्याय की अवधारणा की व्याख्या की है। उसने
अपनी पुस्तक रिपब्लिक में न्याय को समझाने का प्रयास किया है। प्लेटो के समय यूनान
में न्याय संबंधी निम्न तीन सिद्धांत प्रचलित थे :-

1. परंपरावादी :- इस सिद्धांत के प्रतिपादक सैफालस
थे।उसके अनुसार न्याय सत्य बोलने और कर्ज चुकाने में निहित है।

2. उग्रवादी :- इस सिद्धांत के प्रतिपादक थ्रेसीमेकस
थे। उसके अनुसार शक्तिशाली का हित ही न्याय है।

3. यथार्थवादी :- इस सिद्धांत के प्रतिपादक ग्ल्यूकोन थे।

इसके अनुसार न्याय भय का शिशु है और कमजोर की आवश्यकता है।

प्लेटो इन तीनों विचारधाराओं से सहमत नहीं था। उसने न्याय को आत्मा
का सद्गुण माना है। उसके अनुसार न्याय से तात्पर्य है :- प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपना निर्दिष्ट कार्य
करना और दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना।

इस संबंध में प्लेटो ने न्याय के दो रूप बताए हैं :-

1. व्यक्तिगत न्याय :-

व्यक्तिगत न्याय के अनुसार प्लेटो का मानना था कि प्रति व्यक्ति को
वही कार्य करना चाहिए जिसको करने में वह प्राकृतिक रूप से समर्थ और सक्षम हो। जैसे
किसी व्यक्ति में अध्यापन की क्षमता है तो उसे शिक्षण कार्य, सीमाओं की रक्षा करने
की क्षमता है तो उसे सैनिक कार्य और उत्पादन करने की क्षमता है तो उसे किसान का कार्य
करना चाहिए।

2. सामाजिक न्याय :-

प्लेटो के अनुसार मानव आत्मा में तीन तत्व पाए जाते हैं :- तृष्णा, साहस और विवेक।

आत्मा के इन तीनों तत्वों के अनुसार उसने समाज को तीन भागों में विभाजित
किया है :-

·       उत्पादक वर्ग :- इस वर्ग में इंद्रिय तृष्णा और इच्छा तत्व की प्रधानता
पाई जाती हैं। इस वर्ग में किसान, व्यापारी आदि आते हैं।

·       सैनिक वर्ग :- इस वर्ग में
साहस तथा शौर्य तत्व की प्रधानता पाई जाती हैं। ऐसे व्यक्ति सैनिक कार्य करते हैं।

·       शासक वर्ग :- इस वर्ग के व्यक्तियों में विवेक अर्थात बुद्धि
तत्व की प्रधानता पाई जाती हैं। ऐसे व्यक्ति शासन प्रक्रिया में भाग लेते हैं। जैसे
शासक मंत्री, अधिकारी, न्यायाधीश आदि। प्लेटो ने इस वर्ग को अभिभावक वर्ग भी कहा है ।

इस प्रकार प्लेटो के अनुसार जिस प्रकार आत्मा मनुष्य के विभिन्न पक्षों
में संतुलन स्थापित किए रहती है, ठीक उसी प्रकार यदि समाज के तीनों वर्ग अपनी अपनी
क्षमता से अपने निर्दिष्ट कार्य करें और अन्यों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करें तो
राज्य में न्याय की स्थापना होगी।

इस प्रकार प्लेटो ने न्याय को नैतिक सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित किया
है ।

 

( B ) अरस्तु की न्याय संबंधी अवधारणा :-

                     अरस्तू प्लेटो का शिष्य था। उसके अनुसार न्याय का सरोकार मानवीय संबंधों
के लिए नियमन से है। अरस्तु ने न्याय की कानूनी अवधारणा प्रस्तुत की। अरस्तु ने न्याय
को दो रूप में प्रस्तुत किया है :-

1. वितरणात्मक न्याय :-

अरस्तु के अनुसार पद, प्रतिष्ठा, धनसंपदा, शक्ति व राजनीतिक
अधिकारों का वितरण व्यक्ति की योग्यता और उसके द्वारा राज्य के प्रति की गई सेवा के
अनुसार किया जाना चाहिए।

अरस्तु के अनुसार न्याय का वितरण अंकगणितीय अनुपात से न होकर रेखागणितीय अनुपात
में होना चाहिए अर्थात सबको बराबर हिस्सा न मिलकर अपनी अपनी योग्यता के अनुसार हिस्सा
मिलना चाहिए।

2. सुधारात्मक न्याय :-

इस न्याय के अनुसार नागरिकों को वितरणात्मक न्याय से प्राप्त अधिकारों
का अन्य व्यक्ति द्वारा दुरुपयोग व हनन नहीं हो । राज्य व्यक्ति के जीवन, संपत्ति, सम्मान, स्वतंत्रता व अधिकारों की रक्षा करें अर्थात वितरणात्मक न्याय
से प्राप्त अधिकारों की राज्य द्वारा रक्षा करना ही सुधारात्मक न्याय है।

इस प्रकार अरस्तु के न्याय की अवधारणा कानूनी थी।

(C) मध्यकालीन न्याय की अवधारणा :-

मध्यकाल में संत अगस्टाइन और थामस एक्विनास ने न्याय की अवधारणा प्रस्तुत की
है। इस काल में राज्य को ईश्वरीय कृति माना जाता था।

संत ऑगस्टाइन ने अपनी पुस्तक ” सिटी ऑफ गॉड
” में न्याय की अवधारणा प्रस्तुत की है।

संत अगस्टाइन के अनुसार व्यक्ति द्वारा ईश्वरीय राज्य के प्रति कर्तव्य
पालन ही न्याय हैं।

थॉमस एक्विनास के अनुसार न्याय एक व्यवस्थित व अनुशासित जीवन व्यतीत करने
में और व्यवस्था के अनुसार कर्तव्यों के पालन में निहित है।

(D) आधुनिक काल में न्याय संबंधी अवधारणा:-

आधुनिक युग में डेविड ह्यूम, जेरेमी बेंथम और जॉन स्टूअर्ट मिल ने उपयोगितावादी
सिद्धांत के आधार पर न्याय के प्रत्यय को परिभाषित करने का कार्य किया है।

डेविड ह्यूम के अनुसार न्याय उन नियमों की पालना मात्र हैं जो सर्वे हित
का आधार हैं।

इसी प्रकार बेंथम के अनुसार सार्वजनिक वस्तुओं, सेवाओं, पदों आदि का वितरण
उपयोगितावादी सिद्धांत के आधार पर हो। अर्थात जो उपयोगी है और सुखदायक हैं वही कार्य
होने चाहिए। इस प्रकार बेन्थम ने अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख के आधार पर न्याय की अवधारणा
प्रस्तुत की है।

जॉन स्टूअर्ट मिल के अनुसार मनुष्य अपनी सुरक्षा हेतु ऐसे नैतिक नियम
स्वीकार करता है जिनसे दूसरे भी वैसी ही सुरक्षा का अनुभव कर सके। अर्थात उपयोगिता
ही न्याय का मूल मंत्र है।

 

(E) जॉन रॉल्स के न्याय संबंधी विचार:-

जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक थ्योरी ऑफ़ जस्टिस में सामाजिक न्याय का विश्लेषण
किया है। रॉल्स परंपरावादियों के इस विचार से असंतुष्ट थे कि सामाजिक संस्थाओं को न्यायपूर्ण बनाने पर बल दिया जाए। रॉल्स उपयोगितावादियों
के अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख पर आधारित न्याय व्यवस्था की धारणा को दोषपूर्ण बताते
हुए कहा है कि इस सिद्धांत से बहुमत की अल्पमत पर तानाशाही स्थापित होती हैं अर्थात
किसी कार्य को करने से यदि 80% लोगों का
कल्याण होता है तो भी उस कार्य को न्यायप्रद नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि वह कार्य
20% लोगों के विरुद्ध है।

रॉल्स संवैधानिक लोकतंत्र में न्याय के 2 मौलिक नैतिक सिद्धांत बताए हैं :-

·       अधिकतम स्वतंत्रता स्वयं स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं।
इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उतनी ही व्यापक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए
जो अन्य लोगों को प्राप्त है अर्थात एक महिला को भी उतनी ही स्वतंत्रता मिलनी चाहिए
जितनी कि एक पुरुष को मिलती है।

·       व्यक्ति और राज्य द्वारा ऐसी सामाजिक व आर्थिक स्थितियाँ स्थापित की
जानी चाहिए जो सबके लिए कल्याणकारी हो। ऐसी स्थितियां केवल अज्ञानता के पर्दे के सिद्धांत
के आधार पर ही स्थापित की जा सकती हैं।

 

रॉल्स का अज्ञानता के
पर्दे का सिद्धांत
:-

इस सिद्धांत के अनुसार सभी व्यक्ति अपनी स्वयं की विशिष्ट पृष्ठभूमि
और स्थिति को मध्य नजर रखते हुए अपना विकास करते हैं। इस स्थिति में व्यक्ति स्वयं
अपनी स्थिति के अनुसार अच्छे बुरे कार्य द्वारा अपने विकास में जुट जाता है और उसका
एकमात्र लक्ष्य स्वयं अपना विकास करना रहता है। परंतु यदि व्यक्ति अपनी विशेष पृष्ठभूमि
और स्थिति से अनभिज्ञ हो जाए तो वह विकास के केवल वही दृष्टिकोण अपनाता है जो नैतिक
दृष्टि से सही है। अर्थात अगर व्यक्ति को इस बात का ज्ञान नहीं हो कि उसके द्वारा किए
जाने वाले कार्य से उसका या उसके परिचितों का अच्छा या बुरा नहीं होने वाला है तो वह
सदैव नैतिक नियमों के अनुसार ही कार्य करेगा।

अतः रॉल्स समाज/राज्य के विकास के लिए ऐसे ही सिद्धांत को न्यायप्रद
मानता है जिसमें लोग स्वयं ही अज्ञानता का पर्दा स्वीकार कर लेते हैं।

 

(F) न्याय की भारतीय अवधारणा :-

प्राचीन भारत में मनु, कौटिल्य, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज आदि ने न्याय
को स्वधर्म से जोड़कर व्यक्ति को समाज में उसके नियत स्थान और उसके
निर्दिष्ट कर्तव्यों का अभिज्ञान कराया हैं। उनकी इस अवधारणा ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था
में सामंजस्य स्थापित करने का कार्य किया है। उनके अनुसार स्वधर्म की पालना में ही
व्यक्ति के अधिकारों की उत्पत्ति निहित है। इस प्रकार प्राचीन भारतीय विचारकों ने न्याय
के कानूनी रूप को स्वीकार किया है।

 

न्याय के विभिन्न रूप

 

परंपरागत रूप में न्याय की दो धारणाएं नैतिक न्याय और कानूनी न्याय
प्रचलित थी। परंतु आधुनिक समय में इनके अलावा राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक न्याय की
अवधारणा भी महत्वपूर्ण है।

(1) नैतिक न्याय :-

न्याय की मूल अवधारणा नैतिकता पर ही आधारित हैं। इसके अनुसार प्राकृतिक
नियमों व प्राकृतिक अधिकारों के अनुसार जीवन यापन करना ही नैतिक न्याय है। जब व्यक्ति
सत्य, अहिंसा, सदाचार, दया, उदारता आदि नैतिक गुणों से युक्त होकर आचरण करता है तो
उसे नैतिक न्याय कहा जाता है।

(2) कानूनी न्याय :-

जब व्यक्ति राज्य के कानून का अनुसरण करें तो उसे कानूनी न्याय का जाता
है। कानूनी न्याय की धारणा दो बातों पर बल देती हैं :-

(i) सरकार द्वारा निर्मित कानून न्यायोचित होने चाहिए

 (ii) निर्मित
कानूनों को सभी पर न्यायपूर्ण ढंग से लागू किया जाना चाहिए।

(3) राजनीतिक न्याय :-

राजनीतिक न्याय की प्राप्ति के लिए संविधान और संवैधानिक शासन आवश्यक
है। ऐसा न्याय केवल लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ही प्राप्त किया जा सकता
है। राजनीतिक न्याय के तहत व्यस्क मताधिकार, विचार, भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, चुनाव लड़ने और बिना किसी भेदभाव
के सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार होता है। एक राजनीतिक व्यवस्था में सबको समान अधिकार व अवसर प्राप्त होने चाहिए। राजनीतिक न्याय भेदभाव और असमानता को अस्वीकार करता है। यह सभी व्यक्तियों के कल्याण पर आधारित होता है।

(4) सामाजिक न्याय :-

 समाज में
किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार न हो और सभी को अपने व्यक्तित्व के विकास का समान अवसर मिले। यही सामाजिक
न्याय है।

 जॉन रॉल्स
ने अपना न्याय सिद्धांत सामाजिक न्याय के संदर्भ में ही प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार यदि समाज में सभी को विकास के समान अवसर नहीं मिलेंगे तो
स्वतंत्रता और समानता जैसे मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रहेगा। इस न्याय के तहत राज्य
से यह अपेक्षा की जाती हैं कि वह ऐसी नीतियों का निर्माण करें जिससे एक समतामूलक समाज
की स्थापना हो।

(5) आर्थिक न्याय :-

   
            आर्थिक न्याय के अनुसार समाज में आर्थिक समानता स्थापित होनी चाहिए
अर्थात् अमीरी और गरीबी के बीच की खाई दूर होनी चाहिए जिससे सभी व्यक्ति आर्थिक रूप
से बराबर होंगे। परंतु व्यवहार में ऐसा संभव नहीं है। आर्थिक न्याय धनसंपदा के कारण
उत्पन्न असमानता अर्थात गरीबी और अमीरी का विरोध करता है और इसे कम करने पर बल देता
है। इसके अनुसार आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए राज्य को आर्थिक संसाधनों का वितरण
करते समय व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए और व्यक्तिगत संपत्ति के
अधिकार को सीमित करना चाहिए।

 निष्कर्ष :-

               न्याय की उपरोक्त सभी अवधारणाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि न्याय का
जो लक्ष्य प्राचीन काल में स्थापित किया गया था वह आज भी प्रासंगिक है। न्याय का सिद्धांत
मूल रूप से सामाजिक जीवन में लाभ और दायित्वों के तर्कसंगत वितरण से संबंधित है। वर्तमान
में न्याय की चर्चा ऐसे समाजों में ही प्रासंगिक है जिनमें वस्तुओं, सेवाओं व अवसरों  का अभाव हो और प्रचलित कानूनों,
अधिकारों, स्वतन्त्रताओं आदि में और अधिक सुधार की गुंजाइश हो।

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L – 2. शक्ति, सत्ता और वैधता

शक्ति का अर्थ :-

       
         शक्ति अंग्रेजी भाषा के शब्द POWER का हिंदी पर्याय है जो लैटिन भाषा के POTERE शब्द से बना हुआ है जिसका अर्थ है – योग्य
के लिए अर्थात निहित योग्यता।

परिभाषा :-

1. मैकाइवर के अनुसार, “शक्ति किसी संबंध के अंतर्गत ऐसी क्षमता है जिसमें दूसरों से कोई काम
लिया जाता है या आज्ञा पालन कराया जाता है।”

2. आर्गेन्सकी के अनुसार, “शक्ति दूसरों के आचरण को अपने लक्ष्यों के अनुसार प्रभावित करने की
क्षमता है।”

3. रॉबर्ट बायर्सटेड के अनुसार, “शक्ति बल प्रयोग की योग्यता है न की उसका वास्तविक प्रयोग।”

               इस प्रकार स्पष्ट है कि जिसके पास शक्ति है, वह दूसरों के कार्यों, व्यवहारों और विचारों को अपने अनुकूल बना सकता है।

 शक्ति की पृष्ठभूमि
:-

                 निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर हम शक्ति की पृष्ठभूमि को स्पष्ट कर सकते हैं :-

1)      शक्ति प्राचीन काल से ही राजनीति विज्ञान की मूल अवधारणा रही है।

2)      प्राचीन भारतीय चिंतन में मनु, कौटिल्य, शुक्र आदि ने शक्ति के विभिन्न
तत्वों पर प्रकाश डाला है।

3)      यूरोपीय विचारकों में मैक्यावली को प्रथम शक्तिवादी विचारक माना जाता है।

4)      टॉमस हॉब्स ने अपनी पुस्तक “लेवियाथन” में शक्ति के महत्व को स्वीकारा
है।

5)      आधुनिक काल में शक्ति राजनीति विज्ञान की अवधारणा के रूप में सामने
आई है।

6)      शक्ति की अवधारणा को स्पष्ट करने में कैटलिन, लासवेल, कैप्लान, मॉर्गेन्थाउ आदि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

7)      कैटलिन
ने राजनीति विज्ञान को शक्ति के विज्ञान के रूप
में परिभाषित किया है।

8)      लॉसवेल ने अपनी पुस्तक “Who gets, What, When, How ” में
शक्ति की अवधारणा स्पष्ट की है।

9)      
मैकाइवर ने अपनी
पुस्तक “द वेव
ऑफ गवर्नमेंट”  में शक्ति को परिभाषित किया है।

 

शक्ति एवं बल में अंतर :-

 

शक्ति

बल

1. शक्ति प्रच्छन बल है।

1. बल प्रकट शक्ति है।

2. शक्ति अप्रकट तत्व है।

2. बल प्रकट तत्व है।

3. शक्ति एक मनोवैज्ञानिक क्षमता है।

3. बल एक भौतिक क्षमता है।

 

शक्ति एवं प्रभाव में समानताएं :-

1. दोनों एक दूसरे को सबलता प्रदान करते है।

2. दोनों औचित्यपूर्ण होने पर ही प्रभावशाली होते
है।

3. प्रभाव शक्ति को उत्पन्न करता है और शक्ति
प्रभाव को बढ़ाती है।

 

शक्ति एवं प्रभाव में अंतर :-

 

शक्ति

प्रभाव

1. शक्ति की प्रकृति दमनात्मक होती है।

1. प्रभाव की प्रकृति मनोवैज्ञानिक होती है।

2. शक्ति सम्बन्धात्मक नहीं होती है।

2. प्रभाव संबंधात्मक होता है।

3. शक्ति का प्रयोग इच्छा विरुद्ध भी हो सकता
है।

3. प्रभाव सहमति पर आधारित होता है।

4. यह अप्रजातांत्रिक है।

4. प्रभाव प्रजातान्त्रिक है।

5. शक्ति के अस्तित्व के लिए प्रभाव की आवश्यकता
होती है।

5. प्रभाव के अस्तित्व के लिए शक्ति की आवश्यकता
नहीं  होती है।

 

शक्ति के विभिन्न रूप :-

        

  
वर्तमान में शक्ति के निम्न तीन
रूप प्रचलित है :-

1. राजनीतिक शक्ति :-

               सरकार और शासन को प्रभावित करने वाले समस्त तत्वों जैसे पद, पुरस्कार, प्रतिष्ठा आदि से संबंधित शक्ति राजनीतिक शक्ति कहलाती है। राजनीतिक शक्ति का प्रयोग शासन के औपचारिक और अनौपचारिक अंगों द्वारा किया जाता
है। औपचारिक अंगों में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका
द्वारा और अनौपचारिक अंगों में  राजनीतिक दल, दबाव समूह, प्रभावशाली व्यक्तियों आदि द्वारा  राजनीतिक शक्ति का प्रयोग किया
जाता है।

2. आर्थिक शक्ति :-

             आर्थिक शक्ति का तात्पर्य उत्पादन के संसाधनों और धन-संपदा पर स्वामित्व से हैं अर्थात जो व्यक्ति आर्थिक रूप से शक्तिशाली
होते हैं, वे राजनीतिक रूप से भी सशक्त
होते है। मार्क्सवाद का मानना है कि राजनीतिक शक्ति को निर्धारित करने में आर्थिक
शक्ति का अहम योगदान होता है जबकि उदारवाद राजनीतिक शक्ति के निर्धारण में आर्थिक
शक्ति की भूमिका कम मानते है।

3. विचारधारात्मक शक्ति :-

                   विचारधारा का अर्थ है विचारों का समूह जिसके आधार पर हम हमारे दृष्टिकोण का विकास करते है। विचारधारा लोगों के सोचने और समझने के ढंग को प्रभावित करती है। अलग-अलग विचारधारा वाले लोग अलग-अलग शासन व्यवस्था को उचित ठहराते है। भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्थाएं प्रचलित है जिनके आधार पर उन देशों में उदारवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि अनेक विचारधाराएं
प्रचलित है।

 

शक्ति के सिद्धांत :-

 

1. वर्ग प्रभुत्व का सिद्धांत :-

                यह सिद्धांत मार्क्सवाद की देन है। इस सिद्धान्त
के अनुसार समाज आर्थिक आधार पर दो भागों में विभाजित
है :-

(i) बुर्जुआ वर्ग       :      पूंजीपति
लोग

(ii) सर्वहारा वर्ग    :       गरीब व
मजदूर

              मार्क्सवाद का मानना है कि अब तक का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा
है अर्थात अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उद्देश्य से दोनों ही वर्ग आपस में संघर्ष
करते आए है।

2. विशिष्ट वर्गीय सिद्धांत :-

              इस सिद्धांत की आधारशिला पेरेटो, मोस्का व मिचेल्स ने रखी है। उन्होंने समाज को दो भागों में विभाजित किया है :-

(i) विशिष्ट वर्ग  तथा (ii) सामान्य वर्ग

यह विभाजन केवल आर्थिक आधार पर ही नहीं बल्कि अनेक अन्य आधारों जैसे कुशलता, संगठन, क्षमता, बुद्धिमता आदि के आधार पर किया गया है। इस सिद्धांत के आधार पर प्रत्येक शासन व्यवस्था में अपनी योग्यताओं
के आधार पर एक छोटा वर्ग उभर कर सामने आता है जो सामान्य वर्ग पर अपनी शक्ति का प्रयोग
करता है। जैसे राजनेता, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर, उद्योगपति आदि।

3. नारीवादी सिद्धांत :-

              इस सिद्धांत के अनुसार समाज में शक्ति का बंटवारा लैंगिक आधार पर किया गया है। समाज की सारी शक्ति पुरुषों के अधीन है जिसका प्रयोग पुरुषों द्वारा
महिलाओं पर होता है। समानता के सिद्धांत के आधार पर नारीवादी संगठनों ने नारी मुक्ति और
नारी स्वाधीनता आंदोलन चलाकर नारी को बराबरी का दर्जा देने
की मांग की है।

4. बहुलवादी सिद्धांत :-

             इस सिद्धांत के अनुसार समाज में समस्त शक्ति किसी एक वर्ग के हाथ में होकर अनेक समूहों में बंटी हुई होती हैं।  उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में इन अनेक समूहों के मध्य सतत सौदेबाजी चलती रहती है। इस सिद्धांत का प्रतिपादन रॉबर्ट डहल ने
किया था।

 

सत्ता

                  

 सत्ता की अवधारणा समझने के लिए हम एक उदाहरण लेते है। एक पुलिस वाले और एक गुंडे दोनों में शक्ति निहित
होती है। सम-विषम परिस्थितियों में हम इन दोनों के दिए गए आदेशों की पालना करते हैं। परंतु इन आदेशों की पालना में एक विशेष अंतर होता है, वह यह है कि एक पुलिस वाले
के आदेश की पालना हम अपनी सहमति से करते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि उसे विधि या कानून
द्वारा आदेश देने की शक्ति प्राप्त है जबकि हम एक गुंडे के आदेशों की पालना मात्र जानमाल
के खोने के भय के कारण करते हैं। जब यह डर हट जाता है तो हम उसके आदेशों की पालना भी नहीं करते है।

       
इस प्रकार स्पष्ट है कि जब शक्ति
के साथ वैधता जुड़ जाती हैं तो ऐसी शक्ति सत्ता बन जाती है।

 इस प्रकार
सत्ता किसी व्यक्ति, संस्था, नियम या आदेश का वह गुण है जिसे हम सही ( वैध ) मानकर स्वेच्छा से उसके निर्देशों
की पालना करते हैं अर्थात वैध शक्ति ही सत्ता है।

 हेनरी फेयोल
के अनुसार
, “सत्ता आदेश देने का अधिकार और आदेश की पालना कराने की शक्ति है।”

 

 सत्ता पालन के आधार :-

                   कोई व्यक्ति किसी भी सत्ता पालना निम्नलिखित आधारों
पर करता है :-

1. विश्वास :-

           सत्ता पालन का सबसे महत्वपूर्ण आधार है विश्वास। यदि अधीनस्थ को इस बात का विश्वास है कि सत्ताधारी का दिया गया आदेश
सही है तो सत्ता की पालना उतनी ही अधिक सरल हो जाएगी अन्यथा
नहीं।

2. एकरूपता :-

        
विचारों और आदर्शों की एकरूपता सत्ता
का महत्वपूर्ण आधार है। यदि सत्ताधारक व अधीनस्थ के विचारों और आदर्शों में एकरुपता है तो स्वत: ही आज्ञा पालन की स्थिति पैदा हो जाती है।

3. लोकहित :-

        
यदि सरकार लोक हित में कार्य करती
हैं और नियम-कानून बनाती हैं तो जनता उन कार्यों, नियमों  और
कानूनों का अनुसरण बेहिचक करती है। जैसे कर जमा कराना। लोग कर इसलिए जमा कराते हैं क्योंकि
इसी कर से सरकार लोकहित के कार्य चलाती हैं और योजनाएं बनाती है। इसी प्रकार हम यातायात के नियमों का भी पालन करते हैं
क्योंकि इसमें जनता की सुरक्षा का हित छुपा है।

4. दबाव :-

           प्रत्येक व्यवस्था में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो केवल दमन और दबाव की भाषा ही समझते हैं अर्थात लातों के बूत बातों से नहीं, लातों से ही मानते हैं।

 

सत्ता के रूप :-

              प्रमुख समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने सत्ता के निम्नलिखित तीन रूप बताए
हैं :-

1. परंपरागत सत्ता :-

           इस प्रकार की सत्ता पालन का आधार समाज में स्थापित परंपराएं होती हैं। जो व्यक्ति वंश व परंपरा के आधार पर सत्ता का प्रयोग
करता है, सत्ता उसी के पास बनी रहती
हैं। जैसे हम अपने घरों में माता-पिता और वृद्धजनों की आज्ञा का पालन परंपरागत
सत्ता के आधार पर ही करते हैं।

2. करिश्माई सत्ता :-

            यह सत्ता किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों और चमत्कारों पर आधारित होती
हैं। इसमें जनता उस व्यक्ति के इशारों पर बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए
तत्पर रहती हैं। जैसे महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, मोदी आदि।

    
 नरेंद्र मोदी के
चमत्कारिक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जनता ने नोटबंदी जैसी योजना को सफल बनाया था।

3. कानूनी तर्कसंगत सत्ता :-

            इस प्रकार की सत्ता का आधार व्यक्तित्व न होकर पद होता है अर्थात व्यक्ति जो पद धारण करता है उसमें निहित सत्ता
के आधार पर सत्ता का प्रयोग करता है। जैसे कलेक्टर की
सत्ता, प्रधानाचार्य की सत्ता, शिक्षक की सत्ता आदि।

        
 जो व्यक्ति कानूनी
सत्ता का प्रयोग कर रहा है और उसका व्यक्तित्व चमत्कारिक है तो वह असीमित सत्ता का प्रयोग कर सकता है।

जैसे प्रधानमंत्री की सत्ता कानूनन सभी में समान है परंतु नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेई आदि प्रधानमंत्रियों
ने अन्य प्रधानमंत्रियों की तुलना में अत्यधिक सत्ता का प्रयोग किया है क्योंकि इन प्रधानमंत्रियों का व्यक्तित्व चमत्कारिक था।

 

वैधता

वैधता अंग्रेजी शब्द Legitimacy का हिंदी पर्याय है जो लैटिन Legitimus शब्द से बना है जिसका अर्थ है वैधानिक।

 वैधता की अवधारणा का
इतिहास
:-

 

प्राचीन काल :-

           भारतीय प्राचीन विचारकों ने राजा के शासन को उसके द्वारा किए गए प्रजा-पालन व जन कल्याण के कार्यों द्वारा वैधता प्रदान की।

 यूनानी विचारकों में प्लेटो
ने न्याय सिद्धांत द्वारा और अरस्तू ने संवैधानिक शासन द्वारा शासक की वैधता को सिद्ध
करने का प्रयास किया।

 मध्यकाल :-

            मध्यकाल में राज्य के दैवी उत्पति सिद्धांत को राज्य की वैधता
का आधार माना। लॉक, हॉब्स और रूसो
ने दैवी उत्पति सिद्धान्त की जगह लोगों
की सहमति को राज्य
की वैधता का आधार माना।

आधुनिक काल :-

              आधुनिक काल में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जनता की सहभागिता को राज्य
की वैधता का प्रमाण माना जाता है।

वैधता उस कारण की ओर संकेत करती हैं जिसके कारण
हम किसी सत्ता को स्वीकार करते हैं अर्थात वैधता वह सहमति हैं जो लोगों द्वारा
राजनीतिक व्यवस्थाओं को प्रदान की जाती है।

 

वैधता के प्राप्ति
के साधन
:-

           मतदान, जनमत, संचार के साधन, राष्ट्रवाद आदि वे साधन है जिनके माध्यम से राज्य वैधता प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।

 

 वैधता का संकट :-

                    प्रत्येक राजनीति व्यवस्था को अपनी वैधता बनाए रखने के लिए प्रयत्न
करने होते हैं क्योंकि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। यदि राजनीतिक व्यवस्था इन परिवर्तनों के अनुरूप ढल जाती है तो उनकी वैधता बनी रह जाती हैं। यदि राजनीतिक व्यवस्था इन परिवर्तनों के
अनुरूप ढल नहीं पाती है तो उनकी वैधता पर संकट आ जाता है।

जैसे प्राचीन काल की राजतंत्रीय व्यवस्था
में लोकतंत्रीय तत्वों का उदय होने पर जिन व्यवस्थाओं ने स्वयं को लोकतंत्रीय तत्वों के अनुरूप ढाल लिया
यानी लोकतंत्र की स्थापना कर ली उनकी वैधता यथावत बनी रही। जबकि साम्यवादी व्यवस्था स्वयं को लोकतंत्रीय तत्वों के अनुरूप ढाल नहीं पाई, अतः वर्तमान में इसकी वैधता न के बराबर है।

 इसी प्रकार
जब परंपरागत संस्थाएं व समूह नवीन व्यवस्थाओं और विचारों को स्वीकार कर लेते हैं तो
उनकी वैधता बनी रहती है अन्यथा उनकी वैधता में बाधा पहुंचेगी।

 

शक्ति, सत्ता और वैधता में अन्तर्सम्बन्ध

 

1. शक्ति के साथ वैधता जुड़कर सत्ता को अधिक प्रभावी बनाती है :-

             हम जानते हैं कि शक्ति के बिना समाज में शांति, व्यवस्था, न्याय व खुशहाली की स्थापना
नहीं की जा सकती है। परंतु केवल शक्ति का प्रयोग अधिक प्रभावी नहीं होता है। जब यही शक्ति वैधता से जुड़ जाती हैं तो सत्ता का रूप धारण कर लेती है और इस सत्तात्मक शक्ति को लोग
अपनी सहमति से स्वीकार करते हैं।

2. शक्ति, सत्ता और वैधता परस्पर पूरक :-

         
 जब शासक की शक्ति सत्ता का रूप ले लेती
है तो यह शक्ति शासक का अधिकार बन जाती है। चूँकि सत्ता में वैधता जुड़ी होती है इसलिए नागरिक
शासक की आज्ञा का पालन करते हैं और उनका कर्तव्य बन जाता है।

3. वैधता, शक्ति और सत्ता के मध्य कड़ी :-

            शासक अपनी शक्ति का प्रयोग कर लोगों को बाहरी रूप से नियंत्रित करते हैं परंतु जब शासक वैध शक्ति का प्रयोग करते हैं तो लोगों के हृदय में शासन करता है। केवल शक्ति अधिनायक तंत्र को प्रदर्शित करती हैं जबकि वैध शक्ति अर्थात सत्ता लोकतंत्र को प्रदर्शित करती हैं।

 इस प्रकार
वैधता, शक्ति और सत्ता को जोड़ने का
कार्य करती है।


L – 3  धर्म

 

धर्म को अंग्रेजी में Religion कहा जाता है जिसका अर्थ है आस्था, विश्वास या अपनी मान्यता। इसी प्रकार
धर्म संस्कृत भाषा के धारणात शब्द से बना है जिसमें घृ घात है जिसका आशय है
– धारण करना।

भारत में धर्म को कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचार एवं सद्गुण के अर्थ
में मान्यता प्राप्त है अर्थात धर्म एक ऐसी एकीकृत प्रणाली है जो अपनी प्रथाओं और विश्वासों
से एक समुदाय विशेष को जोड़ता है। तदुपरांत यही समुदाय इस प्रणाली के आधार पर यह व्याख्या
करते हैं कि उनके लिए क्या पवित्र हैं और क्या अलौकिक हैं।

धर्मनिरपेक्षता :-

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है किसी भी धर्म को मानने वाले के साथ भेदभाव
नहीं हो और सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखा जाए।

भारत में धर्म और धर्मनिरपेक्षता

भारतीय दर्शन मूल रूप से एकांतवादी हैं अर्थात प्राचीन काल में भारत
में मात्र एक ही धर्म सनातन धर्म प्रचलित था परंतु वर्तमान में हमारे देश में अनेक
धर्मों को मानने वाले हैं। साथ ही भारत में ईश्वर को मानने वाले भी हैं और नहीं मानने
वाले हैं । भारत में अनेक मत मतान्तर पाए जाते हैं जिसके कारण भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता
को संवैधानिक दर्जा दिया गया है और यह सर्वत्र स्वीकार है।

धर्म और नैतिकता

धर्म और नैतिकता में घनिष्ठ संबंध है। धर्म का मूल लक्ष्य मानव मात्र की
सेवा करना है। धर्म अच्छे आचरण, करुणा, शील व अहिंसा पर बल देता है। धर्म बुराइयों
से दूर रहने और सदाचार के मार्ग पर चलने की शिक्षा देता है। धर्म का काम भलाई करना
और उसकी स्तुति करना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि धर्म नैतिकता पर ही आधारित होता है।

 

धर्म और राजनीति

 

धर्म का मूल
तत्व
:-

 

धर्म का मूल लक्ष्य मानव मात्र की सेवा करना है। सभी धर्म नैतिक मूल्यों
से परिपूर्ण होते हैं।

राजनीति का मूल तत्व :-

राजनीति का मूल तत्व है कि नीति के अनुसार राज करना और नीति वह जो नैतिक मूल्यों
और श्रेष्ठ धार्मिक मान्यताओं संपोषित हो।

धर्म और राजनीति में अन्तर्सम्बन्ध :-

राम मनोहर लोहिया के अनुसार धर्म और राजनीति के दायरे अलग अलग है परंतु
दोनों की जड़ें एक है। धर्म दीर्घकालीन राजनीति हैं जबकि राजनीति अल्पकालीन धर्म है
अर्थात धर्म और राजनीति दोनों की जड़े नैतिकता में ही निहित है।

निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर हम धर्म और राजनीति के अन्तर्सम्बन्धों को समझ
सकते हैं :-

1.    
विवेकपूर्ण संबंध :-

                                                             
i.     
यदि धर्म का राजनीति में समावेश विवेकपूर्ण
और तर्कसंगत हो तो यह कार्य मानव कल्याण की ओर अग्रसर होगा क्योंकि नीतिगत धर्म राजनीति
में सदैव विश्व शांति की स्थापना बल देता है ।

2.    
अविवेकपूर्ण संबंध :-

                  यदि राजनीति में धर्म का अविवेकपूर्ण समावेश किया जाए तो दोनों एक दूसरे
को भ्रष्ट बना देते हैं जो कि मानवता के लिए हानिकारक है। इसमें राज्य धर्म का दुरुपयोग
कर अपने धर्म के प्रसार व विस्तार की आड़ में साम्राज्य विस्तार करने लगते हैं जिससे
हजारों लोग मारे जाते हैं। वर्तमान में भले ही युद्ध नहीं हो रहे हो परंतु धार्मिक
श्रेष्ठता की होड़ में आतंकवादी गतिविधियां बढ़ रही है।

 

1.     मर्यादित संबंध:-

                     वर्तमान में धर्म और राजनीति को लगभग सभी देश पृथक-पृथक रखते हैं जिसका एकमात्र
उद्देश्य यह है कि धर्म और राज्य दोनों अपने-अपने मर्यादित क्षेत्र में रहकर एक-दूसरे
का सकारात्मक सहयोग करे न कि एक दूसरे के स्वार्थों की पूर्ति हेतु एक दूसरे का दुरुपयोग
करे। इस हेतु आज के युग की समस्त लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत
को अपनाया गया है।

धर्म और अहिंसा :-

                              धर्म और अहिंसा का अटूट संबंध है। दोनों के आधार तत्व है :- क्षमा, दया, करुणा, सत्य, कर्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी है।
इन सभी तत्वों को विश्व के सभी देशों के धर्मो में न केवल स्वीकारा गया है बल्कि इनके
अभाव में किसी भी धर्म का गठन संभव नहीं है।

धर्म और राष्ट्रीयता :-

                                  हम चाहे किसी भी धर्म के अनुयायी हो और किसी भी पंथ का अनुसरण करते हो
परंतु राज्य सभी के लिए सर्वोपरि है। हमारा धर्म, मत, भाषा, रीति-रिवाज आदि राष्ट्र
से ऊपर नहीं हो सकता है। जब कोई व्यक्ति धर्म से विमुख होकर या धर्म की आड़ में अनैतिक
कार्य करता है तो वह न केवल समाज का विकास कार्य बाधित करता है बल्कि अंततः राष्ट्र
के विकास को बाधित करता है। ऐसे व्यक्ति समाज और राष्ट्र दोनों के लिए घातक होते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों से हम राष्ट्र की महत्ता को स्वीकार कर सकते
हैं –

” जो भरा नहीं भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।

 वह हृदय नहीं पत्थर है, जिसमें
स्वदेश का प्यार नहीं

अर्थात राष्ट्र सर्वोपरि है। राष्ट्रधर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है।

भारतीय सनातन संस्कृति में धर्म की संकल्पना:-

भारतीय सनातन संस्कृति के संदर्भ में हम धर्म की संकल्पना को निम्न बिंदुओं
के आधार पर समझ सकते हैं –

1.धर्म का अर्थ:-

संस्कृत में धर्म शब्द धारणात शब्द से बना है
जिसमें घृ घात है जिसका अर्थ है धारण करना।

2.मानवता धर्म :-

प्राचीन संस्कृति के अनुसार धर्म हमें केवल नियम कायदों में ही नहीं
बांधता है बल्कि इंसानियत का भाव रखने में भी मदद करता है। आज के आधुनिक परिप्रेक्ष्य
में इसे मानवता का धर्म कहा जाता है।

3.एकेश्वरवादी धर्म :-

” एकं सत विप्रा बहुधा वदंति। “

                ऋग्वेद के अनुसार अद्वितीय ब्रह्मा अर्थात सत्य एक ही है। केवल बुद्धिजीवियों
ने इसे समय समय पर अलग-अलग नामों से पुकारा है अर्थात ईश्वर एक है।

4.अहिंसा में विश्वास :-

” हिंसायाम दूयते या सा हिंदू ।

अर्थात जो मन,कर्म, वचन आदि से अपने आप हिंसा से दूर रखें और अपने कर्म
से दूसरों को कष्ट न दे, वे हिंदू हैं।

5.साधना पक्ष :-

भारत में धर्म का संबंध साधना पक्ष से है जिसका लक्ष्य मानव आत्मा का उत्थान है।

6. धर्म के लक्षण :-

                      याज्ञवल्क्य ने  धर्म के 9 लक्षण बताए है। यह हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय
स्वच्छता, इंद्रिय-निग्रह, दान, संयम, दया व शांति। इसी प्रकार मनुस्मृति में धर्म के 10 लक्षण बताए गए हैं।

7. मानव कल्याण की भावना :-

                      भारतीय संस्कृति में यह कहा जाता है कि मैं न तो राज्य की कामना करता
हूं और न ही स्वर्ग और मोक्ष की।  बस यह कामना करता हूं कि मैं दुखी
प्राणियों के कष्टों को दूर कर सकूं अर्थात भारतीय धर्म में मानव के कल्याण की भावना
का समावेश है।

8.भिन्नभिन्न उपासना पद्धतियां और मत :-

                   सनातन धर्म वेदों पर आधारित है जिसमें भिन्न-भिन्न उपासना पद्धतियां, मत, संप्रदाय  व दर्शन  निहित है। यहां पर विभिन्न रूपों
में कई  देवी-देवताओं की पूजा की जाती है।

 

ईसाई धर्म
की अवधारणा

                  

  ईसाई धर्म की निम्नलिखित धार्मिक मान्यताएं है :-

1.      ईश्वर एक है।

2.      ईसाई धर्म  सिद्धांत में अहिंसा पर बल देते
हैं।

3.      विश्व में सर्वाधिक माने जाने वाला धर्म है।

4.      ईसाई धर्म में विभिन्न संप्रदाय हैं। जैसे कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट आदि।

5.      इसमें धर्म और राजनीति दोनों की समांतर सत्ता को स्वीकार किया गया है।

 

इस्लाम
की संकल्पना

                   

  इस्लाम दुनिया के नवीनतम धर्मों  में से एक है। इस्लाम धर्म का
प्रादुर्भाव 622 ईसवी में मोहम्मद पैगंबर ने किया था। मोहम्मद
साहब ने केवल दो अनुयायियों को लेकर इस्लाम की नींव रखी और आज लगभग 1.5 अरब लोग इस्लाम के अनुयायी है।

भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, सऊदी अरब, इंडोनेशिया,
पश्चिमी एशिया और उत्तर पूर्वी अफ्रीका के देशों में इस्लाम का विस्तार है।

 

 इस्लाम की प्रमुख मान्यताएं :-

1.      इस्लाम धर्म व राजनीति में कोई भेद नहीं करता
है।

2.      इस्लाम एकेश्वरवाद में विश्वास करता है।

3.      मौलिक रूप से इस्लाम में अहिंसा और नैतिकता पर बल दिया गया है परंतु
वर्तमान में इस्लाम के नाम पर बढ़ रही धार्मिक कट्टरता विश्व के लिए घातक बन रही है

4.      इस्लामिक राज्यों  में लोकतंत्र का अभाव पाया जाता है।

5.      इस्लाम आध्यात्मिक व लौकिक में, अलौकिक व व्यवहारिक में और धर्म और
धर्मनिरपेक्षता में कोई भेद नहीं करता है।


L – 4  स्वतंत्रता और समानता

 

स्वतंत्रता का अर्थ :-

स्वतंत्रता शब्द अंग्रेजी के Liberty शब्द का हिंदी पर्याय है। Liberty लैटिन भाषा के Liber शब्द से बना है जिसका अर्थ है बंधनों का अभाव

स्वतंत्रता ( हिन्दी शब्द )

Liberty
(English )

Liber
( लैटिन शब्द )

बंधनों
का अभाव या मुक्ति।

यदि केवल बंधनों का अभाव ही स्वतंत्रता मानी
जाए तो सभी व्यक्ति बंधन मुक्त हो जाएंगे और परस्पर संघर्ष से नष्ट हो जाएंगे। इस स्थिति
में केवल सबल व्यक्ति ही जीवित या स्वतंत्र रह पाएंगे।

परंतु ऐसा नहीं है। स्वतंत्रता व्यक्ति की
अपनी इच्छा अनुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है परंतु इस दौरान दूसरे व्यक्तियों
की इसी प्रकार की स्वतंत्रता में कोई बाधा नहीं पहुंचे हैं।

इस स्थिति में स्वतंत्रता के अर्थ के दो प्रकार
के विचार सामने आते हैं :- नकारात्मक
स्वतंत्रता और सकारात्मक स्वतंत्रता ।

A. नकारात्मक स्वतंत्रता :-

            नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार प्रतिबंधों
का अभाव ही स्वतंत्रता है अर्थात व्यक्ति को मनमानी करने की छूट हो और राज्य को व्यक्ति
के निजी कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

इस विचारधारा के समर्थक हैं :- हॉब्स, रूसो, मिल आदि।

नकारात्मक स्वतंत्रता की मान्यताएं :-

1.      प्रतिबंधों का अभाव हो।

2.      राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित होना चाहिए।

3.      कम से कम शासन करने वाली सरकार अच्छी सरकार
है।

4.      मानव विकास के लिए खुली प्रतियोगिता होनी चाहिए।

5.     
सरकार द्वारा समर्थित संरक्षण व्यक्तिगत हित में ठीक नहीं है। जैसे आरक्षण, सब्सिडी आदि।

B. सकारात्मक स्वतंत्रता :-

                   इस अवधारणा के अनुसार किए जाने योग्य कार्य
को करने की सुविधा स्वतंत्रता है। अर्थात व्यक्ति को उन कार्यों को करने की स्वतंत्रता
है जो अन्य की वैसी ही स्वतंत्रता में बाधा नहीं डाले।

इस विचारधारा के समर्थक हैं :- लास्की, हीगल, महात्मा गांधी, जॉन रॉल आदि।

 

सकरात्मक स्वतंत्रता की मान्यताएं :-

1.      स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबंध हो।

2.      स्वयं की स्वतंत्रता के अस्तित्व को स्वीकार
करने के लिए दूसरों की स्वतंत्रता को मान्यता देना आवश्यक हैं।

3.      राज्य के कानून की पालना में ही स्वतंत्रता
निहित है।

4.      समाज व व्यक्ति के हित परस्पर निर्भर हैं।

 

नकारात्मक स्वतंत्रता और सकारात्मक स्वतंत्रता
में अंतर

:-

नकारात्मक स्वतंत्रता

सकारात्मक स्वतंत्रता

1. प्रतिबंधों का अभाव

1.  युक्तियुक्त प्रतिबंध हो

2. राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित हो

2. राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित नहीं हो

 3. सरकार समर्थित संरक्षण का विरोधी

 3. सरकार समर्थित संरक्षण का समर्थन

4. मानव विकास के लिए खुली प्रतियोगिता का समर्थन

4. मानव विकास के लिए राज्य समर्थित प्रतियोगिता का समर्थन

                

स्वतंत्रता
के विविध रूप

 

1. प्राकृतिक स्वतंत्रता :-

                         मनुष्य को इस स्वतंत्रता की प्राप्ति किसी मानवीय संस्था से नहीं होती है बल्कि यह प्रकृति प्रदत है। यह स्वतंत्रता प्रकृति द्वारा मनुष्य को उसके जन्म के साथ ही मिल जाती
हैं। मनुष्य चाह कर भी इस सत्ता का हस्तांतरण अन्य व्यक्ति को नहीं कर सकता
है। यह स्वतंत्रता राज्य के अस्तित्व में आने से पूर्व
की अवस्था में विद्यमान थी और राज्य की उत्पत्ति के बाद धीरे-धीरे विलुप्त होती जा
रही हैं। जैसे जंगल में शेर की स्वतंत्रता।

इस संबंध में प्रसिद्ध विचारक रूसो का कथन इस प्रकार हैं – “मनुष्य स्वतंत्र रूप से पैदा होता है परंतु सर्वत्र बेड़ियों में जकड़ा रहता है।

2. व्यक्तिगत स्वतंत्रता :-

                          व्यक्तिगत या निजी स्वतंत्रता का आशय है कि व्यक्ति को उसके निजी जीवन
के समस्त कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए। इस अर्थ में व्यक्ति को वेशभूषा, खान-पान, धर्म,  रीति-रिवाज, पसंद, विचार आदि की स्वतंत्रता होनी चाहिए। व्यक्ति के व्यक्तिगत कार्यों पर
केवल समाज हित में ही बंधन लगाया जाना चाहिए।

 

3. नागरिक स्वतंत्रता :-

                           नागरिक स्वतंत्रता किसी व्यक्ति को देश के नागरिक होने की हैसियत से
मिलती हैं।
ऐसी स्वतंत्रता को उस देश का समाज स्वीकृति देता है और राज्य संरक्षण देता है। नागरिक स्वतंत्रता असीमित और निरंकुश नहीं होती हैं। देश के न्यायालय द्वारा इसकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है। नागरिक स्वतंत्रता के तहत व्यक्ति को अपने देश में कहीं भी घूमने फिरने, रोजगार करने, निवास
करने, विचार, अभिव्यक्ति व की स्वतंत्रता, शान्तिपूर्ण
सम्मलेन की स्वतंत्रता आदि शामिल है।

 

4. राजनीतिक स्वतंत्रता :-

     
                       राज्य के कार्यों में और राजनीतिक व्यवस्था में भागीदारी को राजनीतिक
स्वतंत्रता कहते हैं।
जैसे मतदान करने की स्वतंत्रता, चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता, कोई भी सार्वजनिक पद प्राप्त
करने की स्वतंत्रता आदि।

5. आर्थिक स्वतंत्रता :-

         
                   आर्थिक स्वतंत्रता से आशय हैं कि प्रत्येक
व्यक्ति का आर्थिक स्तर ऐसा होना चाहिए जिसमें वह स्वाभिमान के तहत अपना और अपने परिवार का जीवन निर्वाह कर सके। आर्थिक स्वतंत्रता के तहत व्यक्ति को काम करने का, आराम व अवकाश का, व्यवसाय करने का, उद्योगों के नियंत्रण में भागीदारी का और वृद्धावस्था व असमर्थता
की स्थिति में आर्थिक सुरक्षा प्राप्त करने
का अधिकार हो।

6. धार्मिक स्वतंत्रता :-

                             व्यक्ति को उसके अंत:करण से किसी भी धर्म को मानने, उसमें आस्था रखने और उस धर्म
के अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। यही धार्मिक स्वतंत्रता है।

7.  नैतिक स्वतंत्रता :-

                             व्यक्ति द्वारा नैतिक गुणों से युक्त होकर कार्य
करने की स्वतंत्रता ही नैतिक स्वतंत्रता है। यदि व्यक्ति नैतिक गुणों जैसे दया, शीलता, करुणा, प्रेम, स्नेह, सत्य, अहिंसा आदि से युक्त होकर कार्य करेगा तो ऐसे कार्य को करने की स्वतंत्रता नैतिक स्वतंत्रता कहलाती है।

8. सामाजिक स्वतंत्रता :-

                              मनुष्य के साथ जाति, वर्ग, लिंग, धर्म, नस्ल, रंग, ऊंच-नीच आदि के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं करना और सभी समाजों के साथ
समान व्यवहार करना ही सामाजिक स्वतंत्रता है।

9.  राष्ट्रीय स्वतंत्रता :-

                              जब राज्य के कार्य में अन्य देश का कोई हस्तक्षेप नहीं हो अर्थात राज्य
अपने कार्यक्षेत्र में संप्रभु हो तो ऐसे राज्य की  स्वतंत्रता राष्ट्रीय
स्वतंत्रता कहलाती है।

10.  संवैधानिक स्वतंत्रता :-

                              किसी भी नागरिक को यह स्वतंत्रता उसके देश
के संविधान से मिलती है और संविधान ऐसी स्वतंत्रताओं की रक्षा
की गारंटी देता है।
राज्य या शासन चाह कर भी इन स्वतंत्रताओं को कम नहीं कर सकता है। संवैधानिक स्वतंत्रता उस देश के संविधान में वर्णित होती हैं।

 

स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आवश्यक शर्तें

                             स्वतंत्रता सभी के लिए आवश्यक है। प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों के लिए संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताएं
उपलब्ध करवाता है। फिर भी सभी को समान रूप से स्वतंत्रताएं नहीं मिल पाती हैं। स्वतंत्रताएं प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित शर्तें आवश्यक है :-

1.  निरन्तर जागरूकता :-

                           यदि व्यक्ति राज्य प्रदत्त अपनी स्वतंत्रताओं के उपयोग
हेतु जागरुक नहीं है तो वह कई स्वतन्त्रताओं का उपयोग करने
से वंचित रह जाता है।

2. लोकतांत्रिक व्यवस्था :-

                           राज्य और समाज में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने से ही व्यक्ति अपनी स्वतंत्रताएं प्राप्त कर सकेगा। स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रथम शर्त है – लोकतंत्र की स्थापना होना।

3. संविधानवाद :-    

                   नागरिकों की स्वतन्त्रताओं का उल्लेख उस
राज्य के संविधान में होना चाहिए तभी सरकारें लोगों को संविधान के अनुसार स्वतंत्रता देने हेतु बाध्य होगी अन्यथा सरकारें ना नुकुर करती रहेगी।

4. स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका :-

                           न्यायपालिका कार्यपालिका व व्यवस्थापिका से पृथक होनी चाहिए तभी वह निष्पक्ष और स्वतंत्र
न्याय कर पाएगी।

5. 
प्रेस की
स्वतंत्रता

:-

                          समाचार पत्र, मीडिया, सोशल मीडिया, प्रेस आदि को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए ताकि वे लोगों के अधिकारों की मांग और स्वतन्त्रताओं के हनन का निष्पक्ष चित्रण कर सके।

                      इसी प्रकार नागरिकों का निडर व साहसी होना, अन्य नागरिकों का विशेषाधिकार नहीं होना, आर्थिक रूप से समतामूलक समाज की स्थापना होना, विधि का समान शासन होना आदि
स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आवश्यक शर्ते हैं।

 

स्वतंत्रता के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाएं :-

                        राज्य के संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताओं के उपयोग में निम्नलिखित बाधाएं प्रमुख रूप से सामने आती है :-

1. अशिक्षा :-

                      शिक्षा व्यक्ति को उसके संविधान प्रदत्त अधिकारों व स्वतन्त्रताओं का ज्ञान कराती हैं और उनका महत्व बताती हैं। अतः शिक्षा का अभाव स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग की सर्वप्रमुख
बाधा है।

2. जागरूकता का अभाव :-

                        जब व्यक्ति अपनी स्वतंत्रताओं के प्रति जागरूक नहीं होंगे
तो अन्य व्यक्ति उनकी जागरूकता के अभाव का लाभ उठाकर उनके अधिकारों व स्वतन्त्रताओं का प्रयोग कर उनका शोषण करने लग जाएंगे।

3. गरीबी :-

                       गरीब व्यक्ति के पास संसाधनों का अभाव होता है। इस कारण उन्हें प्रदत्त स्वतंत्रताओं का वे उपयोग नहीं कर पाते हैं।

4. 
न्यायपालिका
के कार्यों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप
:-

                     व्यक्ति की स्वतंत्रताओं का रक्षक न्यायपालिका को माना गया है। यदि कार्यपालिका न्यायपालिका के कार्यो में हस्तक्षेप करेगी तो व्यक्तियों की स्वतंत्रताओं की रक्षा नहीं हो पाएगी।

5. 
संविधान
में कानून के प्रति सम्मान का अभाव
:-

                   स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि सभी
नागरिक देश के संविधान और कानून का सम्मान करें। यदि नागरिकों में देश के संविधान और कानून के प्रति सम्मान का अभाव
रहेगा तो अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। जिससे व्यक्तियों की स्वतंत्रताएं खतरे
में पड़ जाएगी।

               उपरोक्त के अलावा कार्यपालिका का स्वेच्छाचारी आचरण, राष्ट्र विरोधी तत्व व आतंकवादी गतिविधियां आदि भी स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग की प्रमुख बाधाएं हैं।

 

समानता

 

समानता का अर्थ :-

                      समानता से अभिप्राय ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से हैं जिसमें सभी
व्यक्तियों को अपने विकास के समान अवसर मिले और जिनके द्वारा समाज में विद्यमान सामाजिक
व आर्थिक विषमताओं को दूर किया जा सके।

   
 लास्की के अनुसार, “समानता का अर्थ यह नहीं है कि सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाए
और प्रत्येक व्यक्ति को एक समान वेतन दिया जाए। “

लास्की के अनुसार समानता है :-

1.      विशेष सुविधाओं का अभाव।

2.      सभी के लिए समान अवसरों की उपलब्धता।

3.      सभी की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति सर्वप्रथम।

4.      सामानों के साथ समान व्यवहार।

 समानता के आधारभूत तत्व :-

1.      समान लोगों के साथ समान व्यवहार।

2.      सभी को विकास के समान के अवसर।

3.      सभी लोगों के साथ समान आचरण व व्यवहार।

4.      मानवीय गरिमा और अधिकारों को समान संरक्षण।

5.      सामाजिक भेदभाव नहीं।

6.      सभी को समान महत्व।

 

 समानता के प्रकार

 

1. नागरिक समानता :-

                         एक ही देश के समस्त नागरिकों के साथ समान व्यवहार ही नागरिक समानता
है। भारत में संविधान के अनुच्छेद 14 द्वारा विधि के समक्ष समानता और विधि का समान संरक्षण द्वारा नागरिक समानता
का अधिकार दिया गया है।

2. 
राजनीतिक
समानता
:-

                        राज्य के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के राज्य के कार्यों में
भाग लेने की समानता ही राजनीतिक समानता है। इसके तहत सभी को मतदान करने, चुनाव में खड़े होने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने
के समान अवसर आदि की समानता देय हैं।

3. सामाजिक समानता :-

                       समाज में किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, वर्ण, लिंग, नस्ल आदि के आधार पर असमान व्यवहार न हो। भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 द्वारा यह समानता स्थापित की गई है।

4.  आर्थिक समानता :-

                      राज्य सभी लोगों के लिए कार्य करने के समान अवसर उपलब्ध करवाये और सभी की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति करें, यही आर्थिक समानता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 द्वारा लोक नियोजन में अवसर की समानता द्वारा आर्थिक समानता स्थापित करने
का प्रयास किया गया है। इसी प्रकार नीति निदेशक तत्व में
भी आर्थिक समानता पर बल दिया गया है।

5. 
सांस्कृतिक
समानता
:-

                     राज्य अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक वर्ग के साथ समान व्यवहार कर सभी की
भाषा, संस्कृति, लिपि आदि का समान संरक्षण करें, यही सांस्कृतिक समानता है।

6. 
कानूनी
समानता
:-

                    कानून के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करना कानूनी समानता
है अर्थात प्रति व्यक्ति चाहे वह अमीर हो या गरीब, राजनेता हो या आम आदमी, उद्योगपति हो या सरकारी कर्मचारी कानून सभी के लिए समान है और सभी कानून
की नजर में समान है।

             इसी प्रकार अवसर की समानता, शिक्षा की समानता, प्राकृतिक समानता आदि समानता के अन्य प्रकार हैं।

 

स्वतंत्रता और समानता में संबंध

                  स्वतंत्रता एवं समानता के संबंधों को हम विभिन्न विचारकों के विचारों
के आधार पर निम्न दो भागों में पृथक कर सकते हैं :-

1. स्वतंत्रता एवं समानता परस्पर विरोधी है  :-

           इस मत के विचारक हैं – लार्ड एक्टन, फ्रीडमैन, मिचेल्स, परेटो आदि।

                          इन सभी विचारकों का मानना है कि समानता के विचार ने स्वतंत्रता की अवधारणा
को धूमिल कर दिया है। प्रकृति में सभी व्यक्ति समान नहीं होते हैं। इसलिए योग्य और अयोग्य व्यक्तियों के मध्य समानता स्थापित करना मूर्खतापूर्ण
कार्य हैं। यदि राज्य योग्य और अयोग्य व्यक्तियों के बीच समानता स्थापित करने
का प्रयास करेगा तो योग्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता का हनन
होगा। अर्थात समानता स्थापित करने की दौड़ में स्वतंत्रता का हनन होता है। इसी
प्रकार  सभी व्यक्ति को समान रूप से स्वतंत्रता दे दी जाये तो समतामूलक समाज की स्थापना
नहीं की जा सकेगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी अवधारणा है।

2. स्वतंत्रता एवं समानता परस्पर पूरक हैं :-

         
इस मत के विचारक हैं – रूसो, बार्कर, लास्की, पोलार्ड, महात्मा गांधी आदि ।

रूसो के अनुसार, ” समानता के बिना स्वतंत्रता जीवित नहीं रह सकती हैं। “

 पोलार्ड के
अनुसार, ”
स्वतंत्रता की समस्या का एक ही समाधान है और वह है समानता।

              उपर्युक्त दोनों कथनों से स्पष्ट है कि स्वतंत्रता और
समानता परस्पर पूरक है। इसे निम्न प्रकार और अधिक स्पष्ट
किया जा सकता है
:-

1.     
राजनीतिक समानता
के बिना स्वतंत्रता अर्थहीन
है।

2.     
नागरिक समानता
के अभाव में व्यक्ति अपनी
स्वतंत्रताओं का उपयोग नहीं कर पाएगा।

3.     
सामाजिक समानता
के अभाव में स्वतंत्रता कुछ लोगों का विशेषाधिकार बनकर रह जाएगी।

4.     
आर्थिक समानता
के अभाव में सभी प्रकार की समानता और स्वतंत्रता निरर्थक है।

CLASS XII POL SC UNIT II आधुनिक राजनीतिक अवधारणाएँ

CLASS XII POL SC UNIT I प्रमुख अवधारणाएंSANSKRIT WORKBOOK CLASS III TO VIIICLASS XII POL SC UNIT I प्रमुख अवधारणाएं

UNIT : 2  आधुनिक  राजनीतिक अवधारणाएं

L – 5 :  राजनीतिक माजीकरण

 माजीकरण :-

             समाजीकरण समाज में निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति समाज के रीति-रिवाजों, परंपराओं, मूल्यों और मान्यताओं को स्वीकार कर उसका एक क्रियाशील सदस्य बनता है।

राजनीतिक समाजीकरण :-

           राजनीतिक समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्तियों को राजनीतिक संस्थाओं, व्यवस्थाओं और दृष्टिकोणों की शिक्षा प्रदान की जाती है।

            जिस प्रकार समाज के अपने रीति-रिवाज, परंपराएं और मूल्य होते हैं, ठीक उसी प्रकार एक राजनीतिक व्यवस्था के भी अपने रीति-रिवाज, परंपराएं और मूल्य होते हैं जिन्हें हम राजनीतिक संस्कृति के नाम से जानते हैं।

      इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज के व्यक्तियों में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में राजनीतिक संस्कृति का हस्तांतरण या अभिज्ञान करवाया जाता है।

 राजनीतिक समाजीकरण की सर्वप्रथम व्याख्या हर्बर्ट साइमन ने अपनी पुस्तक “Political Socialization अथवा राजनीतिक समाजीकरण” में की है।

राजनीतिक समाजीकरण के साधन

 व्यक्ति में राजनीतिक समझ विकसित करने वाली अनेक संस्थाएं होती हैं जिनमें से कुछ औपचारिक तरीकों से कार्य करती हैं जैसे – राजनीतिक दल, राष्ट्रीय प्रतीक, जनसंचार के साधन आदि और कुछ अनौपचारिक तरीकों से कार्य करती हैं जैसे – परिवार, शिक्षण संस्थाएं, धार्मिक संस्थाएं आदि ।

1. परिवार :-

Ø
 परिवार व्यक्ति की प्रथम पाठशाला होती हैं ।

Ø  परिवार के माध्यम से ही व्यक्ति रीति-रिवाजों और परंपराओं को सीखता है।

Ø  परिवार में हम माता पिता की आज्ञा का पालन करते हैं जिससे हमें उनकी सत्ता का बोध होता है।

Ø
 परिवार ही हमें सिखाता है कि कैसे सबके साथ मिलकर रहा जाता है, परिवार में परस्पर कैसे सहयोग किया जाए और अपनी मांगों को मनवाने के लिए किस प्रकार दबाव बनाया जाए।

    उपरोक्त सभी बातें सीखकर व्यक्ति अपने आप को राजनीति व्यवस्थाओं के अनुरूप ढालता है और राजनीतिक व्यवहार करता है।  इसी प्रकार परिवार का मुखिया जिस राजनीतिक दल का समर्थक होता है, परिवार के अन्य सदस्य भी मुखिया का अनुसरण करते हुए उस राजनीतिक दल का समर्थन करते हैं।

अतः स्पष्ट है कि परिवार ही व्यक्ति में  राजनीति की प्रारंभिक समझ विकसित करता है।

2.  शिक्षण संस्थाएं :-

Ø
बालक परिवार से जो भी राजनीतिक अनुभव सीखता है, शिक्षण संस्थाओं में और अधिक दृढ़ हो जाते हैं।

Ø
शिक्षण संस्थाओं में विभिन्न राजनैतिक पृष्ठभूमि के बालक आते हैं जिससे बालक राजनीतिक व्यवस्थाओं की विविधताओं और विरोधाभासों के साथ समायोजन करना सीखता है।

Ø
बालक की शिक्षा जितनी व्यापक होगी उसकी राजनीति के प्रति रुचि उतनी ही अधिक होगी और उसका राजनीतिक ज्ञान का विकास भी अधिक होगा।

Ø
शिक्षण संस्थाओं का पाठ्यक्रम, बालक की मित्र-मंडली और बालक के शिक्षकों का राजनीतिक व्यवस्थाओं के प्रति जो दृष्टिकोण होगा, वह दृष्टिकोण भी बालक के राजनीतिक विचारों को प्रभावित करता है।

         इस प्रकार स्पष्ट है कि बालक परिवार से जो भी राजनीतिक समझ प्राप्त करता है, शिक्षण संस्थाएं उनमें उन्नयन कर दृढ़ता प्रदान करती है।

3.  राजनीतिक दल :-

Ø
राजनीतिक दल अपनी नीतियों, विचारधाराओं और विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा राजनीतिक समाजीकरण का कार्य करते हैं ।

Ø
 राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने के लिए लोगों को अपने अनुकूल करने का प्रयास करते है।

Ø
चुनावों के समय नारों, पोस्टरों, चुनावी-सभाओं, रैलियों, मीडिया आदि द्वारा लोगों को राजनीतिक रुप से प्रशिक्षण प्रदान कर उन्हें अपने अनुकूल बनाने का प्रयास किया जाता है।

Ø
चीन जैसे साम्यवादी व सर्वाधिकारवादी देशों में राजनीतिक दलों पर कठोर नियंत्रण होता है जबकि लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक दलों पर शासन का नियंत्रण नहीं होता है।

        इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक दल अपनी नीतियों और विचारधाराओं से व्यक्तियों को प्रभावित कर राजनीतिक समाजीकरण का प्रयास करते हैं।

4.  राष्ट्रीय प्रतीक :-

Ø
 राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय दिवस पर सेना की परेड आदि के माध्यम से व्यक्तियों में राजनीतिक व्यवस्था और आदर्शों के प्रति आस्था के भाव पैदा किए जाते हैं।

Ø
विभिन्न महापुरुषों की जयंती पर होने वाले उत्सव, उद्घाटन कार्यक्रम आदि द्वारा व्यक्तियों और विशेषकर बच्चों में उन महापुरुषों के राजनीतिक आदर्शों और देश के प्रति आस्था के भाव का पाठ पढ़ाया जाता है।

5.  जनसंचार के साधन :-

Ø वर्तमान समय में जनसंचार के साधन जैसे समाचार-पत्र, रेडियो, टीवी, इंटरनेट, मीडिया, फेसबुक, व्हाट्सएप, टि्वटर आदि व्यक्ति के राजनीतिक समाजीकरण के सशक्त साधन हैं।

Ø
 वर्तमान में यह माना जाता है कि चुनाव मीडिया के दफ्तरों से लड़ा जाता है। विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ता मीडिया दफ्तरों में अपनी पार्टी की नीतियों, विचारों, कार्यक्रमों आदि को जनता के सामने रखते हैं और अन्य दलों या अन्य दलों की सरकारों की आलोचना कर जनता को प्रशिक्षित करते हैं।

Ø इसी प्रकार सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, टि्वटर, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि के माध्यम से राजनीति दल व्यक्तियों को जोड़ने और प्रभावित करने का कार्य भी करते हैं ।

Ø
 नरेंद्र मोदी के Namo एप से करोड़ों व्यक्ति जुड़े हैं और वे लोग मोदी की नीतियों और कार्यक्रमों के बारे में सीधी और विश्वसनीय जानकारी इस एप से प्राप्त कर सकते हैं ।

इस प्रकार विश्वसनीय और सटीक जानकारी प्रदान कर जन संचार के साधन राजनीतिक समाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

L – 6 : राजनीतिक संस्कृति

 

राजनीतिक संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा  :-

                          जिस प्रकार प्रत्येक समाज अपने रीति-रिवाजों, परंपराओं, आदर्शों, मूल्यों, प्रथाओं आदि से सामाजिक संस्कृति का निर्माण करते हैं, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक राजनीति व्यवस्थाओं के प्रति व्यक्तियों की अभिवृत्तिओं, विश्वासों, प्रतिक्रियाओं, अपेक्षाओं और राजनीति व्यवहारओं से राजनीतिक संस्कृति का निर्माण होता है।

                राजनीतिक संस्कृति को विभिन्न राजनीतिज्ञों ने भिन्न-भिन्न नाम दिए हैं :-

                  विचारक                    राजनीतिक संस्कृति का नाम

                    आमण्ड             –           कार्य के प्रति अभिमुखीकरण

                    डेविड ईस्टन       –           पर्यावरण

                    स्पिरो                –           राजनीतिक शैली

                   राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा तृतीय विश्व के देशों से संबंधित हैं। इसमें अमेरिका को आदर्श मानते हुए विकासशील देशों की संस्कृति का अध्ययन किया जाता है। सर्वप्रथम आमण्ड ने अपनी पुस्तक Comparative Political System-1956 में राजनीतिक संस्कृति शब्द का प्रयोग किया।

     आमण्ड-पावेल के अनुसार, “राजनीतिक संस्कृति किसी राजनीतिक व्यवस्था के सदस्यों की राजनीति के प्रति व्यक्तिगत अभिवृत्तिओं और अभिमुखीकरणों का प्रतिमान है।

   एलन बॉल के अनुसार, “राजनीतिक संस्कृति का निर्माण समाज की उन अभिवृत्तिओं, विश्वासों तथा मूल्यों के समूह से होता है जिनका संबंध राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतिक विषयों से हैं।

                    इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतिक मुद्दों से संबंधित व्यक्तियों की धारणाओं, विश्वासों, संवेदनाओं और मूल्यों को ही राजनीतिक संस्कृति कहते हैं।

 राजनीतिक संस्कृति के घटक  :-

                     आमण्ड ने  राजनीतिक संस्कृति को कार्य के प्रति अभिमुखीकरण
का नाम दिया और बताया कि राजनीतिक संस्कृति में
अभिमुखीकरण और राजनीति विषय नामक दो घटक होते हैं जो कि निम्न प्रकार हैं :-

I.       अभिमुखीकरण :-

अभिमुखीकरण का शाब्दिक अर्थ है
झुकाव या प्रवृत्ति

आलमंड पावेल
के अनुसार अभिमुखीकरण के तीन अंग हैं :-

1.      ज्ञानात्मक अभिमुखीकरण :-

                    इसका आशय राजनीतिक विषयों के
ज्ञान और उसके अस्तित्व के प्रति सजगता से जुड़ा होता है।  इस अवस्था में व्यक्ति को राजनीति विषयों का ज्ञान
सही और गलत दोनों रूपों में प्राप्त हो सकता है लेकिन दोनों ही स्थिति में लिया गया
संज्ञान व्यक्ति के राजनीति व्यवहार
को प्रभावित करता है।

2.
भावानात्मक अभिमुखीकरण :-

                 इसका अभिप्राय राजनीतिक व्यवस्था, प्रक्रिया और राजनीति विषयों
के प्रति व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाले एवं आकार लेने वाले भावावेगों,  अभिवृत्तियों,  अनुभूतियों,  सहमति-असहमति, विश्वास, आस्था आदि भावनाओं से हैं ।

3.
मूल्यांकनात्मक  अभिमुखीकरण :-

                 इसका अभिप्राय राजनीतिक प्रक्रियाओं, विषयों एवं मुद्दों पर व्यक्ति के मत या
निर्णय की अभिव्यक्ति से हैं  अर्थात
यह  व्यवस्थागत राजनीति, राजनीति प्रक्रियाओं और राजनीतिक विषयों पर व्यक्ति के मूल्य निर्णय हैं, उचित-अनुचित का मूल्यांकन है।

II.
 राजनीति विषय  :-

               इसके चार विषय है :-

1.
राजनीतिक
व्यवस्था :-

                     इसमें राजनीतिक व्यवस्था का समग्र स्वरूप जिसमें ऐतिहासिक विकासक्रम, स्थान, आकार-प्रकार, सत्ता और संवैधानिक विशेषताएँ शामिल है।

2.        राजनीतिक
संरचना
या आगत प्रक्रिया :-

                    इसमें वे शक्तियाँ है जो निर्णय निर्माण और निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती है। जैसे – राजनीतिक दल, दबाव समूह, हित समूह, जनसंपर्क के स्थान आदि।

3.        समस्याएं और नीतियां या निर्गत प्रक्रिया :-

                  इसमें नीति निर्माण करने, नीतियों को क्रियान्वित करने तथा उनकी व्याख्या करने व संरक्षण देने वाले विभागों के कार्य शामिल है।

4.
राजनीतिक
व्यक्ति
या मूल्यांकन प्रक्रिया :-

                   इसमें राजनीतिक गतिविधियों के क्षेत्र में व्यक्ति की स्वयं द्वारा निभायी जा रही भूमिका का मूल्यांकन शामिल है।

 राजनीतिक संस्कृति के निर्धारक तत्व :-

1. इतिहास :-

      प्रत्येक देश का इतिहास उस देश की राजनीतिक संस्कृति की प्रकृति निर्धारित करता है। जैसे भारत की राजनीतिक संस्कृति शांतिवादी व लोकतांत्रिक हैं, इंग्लैंड की राजनीतिक संस्कृति वहां की राजनीतिक निरंतरता का परिणाम है और फ्रांस की राजनीतिक संस्कृति विभिन्न क्रांतियां का परिणाम है।

2. धार्मिक विश्वास :-

     विभिन्न देशों में विद्यमान बहुसंख्यक धार्मिक विश्वासों के आधार पर राजनीतिक संस्कृतियाँ निर्धारित होती है। जैसे भारत में समन्वयवादी, पाकिस्तान में मुस्लिम धर्म आधारित, इजराइल में ईसायत आधारित आदि।

3. भौगोलिक परिस्थितियां :-

        विभिन्न देशों की भौगोलिक परिस्थितियां भी वहां की राजनीतिक संस्कृति को निर्धारित करती हैं जैसे भारत जैसे विशाल देश की राजनीतिक संस्कृति यूरोप के छोटे-छोटे देशों से सर्वथा भिन्न है।

4.  सामाजिकआर्थिक परिवेश :-

     विभिन्न देशों और समाजों के सामाजिक-आर्थिक परिवेश के आधार पर राजनीतिक संस्कृतियाँ भी अलग अलग होती हैं। सामाजिक व

आर्थिक आधार पर राजनीतिक संस्कृतियों को  विकसित, विकासशील व अल्प-विकसित में वर्गीकृत किया जाता है।

5.  विचारधाराएं :-

                      विभिन्न देशों में विद्यमान अलग-अलग विचारधाराओं के आधार पर भी अलग अलग राजनीति संस्कृतियों का विकास होता है। जैसे उदारवाद, मार्क्सवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद, उपयोगितावाद, सर्वसत्तावाद, संविधानवाद आदि के आधार पर विभिन्न राजनीतिक संस्कृतियाँ विद्यमान है।

       इसके अतिरिक्त शिक्षा का स्तर, भाषा, रीति-रिवाज आदि भी राजनीतिक संस्कृति के निर्धारक तत्व हैं।

 

 राजनीतिक संस्कृति की विशेषताएं  :-

1. अमूर्त स्वरूप :-

           राजनीतिक संस्कृति का मूल आधार व्यक्ति और समाज के मूल्य, विचार, विश्वास और दृष्टिकोण होते हैं।  इन मूल्यों, विचारों, विश्वासों, आदर्शों व दृष्टिकोणों को केवल समझा या अनुभव किया जा सकता है। इनका मूर्त रूप नहीं होता है। अतः राजनीतिक संस्कृति एक अमूर्त विचारधारा है।

2.  गतिशीलता :-

             व्यक्ति और समाज के जीवन मूल्य, विचार, विश्वास और दृष्टिकोण परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। अत: राजनीति संस्कृति में भी निरंतर परिवर्तन होता रहता है अर्थात राजनीतिक संस्कृति गत्यात्मक हैं।

3.  समन्वयकारी स्वरूप :-

                किसी देश की राजनीतिक संस्कृति उस देश में विद्यमान विभिन्न समाजों, धार्मिक समुदायों और विभिन्न तत्वों के समन्वय से निर्मित होती हैं। अतः इसका स्वरूप समन्वयकारी है।

4. राजनीतिक संस्कृति आनुभविक आस्था और विश्वासओं का परिणाम है।

5. राजनीतिक संस्कृति व्यक्तियों की मूल्य अभिरुचियाँ और प्रभावी अनुक्रिया है।

6. राजनीतिक संस्कृति शिक्षणीय और हस्तांतरणीय होती है।

  राजनीतिक संस्कृति के प्रकार

 

( I ) संख्या, शक्ति और सहभागिता के आधार पर :-

              संख्या, शक्ति और सहभागिता के आधार पर राजनीतिक संस्कृति दो प्रकार की होती हैं :-

1. अभिजन संस्कृति :-

      वे लोग जो सत्ता में होते हैं और सरकारी निर्णयों में सहभागी होते हैं व उत्तरदायी होते हैं, अभिजन कहलाते है। अभिजन अल्पसंख्यक होते हुए भी सामाजिक व राजनीतिक कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

2. जनसाधारण की संस्कृति :-

                      साधारण लोग जो सरकारी निर्णयों में विशेष सहभागी नहीं होते हैं। इनकी आशाएं, व्यवहार व कार्य पद्धतियाँ अलग-अलग प्रकार की होती हैं। इसे जनसाधारण की संस्कृति कहते हैं।

( II ) सत्ता में सैन्य भूमिका के आधार पर :-

           प्रोफेसर एस.ई. फाईनर ने अपनी पुस्तक ” The Man on Horse Back ” में सैनिक सत्ता की भूमिका के आधार पर राजनीति संस्कृति के तीन प्रकार बताए हैं :-

1.  परिपक्व :-

      इसमें शासन सशस्त्र सेनाओं पर निर्भर नहीं करता है। जैसे ब्रिटेन, अमेरिका आदि देश।

2. विकसित :-

      इस संस्कृति में सैनिक दबाव के कारण असैनिक सरकारों को या तो खतरा बना रहता है या उन्हें नुकसान पहुंचाया जाता है।  जैसे क्यूबा, मिश्र, पाकिस्तान आदि।

3. निम्न :-

      इस संस्कृति में लोग कम संगठित होते हैं और सैनिक सत्ता प्रभावी होती हैं। जैसे सीरिया, लीबिया, म्यांमार आदि ।

( III ) सहभागिता के आधार पर :-

                         वॉइजमैन ने अपनी पुस्तक पॉलिटिकल सिस्टम सम सोशियोलॉजिकल अप्रोच ( Political
System : Some Sociological Approach ) में राजनीतिक संस्कृति के 3 विशुद्ध और तीन मिश्रित रूप बताए हैं।

 राजनीतिक संस्कृति के तीन विशुद्ध रूप है :-

1. संकुचित राजनीतिक संस्कृति

2. अधीनस्थ या पराधीन राजनीतिक संस्कृति

3. सहभागी राजनीतिक संस्कृति

 राजनीति संस्कृति के तीन मिश्रित रूप है :-

1. संकुचित प्रजाभावी

2. प्रजाभावी सहभागी

3. संकुचित सहभागी

( IV ) राजनीति व्यवस्था की भूमिका के आधार पर :-

आमण्ड ने राजनीति व्यवस्था की भूमिका के आधार पर राजनीति संस्कृति को निम्न चार वर्गों में विभाजित किया है :-

1. आंग्लअमेरिकी राजनीतिक संस्कृति :-

             इस प्रकार की राजनीति संस्कृति में राजनीतिक लक्ष्यों व साधनों के विषयों में आम सहमति रहती हैं। राजनीति व्यवस्था को निर्धारित नियमों के अनुसार संचालित किया जाता है। जैसे ब्रिटेन, अमेरिका और स्विट्जरलैंड की संस्कृति ।

2. महाद्वीपीय यूरोपीय राजनीतिक व्यवस्था :-

             यूरोपीय महाद्वीप के देशों में राजनीतिक संस्कृति में सामंजस्य के बजाय विघटन और खंडित स्वरूप प्रभावी रूप से नजर आता है। यहां एक संस्कृति के बजाय अनेक उप संस्कृतियाँ होने से समय-समय पर संघर्ष व हिंसा की स्थितियां उत्पन्न हो जाती है। जैसे फ्रांस, इटली, जर्मनी आदि।

3. गैरपश्चिमी या पूर्व औद्योगिक राजनीतिक व्यवस्था :-

            ऐसी संस्कृति तृतीय विश्व अर्थात एशिया व अफ्रीका के देशों में पाई जाती हैं जो अतीत में औपनिवेशिक शोषण के शिकार रहे हैं और जहां आर्थिक विकास व लोकतंत्र अभी भी अल्प विकसित अवस्था में है ।

4.  सर्वाधिकारवादी राजनीतिक व्यवस्था :-

              यह व्यवस्था उन देशों में पाई जाती हैं जहां शासन दमन व उत्पीड़न पर आधारित होता है, जनता की सहमति व सहभागिता  नाममात्र की होती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होती है,  संचार के साधनों पर सरकारी नियंत्रण होता है और विपक्ष के विरोध की संभावना नहीं होती है। जैसे चीन, उत्तरी कोरिया, बुल्गारिया आदि।

 

राजनीतिक संस्कृति एवं राजनीतिक समाजीकरण में संबंध :-

             राजनीतिक समाजीकरण व राजनीतिक संस्कृति एक दूसरे से जुड़े हैं। राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा ही राजनीतिक संस्कृति के मानकों, मान्यताओं और विश्वासों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचारित किया जाता है। इस प्रक्रिया में कई अभिकरण जैसे परिवार, शिक्षण संस्थाएं, राजनीतिक दल, संचार के साधन आदि अपनी अहम भूमिका निभाते हैं । राजनीतिक समाजीकरण की इस प्रक्रिया से राजनीतिक जीवन में निरंतरता बनी रहती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा :-

1. राजनीतिक संस्कृति को बनाए रखा जाता है,

 2. राजनीतिक संस्कृति में परिवर्तन किया जाता है और

3. राजनीतिक संस्कृति को उत्पन्न किया जाता है ।

 

राजनीतिक संस्कृति का महत्व  :-

राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा के उत्पन्न होने के पश्चात राजनीतिक प्रणाली की स्थिरता और अस्थिरता के कारणों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है। इसका महत्व इस प्रकार हैं :-

1. राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा से ही अध्ययनकर्त्ता का केंद्र बिंदु औपचारिक संस्थाएं न रहकर राजनीतिक समाज बन गया है।

2. राजनीतिक क्रियाओं के अध्ययन में सामाजिक व सांस्कृतिक तत्वों का समावेश करना।

3. राजनीतिक अध्ययन में विवेकता लाना।

4. राजनीतिक समाज द्वारा विभिन्न दिशाएं ग्रहण करने का कारण बताना।

5.  राजनीतिक समाजीकरण का अध्ययन सरल हो जाता है।

6 राजनीतिक मान्यताओं और मूल्यों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में निरंतर हस्तांतरित करना।

L – 7 : राजनीतिक सहभागिता

 

अर्थ :-

            राजनीति सहभागिता से तात्पर्य है कि जनसाधारण की राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न स्तरों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण भागीदारी हो अर्थात शासन प्रणाली में लोगों की अधिक से अधिक भागीदारी ही राजनीतिक सहभागिता है।

 

 राजनीतिक सहभागिता के स्वरूप :-

                   सैद्धांतिक रूप में राजनीतिक सहभागिता के दो स्वरूप पाए जाते हैं :-

1. विकास परक राजनीतिक सहभागिता

2. लोकतांत्रिक राजनीतिक सहभागिता

 

 राजनीतिक सहभागिता एवं नागरिक चेतना :-

                   नागरिक चेतना से आशय हैं कि उनका शैक्षिक स्तर, विचारधारा, पृष्ठभूमि आदि किस प्रकार की है। व्यक्ति का शैक्षिक स्तर बढ़ने से उसमें नवीन चेतना का विकास होता है जिससे उसे देश और समाज के प्रति उसके कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का ज्ञान होता है। जिन देशों का साक्षरता स्तर उच्च  है, वहां के नागरिकों की राजनीतिक सहभागिता का स्तर भी उतना ही अधिक व्यापक है। इसी प्रकार छोटे देशों के नागरिकों का वहां के जनप्रतिनिधियों से प्रत्यक्ष संपर्क रहता है। यही कारण है कि एशिया और अफ्रीका के देशों की बजाय यूरोपीय देशों के नागरिकों में अधिक राजनीतिक सहभागिता पाई जाती हैं।

 

 राजनीति सहभागिता का अभिजात्य स्वरूप :-

                    अभिजात्य वर्ग से आशय हैं नौकरशाह, टेक्नोक्रेट, बड़े उद्योगपति, वकील, डॉक्टर, प्रोफेसर आदि वर्ग।

 राजनीतिक सहभागिता के अभिजात्य स्वरूप से तात्पर्य है कि शासन सत्ता की भागीदारी में अभिजात्य वर्ग का ही प्रभुत्व है, अन्यों की भागीदारी बहुत ही कम है। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं :-

1.       सर्वप्रथम जनता की सहभागिता की बात करें तो जनता की राजनीति सहभागिता मात्र जनप्रतिनिधि चुनने तक ही सीमित है।

2.
अब जनप्रतिनिधियों की राजनीतिक सहभागिता की बात करें तो वे केवल अपने संख्या बल से केवल सरकार निर्माण तक ही सीमित है जबकि सत्ता की वास्तविक शक्ति  केवल पार्टियों के चंद सक्रिय और अग्रिम पंक्तियों के व्यवसायिक नेताओं (मंत्रियों के रूप में) के पास सीमित हो जाती है।

3.
अब मंत्रियों की सहभागिता की बात करें तो वे आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी आदि मामलों में विशेषज्ञ नहीं होने के कारण केवल सतही काम कर पाते हैं और वास्तविक सत्ता में भागीदारी ब्यूरोक्रेट और टेक्नोक्रेट की ही होती है जो कि अभिजात्य वर्ग है।

                इस प्रकार स्पष्ट है कि आधुनिक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जनसाधारण की राजनीतिक सहभागिता अत्यंत सीमित है जबकि अभिजात वर्ग का राजनीतिक सहभागिता में पूर्ण बोलबाला है।

राजनीतिक सहभागिता के स्वरूप :-

 

1. सामुदायिक गतिविधि :-

                  इसके अंतर्गत समुदाय के सदस्य किसी सामूहिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु मिलकर कार्य करते हैं। जैसे :- विरोध-प्रदर्शन, जुलूस, हड़ताल, धरने-प्रदर्शन आदि।

2. सरकार एवं नागरिकों के बीच परस्पर क्रिया :-

                  यह एक दोतरफा गतिविधि है जिसमें एक पक्ष क्रिया करता है तो दूसरा पक्ष प्रत्युत्तर देता है। अतः इस प्रकार की राजनीति सहभागिता में नागरिक भी पहल कर सकते हैं और सरकार भी पहल कर सकती हैं।

 

 राजनीतिक सहभागिता के विभिन्न रूप :-

                    राजनीतिक सहभागिता को दो भागों में बांटा जा सकता है :-

1. परंपरागत राजनीतिक सहभागिता

2. गैर-परंपरागत राजनीतिक सहभागिता

दोनों को दो भागों नागरिक सहभागिता और राज्य सहभागिता में बांटा जा सकता है।

परम्परागत राजनीतिक
सहभागिता

नागरिक सहभागिता

राज्य सहभागिता

1.
सरकार या जन-प्रतिनिधियों
से सम्पर्क करना।

1.
चुनावों का आयोजन
करना।

2.
पत्र, टेलीफोन, साक्षात्कार,
संपादक के नाम
पत्र, हस्ताक्षर अभियान।

2.
सार्वजनिक सुनवाई करना।

3.
दबाव समूहों की
गतिविधियाँ।

3.
सलाहकार परिषदों का
गठन करना।

4.
राजनीतिक प्रचार अभियान
में भाग लेना।

4.
परिपृच्छा।

5.
सार्वजनिक पद के
लिए चुनाव लड़ना।

6.
किसी प्रस्ताव को
आरम्भ करना।

7.
प्रत्याह्वान

गैरपरम्परागत
राजनीतिक सहभागिता

नागरिक सहभागिता

राज्य सहभागिता

1.
विरोध प्रदर्शन, हड़ताल,
जुलुस, बंद, धरना
आदि।

1.
राष्ट्रीय पर्वों एवं
उत्सवों का आयोजन।

2.
सविनय अवज्ञा।

2.
विभिन्न अभियान संचालन
जैसे – टीकाकरण, साक्षरता,
वृक्षारोपण आदि।

3.
राजनीतिक हिंसा

3.
सार्वजनिक दौड़ या
मानव श्रृंखला का
आयोजन।

4.
प्रतियोगियताएँ जैसे
– प्रश्नोत्तरी, निबन्ध,
वाद-विवाद, चित्रकला
आदि।

 

 राजनीतिक सहभागिता के अभिकरण :-

 

1. दबाव समूह :-

            ऐसे समूह जो अपने किसी समान हित की पूर्ति हेतु संगठित होकर अपने मत-समर्थन द्वारा सरकार की नीतियों को प्रभावित करते हैं, दबाव समूह कहलाते हैं। विकसित देशों में ये बहुत प्रभावी होते हैं।

2. आरंभक :-

            आरंभक अर्थात प्रस्ताव तैयार करना। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब जनता स्वयं किसी कानून या संविधान संशोधन का प्रस्ताव तैयार कर विधानमंडल के पास विचार और मतदान हेतु प्रस्तुत करती हैं तो इस प्रक्रिया को आरंभक कहते हैं। यह प्रणाली विशेष रूप से प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों जैसे स्विट्जरलैंड आदि में पाई जाती हैं। भारत में भी जनता अपने जनप्रतिनिधियों के माध्यम से संसद में निजी विधेयक प्रस्तुत कर सकती हैं।

3. प्रत्याह्वान :-

             प्रत्याह्वान का शाब्दिक अर्थ है चुने हुए जनप्रतिनिधियों को जनता द्वारा वापस बुलाना।

            जब जनता द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधि मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता है तो जनता एक प्रस्ताव जिस पर निर्धारित संख्या में हस्ताक्षर जरुरी होते हैं, प्रस्तुत कर जनप्रतिनिधि को कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व हटा देती है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे प्रत्याह्वान कहा जाता है। यह व्यवस्था भी स्विट्जरलैंड में प्रचलित है।

4. जनसुनवाई :-

               जब जनप्रतिनिधि या अफसर (सरकार) जनता की विभिन्न समस्याओं को अभियान चलाकर जनता के समक्ष जाकर सुनती हैं तो इसे जनसुनवाई कहते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुख्यमंत्री, मंत्री, जन-प्रतिनिधि, अफसर आदि अभियान चलाकर या दरबार लगाकर जनसुनवाई का कार्य करते हैं। राजस्थान में प्रशासन गांवों के संग, प्रशासन शहरों के संग आदि जनसुनवाई के उदाहरण है।

5. सलाहकार परिषद :-

               सरकार अपने विभिन्न विभागों से जुड़े हुए कार्यों के विशेष पक्षों पर सलाह देने हेतु गणमान्य या विशेष योग्यता वाले नागरिकों का एक संगठन बना देती है जिसे सलाहकार परिषद कहते हैं।

6. परिपृच्छा :-

                परिपृच्छा का शाब्दिक अर्थ है किसी प्रश्न पर निर्णय हेतु जनता से उनकी इच्छा पूछना।

             प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार सार्वजानिक महत्व के किसी विशेष प्रश्न पर जनसाधारण से मतदान करा कर उनकी राय लेती हैं। उदाहरण :- हाल ही में यूरोपीय यूनियन की सदस्यता त्यागने के मुद्दे पर ब्रिटेन ने सीधे जनता से मतदान द्वारा राय ली और जनता के मतदान के अनुसार ही उसने यूरोपीय यूनियन का सदस्य बने रहने से इंकार कर दिया।

7.
सविनय अवज्ञा :-

                 जब किसी अन्यायपूर्ण कानून का आम जनता द्वारा जानबूझकर और खुले तौर पर उल्लंघन किया जाता है तो इसे सविनय अवज्ञा कहते हैं।

8. राजनीतिक प्रतिहिंसा :-

                  प्राय: जनता विरोध-प्रदर्शन कर उग्र प्रदर्शन करती हैं और तोड़-फोड़ आदि के माध्यम से सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाती हैं तो इसे राजनीतिक प्रतिहिंसा कहा जाता है।

 राजनीतिक सहभागिता का महत्व :-

                 निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से नागरिकों की राजनीतिक सहभागिता का महत्व या उपयोगिता समझी जा सकती है :-

1.
नागरिकों की सहभागिता से सार्वजनिक समस्याओं पर विस्तृत चर्चा होगी और समस्याओं के समाधान हेतु अधिक सुझाव प्राप्त होंगे।

2.
नागरिक सहभागिता से राजनीतिज्ञों की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी जा सकेगी जिससे वे जनता के हितों से संबंधित पक्षों पर अधिक ध्यान देंगे।

3.
नेताओं और नौकरशाहों द्वारा किए जाने वाले सत्ता के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार को रोकने में मदद मिलेगी।

4.
शासक और शासितों के मध्य निकट संबंध स्थापित होगा जिससे लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी।

5.
लोगों की राजनीतिक जागरूकता में वृद्धि होगी।

6.
शासन व प्रशासन में विकेंद्रीकरण को बढ़ावा मिलेगा।

7.
प्रत्यक्ष लोकतंत्र की स्थापना की तरफ मजबूत कदम बढ़ेंगे।

 

राजनीति सहभागिता का मूल्यांकन :-

 

राजनीति सहभागिता के पक्ष में तर्क :-

1.
 राजनीतिक सहभागिता सहभागी व्यक्ति के हितों की रक्षा करती हैं।

2.
राजनीतिक सहभागिता सामान्य हित के उद्देश्य की पूर्ति हेतु लोगों में एकता की भावना पैदा करती है।

3.
राजनीति सहभागिता नागरिकों की सामान्य नैतिक, सामाजिक व राजनीतिक सजगता को बढ़ाती है।

4.
यह शासक व शासितों के मध्य निकट संबंध स्थापित करती है।

5.
इससे विकेंद्रीकरण को बढ़ावा मिलता है।

6.      इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलती है।

 राजनीतिक सहभागिता के विपक्ष में तर्क :-

                      राजनीतिक सहभागिता में अत्यधिक वृद्धि होने पर लोकतंत्र का स्वरूप विकृत होकर भीड़तंत्र में बदल जाता है जिससे कई तरह की समस्याएं उत्पन्न हो जाती है।

1.
सार्वजनिक नीतियों, निर्णयों व कार्यक्रमों के प्रभावी परिणाम आने में समय लगता है जिसका आम नागरिक धैर्य पूर्वक इंतजार नहीं कर सकते हैं।

2.
राजनीतिक समस्याएं भले ही दिखने में सामान्य लगे परंतु अपनी प्रकृति से अत्यधिक जटिल होती हैं। अतः आम नागरिकों द्वारा इन समस्याओं का सही आकलन नहीं होता है।

3.
अत्यधिक राजनीतिक सहभागिता से नागरिकों के सुझावों, शिकायतों और विवादों का अंबार लग जाएगा और इन सभी का विशेषज्ञों द्वारा अध्ययन किया जाना असंभव हो जायेगा।

4.
जब आम जनता की समस्याओं, सुझावों, शिकायतों आदि पर उचित ध्यान नहीं दिया जाएगा तो यह जनता भीड़ के रूप में एकत्रित होकर अनियंत्रित हो जाएगी और जोश में नारेबाजी, रैली हड़ताल, प्रदर्शन, तोड़फोड़ आदि द्वारा सार्वजनिक हितों को नुकसान पहुंचा देती है।

                   इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक सहभागिता एक निश्चित सीमा तक ही बढ़नी चाहिए अन्यथा यह शासन-प्रशासन के सहयोग की बजाय असहयोग करने लगेगी।

 

CLASS 12 HINDI COMPULSORY RBSE ABHINAV SIR

कक्षा 12

अनिवार्य हिंदी

तैयारकर्ता- अभिनव सरोवा

 

                                         पाठ्यपुस्तक- पीयूष प्रवाह

 

रचना
का नाम- उसने कहा था।

 

रचनाकार- चंद्रधर शर्मा गुलेरी।

 

प्रश्न- पलटन का विदूषक किसे माना जाता था?

उत्तर-पलटन का विदूषक वजीरा सिंह को माना जाता
था। क्योंकि वह विदूषक की तरह सबका मनोरंजन करता और हँसाता रहता था।

प्रश्न- उसने कहा था कहानी की पृष्ठभूमि में
किस युद्ध का वातावरण है?

उत्तर- उसने कहा था कहानी की पृष्ठभूमि में
प्रथम विश्वयुद्ध जो 1914 ई. से 1918 के मध्य हुआ था का वातावरण चित्रित है।

प्रश्न- 
उसने कहा था कहानी के आधार पर सूबेदारनी के चरित्र की दो विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर- सूबेदारनी के चरित्र की विशेषताएं
निम्न हैं- विवेक सम्पन्न नारी और पति और पुत्र की सदैव मंगलकामना करने वाली आदर
पत्नी और महान माँ।

प्रश्न- उसने कहा था कहानी की शीर्षक पर
टिप्पणी लिखिए।

उत्तर- किसी भी रचना का शीर्षक पाठक को अपनी
तरफ आकर्षित करता है। पाठक सबसे पहले शीर्षक ही पढ़ता है और शीर्षक पढ़ते ही उसकी मन
में रचना को पढ़ने की रूचि जागृति होती है। अतः किसी भी रचना का शीर्षक संक्षिप्त,
आकर्षक, जिज्ञासात्मक और सार्थक होना चाहिए। उसने कहा था कहानी का शीर्षक इन सभी
गुणों पर खरा उतरता है। इस शीर्षक को पढ़ते ही पाठक के मन में सवाल आता है कि किसने
कहा था, किससे कहा था, क्या कहा था, क्यों कहा था, कब कहा था, इन सवालों के जवाब
पाने के लिए पाठक इस कहानी को पढ़ जाता  है।
इससे कहानी के शीर्षक की  सार्थकता बनी
रहती है। हम कह सकते हैं कि कहानी का शीर्षक एकदम उपयुक्त है।

 

प्रश्न- बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े
सिपाही। इस कथन की युक्ति-युक्त विवेचना कीजिए।

उत्तर- यह कथन सिपाही और घोड़े के संबंध में
सर्वथा उचित है। क्योंकि घोड़े को चलाने पर और सिपाही के न लड़ने पर उन दोनों में
नीरसता, सुस्ती और अलस्यपन आ जाता है। अतः घोड़े का चलना और सिपाही का लड़ना उनकी
शक्ति और उनके पराक्रम का बोधक माना जाता है। उपयुक्त पंक्तियों से स्पष्ट होता है
कि लेखक को लोक की गहरी अनुभूति है।

प्रश्न- उसने कहा था कहानी की मूल संवेदना
क्या है?

उत्तर- उसने कहा था एक मार्मिक कहानी है।
जिसका कथानक प्रेम, त्याग और कर्तव्यनिष्ठा को केंद्र में रखकर बुना गया है।
लहनासिंह बचपन के प्रेम के लिए अपना जीवन त्याग देता है। 25 वर्ष बाद सूबेदारनी जब
लहनासिंह से मिलती है तब अपने पति और पुत्र की रक्षा की भीख माँगती है। लहनासिंह
अपने वचन का निर्वाह करते हुए प्रेम और देश के लिए अपने प्राण त्याग देता है।

प्रश्न- सुनते ही लहना को दुःख हुआ क्रोध आया
उस पर लहनासिंह की यह प्रतिक्रिया क्यों हुई?

उत्तर- जब लहनासिंह द्वारा पूछे जाने पर
बालिका ने उत्तर दिया कि मेरी कुड़माई कल हो गई है तो उसके प्रेम को ठेस लगने से
उसे दुःख होता है। इस तरह मन में पनपे प्रेम के अचानक टूट जाने पर क्रोध भी आता
है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि इच्छा के अनुसार कार्य न होने पर मनुष्य का स्वभाव
चिड़चिड़ा और क्रोधयुक्त हो जाता है।

 

प्रश्न- उसने कहा था कहानी से हमें क्या
प्रेरणा मिलती है?

उत्तर- उसने कहा था कहानी से हमें कुछ प्रेरक
संदेश मिलते हैं जो निम्न हैं-

आदर्श प्रेम का निर्वहन- लड़का लहनासिंह लड़की
होरां का बचपन का मिलन, लड़के की हृदय में उसकी प्रति आकर्षण जगा देता है। यह घटना
पूर्व स्मृति का काम करती है और 25 वर्ष पश्चात वह लड़की को दिए गए वचन का पालन
करते हुए उसके पति और पुत्र की रक्षा करता है और खुद अपने प्राण त्याग देता है।
इससे हमें आदर्श प्रेम के निर्वहन की प्रेरणा मिलती है।

·       वचन
पालन की प्रेरणा–  लहनासिंह ने सूबेदारनी
को उसके पति और पुत्र की रक्षा का वचन दिया था। वह अपने प्राण देकर उन दोनों की
रक्षा करता है।

·       कर्तव्य-निष्ठा
की प्रेरणा– प्रस्तुत कहानी में कर्तव्य-निष्ठा की प्रेरणा भी दी गई है। सूबेदार
की अनुपस्थिति में एक शत्रु लपटन साहब बनकर आता है तब लहना सिंह अपनी तुरंत बुद्धि
से उसकी पहचान करता है तथा खुद के और अपने साथियों के प्राण बचाता है। त्याग करने
की प्रेरणा- लहनासिंह अपने आदर्श प्रेम और देश के लिए निस्वार्थ भाव से अपने
प्राणों का त्याग कर देता है। इसी हमें त्याग की प्रेरणा मिलती है।

 

प्रश्न- मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत
साफ हो जाती है। उसने कहा था करने के आधार पर लेखक के इस कथन की सत्यता उदाहरण
सहित सिद्ध कीजिए।

उत्तर- उसने कहा था कहानी का नायक लहनासिंह जब
घायल होकर मरणासन्न स्थिति में बड़बड़ाने लगता है। उस समय उसे अपनी किशोरावस्था से
लेकर अब तक की सभी घटनाएँ स्मृत्ति में आ जाती हैं। अमृतसर के बाजार में उसकी लड़की
से कैसे भेंट हुई जो बाद में सूबेदार हजारासिंह की पत्नी बनी। पुनः मिलने पर उसी
ने उससे अपने पुत्र और पति की रक्षा का वचन माँगा। जिसका उसने पालन किया। इसके साथ
ही मरणासन्न स्थिति में वह अपने भतीजे कीरत सिंह के साथ हुई बातचीत का भी स्मरण
करता है। इस प्रकार का घटनाक्रम चित्रित कर कहानीकार ने यह सिद्ध किया है कि
मरणासन्न व्यक्ति के अवचेतन मन में पूर्व की स्मृति स्पष्ट उभर आती है।

 

पाठ- सत्य के प्रयोग (आत्मकथा अंश)

 

लेखक- मोहनदास करमचंद गाँधी।

 

प्रश्न- गोखले ने गाँधीजी को क्या प्रतिज्ञा
कराई?

उत्तर- गोखले ने गाँधीजी से प्रतिज्ञा करवाई
थी कि उन्हें एक वर्ष तक देश में भ्रमण करना है। किसी सार्वजनिक प्रश्न पर अपना
विचार न तो बनाना है और न ही प्रकट करना है। गाँधीजी ने प्रतिज्ञा का पूर्ण रुप से
पालन किया।

प्रश्न- सभ्य दिखने के लिए गाँधीजी ने
क्या-क्या कार्य किए?

उत्तर- गाँधीजी ने सभ्यता सीखने के लिए महँगी
पोशाकें सिलाई। कीमती ‘चिमनी‘ टोपी पहनना आरंभ किया। भाइयों से सोने की चौन
मँगवाई। टाई बाँधना सिखा, बालों में पट्टी डालना और सीधी मांग निकालना सीखा नाचना
और वाद्य यंत्र सीखना शुरू किया था और लच्छेदार भाषण देना भी सीखना शुरू किया।

प्रश्न- गाँधीजी के अनुसार आत्मा के विकास का
क्या अर्थ है?

उत्तर- गाँधीजी के अनुसार आत्मा के विकास का
अर्थ है- स्वयं के चरित्र निर्माण करना, ईश्वर का ज्ञान पाना एवं आत्मज्ञान
प्राप्त करना। इसमें बच्चों को सहायता की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है।

 

प्रश्न- बालकों को आत्मिक शिक्षा देने के
संबंध में गाँधीजी ने क्या अनुभव किया?

उत्तर- बालकों को आत्मिक शिक्षा देने के संबंध
में गाँधीजी ने अनुभव किया कि आत्मिक शिक्षा का ज्ञान पुस्तकों द्वारा नहीं दिया
जा सकता। शरीर की शिक्षा जिस प्रकार शारीरिक कसरत द्वारा दी जाती है। बुद्धि की
बौद्धिक कसरत द्वारा ठीक उसी प्रकार आत्मा की शिक्षा आत्मा की कसरत द्वारा दी जा
सकती है। आत्मा की कसरत शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।

 

प्रश्न- बेल साहब द्वारा गाँधीजी के कानों में
घंटी बजाने से क्या तात्पर्य है? और गाँधी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर- 
गाँधीजी इससे जागे और उन्हें अनुभूति हुई कि मुझे इंग्लैंड में कौनसा जीवन
बिताना है? लच्छेदार भाषण सीखकर मैं क्या करूँगा? नाच-नाचकर मैं सभ्य कैसे बनूँगा?
वायलिन तो देश में भी सीखा जा सकता है। मैं तो विद्यार्थी हूँ। मुझे विद्याधन
बढ़ाना चाहिए। मुझे अपने पेशे से संबंध रखने वाली तैयारी करनी चाहिए। मैं अपने
सदाचार से सभ्य समझा जाऊँ तो ठीक है नहीं तो हमें यह सब छोड़ना चाहिए।

 

प्रश्न- चरखे के प्रयोग के प्रति गाँधीजी की
क्या अवधारणा थी?

उत्तर- चरखे के प्रयोग के प्रति गाँधीजी की
अवधारणा थी कि इसके प्रयोग से हिंदुस्तान की भुखमरी मिटेगी। स्वावलंबन एवं स्वदेशी
की महत्ता उजागर होने के साथ ही स्वराज्य भी मिलेगा।

 

प्रश्न- सत्य के मेरे प्रयोग आत्मकथा अंश के
आधार पर गाँधीजी के चरित्र की विशेषताएं लिखिए।

उत्तर- इस अंश को पढ़ने से गाँधीजी के चरित्र
की कुछ विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं। इनमें से प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-

अन्नाहार के प्रति श्रद्धा- गाँधीजी इंग्लैंड
में माँसाहार की उपयोगिता समझते हुए भी अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहे और उन्होंने
अन्नाहार पर ही बल दिया।

सभ्य बनने की धुन- सभ्य बनने के चक्कर में
गाँधी ने कई चीजें सीखना शुरू किया था।

पक्षपात और अन्याय के विरोधी- दक्षिण अफ्रीका
में एशियाई अधिकारियों द्वारा भारतीय लोगों के साथ किए जा रहे अन्याय का
विरोध  किया था। इससे साबित होता है कि
गाँधीजी पक्षपात और अन्याय के विरोधी थे।

·       दृढ़
निश्चयी- गाँधीजी दृढ़ निश्चयी थे। गोखले द्वारा प्रतिज्ञा करवाने के बाद गाँधी ने
देशभर का भ्रमण किया और खादी विकास के बल दिया। खादी के विकास के लिए चरखे का
प्रयोग किया।

·       आत्म
निर्माण की भावना- गाँधीजी शरीर और मन को शिक्षित करने की अपेक्षा आत्मा को
शिक्षित करने पर अधिक बल देते थे।

·       स्वदेश
की भावना- गाँधीजी विदेशी वस्तुओं की बजाय स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने पर बल देते
थे।

·       स्वावलंबन
की भावना- गाँधीजी के अनुसार मनुष्य को अपना काम खुद करना चाहिए। इससे स्वावलंबन
की भावना को बल मिलता है।

 

पाठ- गौरा (रेखाचित्र)

 

लेखिका- महादेवी वर्मा।

 

प्रश्न- गौरा के पुत्र का क्या नाम रखा गया
था?

उत्तर- गौरा के पुत्र का नाम लालमणि रखा गया
क्योंकि वह अपने लाल रंग के कारण गेरू के पुतले जैसा जान पड़ता था।

प्रश्न- गौरा का महादेवी के घर में किस तरह
स्वागत किया गया?

उत्तर- गाय का महादेवी के घर पहुँचते ही उसके
स्वागत में उसे लाल-सफेद गुलाब की माला पहनाई गई, केसर और रोली का टीका लगाया गया।
घी  का चौमुखा दीया जलाकर उसकी आरती उतारी
गई। उसे दही पेड़ा खिलाया गया और उसका नामकरण हुआ गौरंगिनी या गौरा।

 

प्रश्न- गौरा को मृत्यु से बचाने के लिए
महादेवी ने क्या क्या प्रयास किए?

उत्तर- गौरा को मृत्यु से बचाने के लिए लेखिका
ने एक नहीं अनेक पशु चिकित्सकों को यहाँ तक कि लखनऊ और कानपुर तक के पशु
विशेषज्ञों को बुलाया। उनके कहे अनुसार एक्सरे करवाए गए। इंजेक्शन लगवाए गए। सेब
का रस पिलाया गया तथा बताए अनुसार दवाइयाँ दी गई। लेकिन अंत तक गौरा को कोई लाभ
नहीं हुआ। गौरा के ऐसे दर्द को देखकर लेखिका की मानवीय संवेदना तड़प उठी थी।

 

प्रश्न- महात्मा गाँधी के ‘गाय करुणा की कविता
है‘ इस कथन में निहित भाव को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- गाय की आँखों में अपने पालक के प्रति
विश्वास होता है। वह पालक के प्रति अपनी हानि की आशंका नहीं रखती और न उसे विश्वास
होता है कि हमारा पालक ही हमारी हानि या हत्या कर रहा है। कथन का भाव यह है कि जो
गाय मनुष्य जाति पर इतना विश्वास करती है तो बदले में मनुष्य को गौ हत्या बंद कर
देनी चाहिए।

 

प्रश्न- अंत में एक ऐसा निर्मम सत्य उद्घाटित
हुआ, जिसकी कल्पना मेरे लिए संभव नहीं थी। लेखिका किस निर्मम सत्य की बात कर रही
है?

उत्तर- जब लेखिका को डॉक्टर द्वारा बताया गया
कि गाय को सुई खिला दी गई है जो गाय के हृदय तक पहुँच गई है। जब लेखिका को पता चला
कि यह सुई और किसी के द्वारा नहीं बल्कि गाय का दूध निकालने वाले ग्वाले के द्वारा
खिलाई गई है तो उन्हें यह बहुत ही निर्मम कृत्य लगा। इसी कारण उन्होंने कहा कि ऐसे
सत्य की कल्पना मेरे लिए संभव नहीं थी।

 

प्रश्न- लेखिका की आँखों में क्या सोच कर आँसू
आ जाते थे?

उत्तर- जब गौरा ग्वाले की निर्मम करतूत के
कारण बीमार हो गई और अब उसकी मृत्यु निश्चित हो गई तो महादेवी यह सोचकर दुःखी हो
जाती थी कि इतनी हष्ट-पुष्ट, सुंदर और दूध देने वाली गाय, अपने प्यारे से बछड़े को
छोड़कर किसी भी क्षण निर्जीव हो जाएगी। यही सोचकर उनकी आँखों में आँसू आ जाते थे।

 

प्रश्न- अब मेरी एक ही इच्छा थी। महादेवी की
क्या इच्छा थी?

उत्तर- गौरा को मृत्यु के निकट जानकर महादेवी
ने सोचा कि अंतिम समय में भी गौरा के पास रहे। वह रात-दिन कई-कई बार उसे देखने
जाती थी। अंत में एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में जब महादेवी उसे देखने गई तो उसने सदा
की तरह अपना सिर उठाकर महादेवी के कंधे पर रखा और उसी समय उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

 

प्रश्न- गौरा वास्तव में बहुत प्रियदर्शन थी।
कथन के आधार पर कोई गौरा के बाह्य सौंदर्य की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर- प्रियदर्शन गौरा का रूप सौंदर्य अनेक
विशेषताओं से मंडित था। उसकी काली बिल्लौरी आँखों का तरल सौंदर्य देखने वाले की
दृष्टि को निश्चल कर देता था। उसके चौड़े और उज्ज्वल माथे और लंबे तथा साँचे में
ढले हुए मुख पर आँखें बर्फ में नीले जल के कुंडों के समान प्रतीत होती थीं। उसके
पैर पुष्ट एवं लचीले थे। पुट्ठे भरे हुए तथा चिकनी भरी हुई पीठ, लंबी सुडौल गर्दन,
निकलते हुए छोटे-छोटे सींग, भीतर की लालिमा की झलक देते हुए कमल की अधखुली
पंखुड़ियों जैसे कान, लंबी और अंतिम छोर तक काले सघन चमर का स्मरण दिलाने वाली पूँछ
सब कुछ साँचे में ढला हुआ था। मानो इटालियन मार्बल में गाय का स्वरूप तराशकर उसे
गौरा पर ओप दिया गया हो। इस प्रकार गौरा का बाह्य सौंदर्य अतीव आकर्षक था।

प्रश्न- ‘आह मेरा गोपालक देश!‘ पंक्ति में
निहित वेदना का चित्रण कीजिए।

उत्तर- गौरा महादेवी की अत्यंत प्रिय थी। जब
गौरा का मृत शरीर गंगा में समर्पित करने ले जाया गया तो उस समय लेखिका का हृदय
करुणा और वेदना से अत्यधिक व्यथित हो रहा था परंतु गौरा का बछड़ा उसी करुणाजनक
दृश्य को भी एक खेल समझकर उछल-कूद रहा था। उस समय लेखिका ने अपनी पीड़ा को व्यक्त करते
हुए ऐसा कहा कि गाय को हमारे देश में माता के समान माना जाता है और भारतवासी स्वयं
को गोपालक भी कहते हैं। यह गाय के साथ क्रूर मजाक है, पाखंड मात्र है। क्योंकि कुछ
स्वार्थी लोग ऐसे उपयोगी पशु से भी ईर्ष्या रखकर स्वार्थ पूर्ति की दृष्टि से उसके
साथ ऐसा क्रूर आचरण करते हैं जो निंदनीय है यह कहाँ का कैसा गोपालक देश है?

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पाठ- राजस्थान के गौरव(जीवन चरित)

 

प्रश्न- संप सभा की स्थापना किसने की थी?

उत्तर- पूज्य गोविंद गुरु ने संप सभा की
स्थापना की थी।

प्रश्न- देवनारायण को किसका अवतार माना जाता
है?

उत्तर- देवनारायण को भगवान विष्णु का अवतार
माना जाता है।

प्रश्न- ‘सिर साँटे रूंख तो भी सस्ता जाण‘
पंक्ति का अर्थ क्या है?

उत्तर- सिर कटने पर भी पेड़ बच जाए तो इसे
सस्ता ही समझना चाहिए।

प्रश्न- 
सूरजमल कहाँ के राजा थे?

उत्तर- सूरजमल भरतपुर राज्य के राजा थे।

प्रश्न- संत जंभेश्वर को दिव्य ज्ञान कहाँ
प्राप्त हुआ?

उत्तर- संत जंभेश्वर को समराथल धोरां में
दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई।

 

प्रश्न- जम्मा-जागरण आंदोलन के उद्देश्य को
स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- जम्मा जागरण आंदोलन बाबा रामदेव द्वारा
चलाया गया था। इसका उद्देश्य दलितों के साथ संपर्क बढ़ाकर उन्हें जाग्रत कर
अच्छाइयों की ओर मोड़ना था। जम्मा जागरण का यह पुनीत कार्य मेघवाल जाति के द्वारा
ही किया जाता था। बाबा रामदेव मेघवाल जाति में चेतना जाग्रत करना चाहते थे।

 

प्रश्न- महाराजा सूरजमल की राष्ट्रीय भावना से
संबंधित किसी एक घटना का वर्णन कीजिए।

उत्तर- महाराजा सूरजमल वीर और साहसी योद्धा
थे। उन्होंने मुगल बादशाहों से युद्ध ही नहीं किया बल्कि उन्हें वीर शिवाजी की तरह
परास्त भी किया। इसी क्रम में उन्होंने रात के अंधेरे में सलावत खान की छावनी पर
सिंह-झपट्टा मारकर उसे आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया और उन्होंने उससे जो
शर्तें थे कि वे उनकी राष्ट्र भावना से संबंधित थी। जो निम्न हैं- मुगल सेना पीपल
के वृक्ष नहीं काटेगी और मंदिरों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जाएगा।

 

प्रश्न- खेजड़ली गाँव की अमृता देवी का बलिदान
किस कारण हुआ था? लिखिए

उत्तर- खेजड़ली गाँव की अमृता देवी का बलिदान
प्रकृति एवं पर्यावरण-संरक्षण की दृष्टि से खेजड़ी के पेड़ों की कटाई रोकने के कारण
हुआ था। क्योंकि राजा के सैनिक इस गाँव से खेजड़ी के पेड़ काटने आए थे। अमृता बाई ने
उन्हें पेड़ काटने से रोका। परिणामस्वरूप एक पेड़ से चिपकी अमृता देवी को सैनिकों ने
काट दिया। इस प्रकार पेड़ों की रक्षा करने के लिए अमृता देवी से प्रेरित होकर उनकी
तीन पुत्रियाँ और पति के साथ ही 363 लोगों ने अपना बलिदान दिया था। पेड़ों के लिए
इतने लोगों का एक साथ बलिदान अपने आप में अद्वितीय उदाहरण है।

 

प्रश्न- मानगढ़ का विशाल पहाड़ किस दिव्य-बलिदान
का साक्षी है? विस्तार से लिखिए।

उत्तर- भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास
में राजस्थान की धरती पर गोविंद गुरु ने विदेशी अंग्रेज सरकार के साथ ही
सामंत-जागीरदारों का भी विरोध किया था। इस हेतु मानगढ़ के विशाल पहाड़ पर वनवासियों
का एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया। इससे स्थानीय सामंतों और जमीदारों को बहुत कुढ़न
हुई। इस सम्मेलन में लाखों लोग आए थे। देशद्रोहियों ने ब्रिटिश सरकार के कान भरे
हर कर्नल शटल ने वहाँ जलियाँवाला बाग से भी वीभत्स हत्याकांड करवा डाला था। जिसमें
1500 से ज्यादा लोग मारे गए थे। मानगढ़ का विशाल पहाड़ इसी दिव्य बलिदान का साक्षी
है। यह बलिदान आज भी वनवासियों के गीतों और कथाओं में रचा-बसा है।

 

प्रश्न- जंभेश्वर की अनुयायी कौन हैं?

उत्तर- जंभेश्वर के अनुयायी विश्नोई लोग हैं।
आज भी इन विश्नोईयों के गाँव में प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से न तो
पेड़ काटे जाते हैं और न ही हरिण मारे जाते हैं। आज भी उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष
मेला लगता है हजारों लोग आते हैं। उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं तथा
प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लेते हैं।

 

पाठ्यपुस्तक- संवादसेतु

 

इस पुस्तक में से 5 कुल 5 प्रश्न पूछे जाएँगे
जिनका अंकभार 12 होगा।  इनमें तीन प्रश्न
दो-दो अंक के तथा दो प्रश्न तीन-तीन अंकों के होंगे।

 

अध्याय- 
समाचार लेखन

 

प्रश्न- समाचार लेखन के छह ककारों का उपयोग
बताइए।

उत्तर- समाचार लेखन से पूर्व मुख्य रूप से 6
प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश की जाती है। यह 6 प्रश्नोत्तर ही छह ककार कहलाते
हैं। क्या, कौन या किसने, कहाँ, कब, क्यों और कैसे। समाचार लेखन में सर्वप्रथम
क्या, कौन, कब व कहाँ ककार के आधार पर समाचार लिखा जाता है। शेष दो ककारों क्यों
और कैसे के आधार पर समाचार के विश्लेषण, विवरण व व्याख्या पर जोर दिया जाता है।

 

प्रश्न- समाचार लेखन की उलटा पिरामिड शैली का
स्वरूप बताइए।

उत्तर- समाचार पत्रों के लिए समाचार लेखन में
आमतौर पर उलटा पिरामिड शैली अपनाई जाती है। इसमें महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख
पहले किया जाता है एवं कम महत्त्व की घटनाओं को समाचार के रूप में घटते क्रम में
लिखा जाता है। इसमें इंट्रो, बॉडी और समापन के क्रम में घटित घटनाओं को लिखा जाता
है। इस प्रकार समाचार तीन भागों में रखा जाता है। इंट्रो, बॉडी और समापन के क्रम
से लिखने के कारण ही इसे उलटा पिरामिड शैली कहते हैं।

 

प्रश्न- रेडियो के लिए समाचार लेखन में किन
बातों का ध्यान रखना चाहिए?

उत्तर- रेडियो समाचार लेखन में दो बुनियादी
बातों का ध्यान रखना जरूरी है-

1 समाचार साफ-सुथरी और टाइप कॉपी में हो।

2 डेडलाइन, संदर्भ और संक्षिप्ताक्षर स्पष्ट
अंकित हो ताकि समाचार वाचक को कोई दिक्कत न हो। समाचार लेखन के आरंभ में बोलचाल की
तिथि-वार आदि का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। संक्षिप्ताक्षर अति प्रचलित रूप में
होने चाहिए।

 

प्रश्न- समाचार लेखन में मुद्रित माध्यम का
महत्त्व स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- संचार माध्यमों में मुद्रित या प्रिंट
मीडिया सबसे पुराना है। भारत में ईसाई मिशनरियों ने धर्म प्रचार की पुस्तकें छापने
के लिए छापेखाने खोले थे। मुद्रण कला का प्रसार होते ही समाचार पत्रों का प्रकाशन
होने लगा स्थायित्व, प्रसार, विचार-विश्लेषण तथा सूचना संप्रेषण की दृष्टि से
मुद्रित माध्यम का विशेष महत्त्व है। मुद्रित माध्यम का सबसे बड़ा गुण ये है कि
जरूरत पड़ने पर पुराने अखबार आदि से समाचार देखे जा सकते हैं। वर्तमान में इसे जनता
की आवाज माना जाता है।

 

प्रश्न- फिल्म पटकथा लेखन के स्वरूप को
समझाइए।

उत्तर- टीवी धारावाहिक, फिल्म और थिएटर में
पटकथा का विशेष महत्त्व है। इसमें पहले कहानी लिखी जाती है शूटिंग के अनुसार फिर
संवाद लिखे जाते हैं। पटकथा से स्क्रीनप्ले का ढाँचा तैयार होता है। फिल्म पटकथा
लेखन के लिए अच्छे लेखक की जरूरत होती है। उसमें भाषा तथा डायलॉग पर विशेष ध्यान
दिया जाता है। स्क्रिप्ट या पटकथा जितनी अच्छी होगी फिल्म उतनी ही श्रेष्ठ हो
रहेगी।

 

प्रश्न- इंटरनेट के स्वरूप एवं उपयोग का महत्व
बताइए।

उत्तर- इंटरनेट अंतर्कि्रयात्मकता और विश्व के
करोड़ों कंप्यूटरों को जोड़ने वाला ऐसा संजाल है जो केवल एक टूल अर्थात उपकरण से
सूचनाओं के विशाल भंडार का माध्यम है। यह सूचना, मनोरंजन, ज्ञान, व्यक्तिगत एवं
सार्वजनिक संबंधों के आदान-प्रदान का त्वरित माध्यम है। इंटरनेट की उपयोगिता यह है
कि इससे एक सेकंड में लगभग सत्तर हजार शब्द एक जगह से दूसरी जगह भेज सकते हैं। अब
4जी से इसकी गति तकरीबन दस गुना बढ़ गई है।

 

अध्याय- विविध प्रकार के लेखन फीचर,
संपादकीय, संपादक के नाम पत्र एवं प्रतिक्रिया लेखन

 

प्रश्न- संपादकीय क्या है?

उत्तर- किसी भी समाचार पत्र का अत्यंत
महत्त्वपूर्ण भाग संपादकीय ही होता है। यह किसी ज्वलंत मुद्दे या घटना पर
समाचार-पत्र के दृष्टिकोण एवं विचार को व्यक्त करता है। संपादकीय संक्षेप में
तथ्यों और विचारों की तर्कसंगत एवं सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति होता है।

 

प्रश्न- फीचर किसे कहते हैं?

उत्तर- 
किसी रोचक विषय का मनोरम और विशद प्रस्तुतीकरण ही फीचर कहलाता है। यह एक
सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन होता है। इसमें भाव और भाषा की मिश्रित
लेखन-शैली अपनाई जाती है जो कि मानवीय भावनाओं और उनकी अभिरुचि को मनोरंजक ढंग से
प्रस्तुत करती है। इसका लक्ष्य पाठकों को सूचना देना, शिक्षित करना एवं उनका
मनोरंजन करना होता है।

 

प्रश्न- लेख एवं फीचर की शैली में क्या अंतर
है?

उत्तर- लेख एवं फीचर की शैली में मुख्य अंतर
निम्न हैं-

1.     लेख
गहन अध्ययन पर आधारित एक प्रामाणिक लेखन है जबकि फीचर पाठकों की रूचि के अनुरूप
किसी घटना या विषय की तथ्यपूर्ण रोचक प्रस्तुति।

2.     लेख
दिमाग को प्रभावित करता है जबकि फीचर दिल को।

3.     लेख
एक गंभीर और उच्च स्तरीय गद्य रचना है जबकि फीचर एक गद्य-गीत की तरह संवेदनाएं
जाग्रत करता है।

4.     लेख
किसी घटना या विषय के सभी आयामों को स्पर्श करता है जबकि फीचर कुछ ही आयामों को।

5.     लेख
में तथ्यों को वस्तुनिष्ठ तरीके से प्रस्तुत किया जाता है जबकि फीचर में लेखक को
अपना दृष्टिकोण व्यक्त करने की छूट रहती है।

 

प्रश्न- समाचार और फीचर में प्रमुख अंतर क्या
है?

उत्तर- समाचार दैनिक एवं तात्कालिक घटित
घटनाओं, सूचनाओं और विषयों पर आधारित होते हैं। उनका लेखन उल्टा पिरामिड शैली में
तथा 6 का ककारों के आधार पर होता है। इसके विपरीत फीचर आलेख जैसा होता है जिसमें
दैनिक समाचार, सामयिक विषय एवं पाठकों की रुचि वाले विषयों की चर्चा मनोरंजनपूर्वक
होती है। समाचार लेखन में संक्षिप्तता का ध्यान रखा जाता है जबकि फीचर लेखन में
विषय वस्तु को विस्तार से लिखा जाता है।

 

प्रश्न- प्रतिक्रिया लेखन क्या है? स्पष्ट
कीजिए।

उत्तर- किसी खास अवसर पर तथा किसी चर्चित
मुद्दे को लेकर या तो मीडिया द्वारा संबंधित पक्षों से प्रतिक्रिया आमंत्रित की
जाती है अथवा किसी प्रमुख मामले में व्यक्ति विशेष या पदाधिकारी को अपनी राय देते
हैं उनकी बात जो प्रतिक्रिया रूप में छपती है उसे ही प्रतिक्रिया लेखन कहा जाता
है।


अध्याय- साक्षात्कार लेने की कला

 

प्रश्न- साक्षात्कार किसे कहते हैं?

उत्तर- किसी भी क्षेत्र में चर्चित एवं
विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त करने वाले व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व की
जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं।
मुद्रित माध्यम एवं रेडियो-टीवी में प्रकाशित एवं प्रसारित होने वाली भेंटवार्ता
को भी साक्षात्कार कहते हैं।

 

प्रश्न- साक्षात्कार कितने प्रकार के होते
हैं?

उत्तर- साक्षात्कार मुख्य रूप से दो प्रकार के
होते हैं-

1 विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं या नौकरियों हेतु
आयोजित साक्षात्कार।

2 रेडियो-टीवी में समाचार पत्र हेतु रिपोर्टर
या संपादक द्वारा लिए जाने वाले साक्षात्कार।

 

प्रश्न- साक्षात्कार के संबंध में कन्हैयालाल
मिश्र ‘प्रभाकर‘ का क्या कथन है?

उत्तर- पत्रकारिता के क्षेत्र में साक्षात्कार
दिए जाते हैं। उनके संबंध में मिश्र जी का कथन है कि मैंने इंटरव्यू के लिए वर्षों
पहले एक शब्द रचा था- अंतर्व्यूह। मेरा भाव यह है कि इंटरव्यू के द्वारा हम सामने
वाले के अंर्त में एक व्यूह रचना करते हैं मतलब यह कि दूसरा उसे बचा न सके, जो हम
उससे पाना चाहते हैं। यह एक तरह का युद्ध है और इंटरव्यू हमारी रणनीति व्यूह रचना
है।

 

प्रश्न- एक पत्रकार होने के नाते आप अखबार या
टीवी दोनों में से किसके लिए साक्षात्कार करना चाहेंगे और क्यों?

उत्तर- एक पत्रकार होने के नाते हम टीवी के
लिए साक्षात्कार लेना पसंद करेंगे क्योंकि टीवी में साक्षात्कार का प्रसारण होता
है। उसमें जिसका साक्षात्कार लिया जा रहा है उसका तथा साक्षात्कार करने वाले का भी
फोटो सामने आ जाता है। उसमें चेहरे के हाव-भाव भी व्यक्त होते हैं। टीवी पर
साक्षात्कार अनेक चौनलों से एक साथ या दो-तीन दिन तक लगातार प्रसारित होने से नाम
और यश भी मिलता है। व्यक्तित्व का प्रकाशन भी होता है और इसमें आत्मविश्वास भी
बढ़ता है।

 

 

अध्याय- विविध क्षेत्रों में पत्रकारिता

 

प्रश्न- खेल पत्रकारिता पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर- आधुनिक युग में खेलों के प्रति पाठकों
की रुचि बढ़ी है। पाठकों की जानकारी के लिए समाचार पत्रों में खेल समाचारों के अलग
से पृष्ठ तय रहते हैं। खेल समाचारों की रिपोर्टिंग करने में अनुभव एवं तकनीकी
बातों की जरूरत होती है। प्रत्येक खेल के अलग-अलग नियम होते हैं। उनके अलग-अलग
संगठन होते हैं तथा उनके नियम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदलते रहते हैं। इन सबकी जानकारी
खेल रिपोर्टर को होनी चाहिए। खेल पत्रकार में अनेक गुणों एवं विशेषज्ञताओं की
अपेक्षा की जाती है।

 

प्रश्न- व्यापारिक पृष्ठ के विभिन्न अंग
कौन-कौन से होते हैं?

उत्तर- व्यापारिक या वाणिज्यिक पत्रकारिता के
कई स्तंभ होते हैं। प्रायः समाचार-पत्र के पृष्ठों में मंडी भाव, सर्राफा बाजार,
शेयर बाजार, रूई बाजार, चाय-किराना बाजार, तेल-तिलहन, गुड़-खांडसारी आदि के स्तंभ
या कॉलम निर्धारित रहते हैं। इन्हीं पृष्ठों में आयात-निर्यात, कंपनी समाचार एवं
मुद्रा बैंकिंग आदि का विश्लेषण भी दिया जाता है।

 

प्रश्न- विज्ञान पत्रकारिता क्या है?

उत्तर- वैज्ञानिक क्षेत्र के किसी कार्यक्रम,
प्रमुख घटना, उपलब्धि या खोज की तह तक जानकारी प्राप्त करना तथा उसकी पृष्ठभूमि के
बारे में बताना और भविष्य की संभावनाओं की जानकारी देना विज्ञान पत्रकारिता कहलाती
है। जिसमें विज्ञान से संबंधित समस्त तकनीकी पक्षों की जानकारी समाचार माध्यम से
दी जाती है।

 

प्रश्न- विज्ञान पत्रकारिता करते समय किन
बातों का ध्यान रखना आवश्यक है?

उत्तर- विज्ञान पत्रकारिता के लिए उपलब्ध
सामग्री जटिल होती है। विज्ञान की तकनीकी शब्दावली को आम पाठक समझ नहीं पाता इसलिए
विज्ञान संबंधी समाचार देते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इसमें सरल एवं आम जनता
की समझ आने वाली भाषा का प्रयोग किया जाए। समस्त समाचार को मनोरंजक कथा-शैली में
प्रस्तुत किया जाए अर्थात पत्रकार अपनी सहज भाषा में समाचारों को प्रस्तुत करें।

 

प्रश्न- फिल्म पत्रकारिता किसे कहते हैं?

उत्तर- फिल्म जगत की संपूर्ण जानकारी,
विवरण-विश्लेषण के साथ प्रस्तुत की जाती है। फिल्म की पटकथा, उसके संवाद, उसकी
संवेदना, पात्रों का प्रदर्शन, समाज पर उसका प्रभाव तथा सामयिक संदेश, फिल्म की
शूटिंग एवं विविध शॉट तथा उनकी कलात्मक पृष्ठभूमि आदि समस्त पक्षों की जानकारी
प्रस्तुत करना फिल्म पत्रकारिता कहलाती है। इसी में फिल्म की समीक्षा भी आ जाती
है।

 

अध्याय- वार्ता, रिपोर्ताज,
यात्रा-वृत्तान्त, डायरी लेखन, संदर्भ ग्रन्थ की महत्ता

 

प्रश्न- रिपोर्ट और रिपोर्ताज में क्या अंतर
है?

उत्तर- रिपोर्ट और रिपोर्ताज में निम्न अंतर
हैं-

1.     किसी
घटना या विषय का तथ्यात्मक विवरण या लेखा-जोखा प्रस्तुत करना रिपोर्ट कहलाता है
परंतु जब वह रिपोर्ट कलात्मक, संवेदनामय एवं साहित्यिक शैली में प्रस्तुत हो तो वह
रिपोर्ताज कहलाता है।

2.     घटनाओं
एवं सूचनाओं का आँखों देखा विवरण लिखना रिपोर्ट माना जाता है परंतु उसे कलात्मक
अभिव्यक्ति व संवेदनशीलता के साथ ज्ञान व आनंद का समावेश हो तो वह रिपोर्ताज बन
जाता है।

3.     रिपोर्ट
को प्रतिवेदन भी कहते हैं इस में तथ्यात्मकता होने से नीरसता रहती है जबकि
रिपोर्ताज भावात्मक अभिव्यक्ति होती है तथा इसमें सरसता एवं संवेदना का पुट रहता
है। रिपोर्ट से भिन्न रिपोर्ताज एक साहित्यिक विधा है।

4.     रिपोर्ट
अंग्रेजी भाषा का शब्द है जबकि रिपोर्ताज फ्रेंच भाषा का शब्द है।

प्रश्न- वार्ता से क्या अभिप्राय है? स्पष्ट
कीजिए।

उत्तर- वार्ता रेडियो प्रसारण की एक विशिष्ट विधा
है। यह समाचार आधारित भी होती है और साहित्यक, संस्कृतिक, वैज्ञानिक व आर्थिक
विषयों की भी हो सकती है। समाचारों पर आधारित वार्ता के साथ-साथ अन्य डायलॉग संवाद
का भी प्रसारण होता है। जिसमें एक विशेषज्ञ से समाचार संपादक या संवाददाता किसी
तात्कालिक विषय पर अपनी बात करके उनसे विस्तृत जानकारी देने का प्रयास करता है।
वार्ता में दो पक्ष होते हैं एक वक्ता और दूसरा श्रोता।

 

प्रश्न- यात्रावृत्त लेखन के विकास में राहुल
सांकृत्यायन का योगदान अप्रतिम है। समझाइए।

उत्तर- यात्रा साहित्य के विकास में राहुल
सांकृत्यायन का योगदान अप्रतिम है। यह पक्के घुमक्कड़ थे और उनके जीवन का बहुत बड़ा
भाग घूमने फिरने में व्यतीत रहा। इतिवृत्त प्रधान शैली के उपरांत भी गुणवत्ता व
परिमाण की दृष्टि से उनके यात्रा वृत्तांतों की तुलना में कोई दूसरा लेखक कहीं
नहीं ठहरता। उन्होंने तिब्बत में सवा वर्ष, मेरी यूरोप यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा
शीर्षक से यात्रा-वृत्त लिखे।  मेरी यूरोप
यात्रा में यूरोप के दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालयों के रोचक किस्से भी प्रस्तुत किए गए हैं। सन् 1948 में उन्होंने
घुमक्कड़ शास्त्र नामक ग्रंथ की रचना की जिससे यात्रा करने की कला को सीखा जा सकता
है।

 

प्रश्न- डायरी लेखन में किस तरह की भाषा शैली
अपनानी चाहिए?

उत्तर- डायरी लेखन में परिष्कृत एवं मानक भाषा
शैली का आग्रह नहीं रखना चाहिए। यह अत्यंत निजी एवं व्यक्तिगत होती है। परिष्कृत
एवं क्लिष्ट भाषा के प्रयोग से कथ्य एकदम भारी हो जाता है। डायरी लेखन में यह
चिंता नहीं करनी चाहिए कि भाषा कितनी शुद्ध है और शैली-सौंदर्य कितना कलात्मक है।
इसमें सहज अभिव्यक्ति एवं हृदय के भावों के आवेग को प्राथमिकता देनी चाहिए।
स्वाभाविक भाषा शैली का प्रयोग करने से ही डायरी का सही स्वरूप उभरता है। अतः
कृत्रिमता से बचने के लिए डायरी लेखन में हृदय की अनुभूति के अनुरूप ही भाषा शैली
अपनानी चाहिए। इसी विधि से इसमें आत्मीयता का समावेश होता है।

 

प्रश्न- संदर्भ ग्रंथ किसे कहते हैं? इनका
क्या महत्त्व है?

उत्तर- शब्दकोश की तरह ही जिन ग्रंथों में
मानव द्वारा संचित ज्ञान को संक्षेप में प्रस्तुत किया जाता है अर्थात सभी विषयों
की अत्यंत संक्षिप्त जानकारी दी जाती है उसे ही संदर्भ ग्रंथ कहते हैं। संदर्भ
ग्रंथ समस्त जानकारी एवं सूचनाओं के संकलन होने से ज्ञान के भंडार माने जाते हैं।
इनका महत्त्व गागर में सागर भरने के समान है। संदर्भ ग्रंथों में किसी विषय पर
तुरंत जानकारी मिल जाती है। इस कारण यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण व उपयोगी रहते हैं।
इनमें जानकारियों एवं विविध विषयों का संकलन क्रमानुसार और शब्दकोश के नियमों के
अनुसार रहता है।

 

भ्रमरगीत से चयनित कुछ पद- सूरदास

 

प्रश्न- गोपियों को उद्धव का संदेश कैसा लग
रहा है?

उत्तर-गोपियों को उद्धव का संदेश कड़वी ककड़ी के
समान लग रहा है।

 

प्रश्न- सूरदास भक्तिकाल की किस काव्य धारा के
कवि हैं?

उत्तर- सूरदास भक्तिकाल की सगुण भक्ति शाखा
में कृष्ण भक्ति काव्यधारा के कवि माने जाते हैं।

 

प्रश्न- सूरदास की भक्ति किस कोटि की मानी
जाती है?

उत्तर- सूरदास की भक्ति सखा भाव की अर्थात
सख्य भाव की मानी जाती है।

 

प्रश्न- गोपियों को उद्धव का योग संदेश किसके
समान लग रहा है?

उत्तर- गोपियों को उद्धव का योग संदेश कड़वी
ककड़ी के समान लग रहा है। गोपियाँ श्रीकृष्ण के साकार रूप से प्रेम करती हैं। उद्धव
उनकी भावनाओं को न समझकर उन्हें बार-बार योग साधना करने को प्रेरित कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण को भूलाकर निर्गुण, निराकार ईश्वर की आराधना करना गोपियों को तनिक भी
नहीं सुहा रहा था। इसलिए उन्होंने योग की तुलना कड़वी ककड़ी से की है।

 

प्रश्न- सूरदास के पदों की काव्यगत विशेषताएं
लिखिए।

उत्तर- सूरदास के पदों की काव्यगत विशेषताएँ
निम्न हैं-

 भाव
पक्ष- इन पदों में गोपियों के उद्धव के साथ संवाद के माध्यम से विरह की मार्मिकता,
कृष्ण से अनन्य प्रेम, निर्गुण ब्रह्म पर सगुण ब्रह्म की श्रेष्ठता, गोपियों की
वाग्विदग्धता एवं वियोग शृंगार रस की छवि अप्रतिम है।

कला पक्ष- इन पदों की भाषा ब्रज है। अनुप्रास,
उपमा, रूपक, श्लेष और  व्यतिरेक अलंकारों
का प्रयोग हुआ है। संगीतात्मकता एवं माधुर्य तथा प्रसाद काव्य गुणों का सम्यक
निर्वहन हुआ है।

 

प्रश्न- 
‘बिन गोपाल बैरिन भई कुंजै‘ पद के आधार पर गोपियों की विरह वेदना का वर्णन
कीजिए।

उत्तर- इस पद में गोपियाँ कृष्ण के विरह में
दुःखी होकर उद्धव को बता रही हैं कि सुख प्रदान करने वाली समस्त वस्तुएँ कृष्ण के
वियोग में हमें कष्टकारक लग रही हैं। श्रीकृष्ण के संयोग के समय ब्रज की ये लताएँ
अत्यंत सुखकारी लगती थी किंतु अब अग्नि की प्रचंड लपटों के समान कष्ट देने वाली लग
रही हैं। यमुना का स्वच्छंद प्रवाह, कोयल की मधुर ध्वनि, कमलों का खिलना, भ्रमरों
का मधुर गुंजार आज सब व्यर्थ है। शीतल पवन, कपूर और अमृतमयी चंद्र-किरणें आदि
समस्त शीतल उपकरण हमें सूर्य की किरणों के समान संताप दे रही हैं।


नीति के दोहे- रहीम

 

प्रश्न- रहीम किसके भक्त थे?

उत्तर- रहीम कृष्ण के भक्त थे।

 

प्रश्न- काज परे कछु और है, काज सरे कछु और।

रहीमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मोर।।

पद के माध्यम से कवि रहीम ने किन लोगों की ओर
संकेत किया है या लोगों के किस गुण के बारे में संकेत किया है?

उत्तर- कवि रहीम ने प्रस्तुत दोहे के माध्यम
से लोगों के स्वार्थी स्वभाव पर प्रहार किया हैं। मनुष्य की अवसरवादिता, और
मौकापरस्ती पर प्रहार किया है कि किस प्रकार मनुष्य अपना काम निकल जाने पर व्यवहार
बदल लेता है।

 

प्रश्न- कवि रहीम ने रूठे लोगों को मनाने की
बात क्यों कही है?

उत्तर- कवि रहीम कहते हैं कि रुठे हुए सज्जन
व्यक्ति को मना लेना चाहिए। जिस प्रकार से हम मोतियों की माला के टूट जाने पर उसको
उन्हें माला में पिरो लेते हैं। उसी प्रकार से रुठे हुए सज्जन भी मोतियों के समान
है। अतः उन्हें बार-बार  मनाते रहना चाहिए।

 

प्रश्न- रहीम ने उत्तम प्रकृति के मनुष्य की
क्या पहचान बताई है?

उत्तर- कवि रहीम कहते हैं कि उत्तम प्रकृति के
व्यक्ति पर कुसंग का प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि ऐसे व्यक्तियों का चरित्र विकारहीन
होता है। कवि ने चंदन के वृक्ष का उदाहरण देते हुए बताया है कि उस पर काले जहरीले
साँप लिपटे रहते हैं किंतु उस पर जहर का कोई असर नहीं पड़ता।

 

प्रश्न- कवि रहीम ने किसी व्यक्ति की पहचान का
क्या तरीका बताया है?

उत्तर- कवि रहीम व्यक्ति की पहचान का आधार
उसके वाणी-व्यवहार को बताया है। वे कहते हैं कि कौवा और कोयल दोनों दिखने में एक
जैसे होते हैं लेकिन उनके बोलने से ही पता चलता है कि कौन कोयल है और कौन कौवा।
इसी प्रकार से मनुष्य के वाणी-व्यवहार से ही पता चलता है कि कौन सज्जन है और कौन
दुर्जन।

 

प्रश्न- नीति काव्य के क्षेत्र में रहीम का
स्थान सर्वोपरि है। इस कथन की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- कवि रहीम को नीति संबंधी दोहों के कारण
विशेष ख्याति प्राप्त हुई है। उन्होंने अपने जीवन के विस्तृत अनुभवों को सरल एवं
सुबोध भाषा में व्यक्त किया है। कवि ने अपने निजी अनुभव के आधार पर काव्य रचना की
है। उनके दोहे निजी अनुभव पर आधारित हैं और समाज से जुड़े होने के कारण अधिक
मार्मिक और प्रभावी बन पड़े हैं।

 

बिहारी सतसई के कुछ पद: बिहारी

 

प्रश्न- बिहारी किस काल और किस काव्य धारा के
कवि थे?

उत्तर- बिहारी रीतिकाल के शृंगारी कवि थे। आप
रीतिसिद्ध काव्यधारा के प्रमुख कवियों में गिने जाते हैं।

 

प्रश्न- समान आभा के कारण नजर न आने वाले
नायिका के आभूषणों की पहचान किससे होती है?

उत्तर- नायिका के आभूषणों को स्पर्श करके उनकी
कठोरता से ही उनकी पहचान की जा सकती है।

 

प्रश्न- कवि बिहारी ने यमुना तट की क्या
विशेषताएँ बताई हैं?

उत्तर- कवि बिहारी ने बताया है कि यमुना के तट
पर पहुँचने पर वृक्षों, लताओं और घने कुंजो को सुखदायी, शीतल और सुगंधित पवन से
व्यक्ति के तन मन को सुख मिलता है और उसे लगता है जैसे वह श्रीकृष्णकालीन ब्रज में
पहुँच गए हों।

 

प्रश्न- जगत् के चतुर चितेरे को भी मूढ़ बनना
पड़ा। बिहारी ने ऐसा क्यों कहा है?

उत्तर- नायिका का रूप सौंदर्य प्रतिपल बदल रहा
था। चित्रकार के लिए गतिमान और परिवर्तनशील वस्तुओं का चित्र बनाना कठिन होता है
क्योंकि स्थिर वस्तु का ही चित्र सही ढंग से बनता है। नायिका के गतिशील रूप
सौंदर्य का चित्र न बना सकने से कवि ने चतुर चित्रकार को भी मूढ़ बताया है।
क्षण-क्षण में नयापन रखने वाले का चित्र कोई नहीं बना सकता है।

 

प्रश्न- ज्यों-ज्यों बूड़े स्याम रंग,
त्यों-त्यों उज्जलु होई। अनुरागी चित्त की इस गति का क्या रहस्य है?

उत्तर- कवि बिहारी ने प्रेम में डूबे व्यक्ति
की गति विचित्र बताई है।  क्योंकि सामान्य
रूप से कोई वस्तु काले रंग में डूबने पर काली हो जाती है परंतु कृष्ण प्रेम में
डूबे चित्त की दशा ठीक इसके विपरीत होती है। वह ज्यों-ज्यों साँवले रंग के कृष्ण
के प्रेम में डूबता है त्यों-त्यों उसकी स्थिति और अधिक उज्ज्वल और निर्मल हो जाती
है अर्थात कृष्ण से प्रेमाभक्ति रखने वाला अवगुणी व्यक्ति भी उज्ज्वल चरित्र वाला
बन जाता है। विरोधाभास अलंकार के कारण से इस पद में अर्थगत चमत्कार पैदा हुआ है।

 

वीर रस के कवित्त: भूषण

 

प्रश्न- भूषण के संकलित छंदों में कौनसा रस और
गुण है?

उत्तर- कवि भूषण के संकलित छंदों में वीर रस
और ओज गुण है।

 

प्रश्न- भूषण की किन्हीं दो रचनाओं के नाम
लिखिए।

उत्तर- भूषण की रचनाओं के नाम निम्न हैं-  शिवराजभूषण, छत्रसालदशक, शिवाबावनी, भूषणहजारा
और भूषण उल्लास

 

प्रश्न- तेरे हीं भुजानि जानी पर भूतल को भार
है। कवित्त में कवि द्वारा शिवाजी की क्या विशेषता बताई गई है?

उत्तर- कवित्त में कवि भूषण ने प्रशंसा भरे
वचनों में बताया है कि उचित शासन व्यवस्था एवं प्रजापालन का भारवहन करने में
शिवाजी शेषनाग और हिमालय के समान हैं। मानव का भरण पोषण करने के लिए ही धरती पर उनका
जन्म हुआ है। शिवाजी अपनी प्रजा का हित साधने में जहाँ सर्वसमर्थ हैं वहीं शत्रुओं
का संहार करने में भी वे यमराज के समान हैं। इस प्रकार शिवाजी को प्रजापालन में
विशेष दक्ष बताया गया है।

 

प्रश्न- पाठ्यक्रम में सम्मिलित अंश के आधार
पर सिद्ध कीजिए कि भूषण वीर रस के कवि थे।

उत्तर- हिंदी साहित्य इतिहास के रीतिकाल में
महाकवि भूषण वीर रस की कविता रचने वाले अद्वितीय कवि थे। वैसे तो ‘शिवराजभूषण‘ में
भूषण ने सभी रसों का वर्णन किया है परंतु भूषण का मन वीर रस के वर्णन में विशेष
रूप से रमा रहा है। उन्होंने शिवाजी और छत्रसाल की वीरता एवं पराक्रम का अत्यंत
ओजस्वी वर्णन किया है। वे इन दोनों के आश्रय में रहे और इनकी वीरता के प्रशंसक भी।
उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ‘आन राव राजा एक मन में लाऊँ अब, साहू को सराहौं के अब
सराहौं छत्रसाल को‘ रीतिकाल के कवि राजाओं की झूठी प्रशंसा करते थे परंतु भूषण
उनसे भिन्न हैं। उन्होंने हिंदू राष्ट्रीयता की रक्षा करने वाले, अन्याय का सामना
करने वाले  एवं मुगल बादशाहों का सामना
करने वाले महाराजा शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णन किया है। इसीलिए भूषण को
वीर रस का अप्रतिम कवि माना जाता है।

 

कविता- उषा

रचनाकार- शमशेर बहादुर सिंह

 

प्रश्न- उषा कविता में किस समय का वर्णन
प्राप्त होता है?

उत्तर- उषा कविता में सूर्योदय के समय का
वर्णन मिलता है।

प्रश्न- लाल केसर तथा लाल खड़िया चाक के माध्यम
से कवि क्या कहना चाहता है?

उत्तर- उषा काल में जब धुँधले आसमान में सूर्य
की हल्की लाल किरणें फैलने लगती हैं तो उसके लिए कवि ने लाल केसर का फैलना बताया
है। कुछ क्षण बाद जब आकाश राख के रंग का लगता है तब सूर्य की लाल किरणें कुछ अधिक
उभरने लगती हैं। इसी दृश्य को कवि ने लाल खड़िया चाक को आकाश रूपी स्लेट पर मसलने
जैसा बताया है। इस प्रकार कवि ने भोर की लालिमा का चित्रण किया है।

प्रश्न- उषा कविता की प्रमुख शिल्प गत
विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर- उषा कविता की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं
कि इसमें कवि ने परंपरा से हटकर नवीन उपमानों का प्रयोग कर पाठकों का रुझान
प्रकृति की तरफ किया है। श्लेष एवं उपमा अलंकार के द्वारा उषाकाल के आकाश एवं
चारों तरफ के आकर्षक एवं मनमोहक दृश्य सुंदर शब्द चित्रों के माध्यम से उकेरे गए
हैं। शब्दावली अत्यंत सरल, सुबोध, लघु आकार की एवं भावानुरूप प्रयुक्त हुई है।
बिम्ब योजना और शब्द-चित्र इसकी  विशेषताएँ
हैं।

 

प्रश्न- शमशेर बहादुर सिंह की उषा कविता का
प्रकृति चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।

उत्तर- कवि अपनी छोटी सी कविता के माध्यम से
कहता है कि भोर होने को है। गहरा नीला आकाश एक विशालकाय नीले शंख जैसा प्रतीत हो
रहा है। नीले आकाश में भोर का धुँधला प्रकाश ऐसा लग रहा है जैसे वह राख से लीपा
गया गीला चौका हो। यह आकाश एक विशाल काली सिल के समान है जिसे केसर से धो दिया गया
हो। नीले आसमान में उषा की यह लालिमा इस प्रकार लगती है मानो स्लेट पर लाल खड़िया
चाक मल दिया गया हो। यह नीले जल में झिलमिलाता हुआ किसी रमणी की गौर वर्ण शरीर
जैसा है जो लहरों के जल में खिलता हुआ सा दिखाई दे रहा है और इसी के साथ ही सूर्य
का उदय हो रहा है। सूर्य के उदय के साथ-साथ भोर का यह मनमोहक दृश्य लुप्त होता जा
रहा है।

 

प्रश्न- उषा कविता में कवि का संदेश क्या है?

उत्तर- उषा कविता में कवि शमशेर बहादुर सिंह
ने यह संदेश व्यक्त किया है कि प्रातः काल प्राकृतिक परिवेश में जिस प्रकार
गतिशीलता और जीवंतता आ जाती है उसी प्रकार हमें भी अपने जीवन को गतिशील एवं जीवंत
रखना चाहिए। हमें प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। हमें आलस्य में नहीं पड़ना
चाहिए। हमें अपने उत्थान के लिए प्रयास करते रहना चाहिए और खुशियों से पुलकित रहना
चाहिए।


पाठ्यपुस्तक सृजन का गद्य खंड

 

पाठ का नाम- भय

लेखक- आचार्य रामचंद्र शुक्ल

 

प्रश्न- भय किस प्रकार का संवेग है?

उत्तर- भय दुःखात्मक संवर्ग का भाव है।भय
क्रोध का विपरीत मनोविकार है। इसमें दुःख से बचने की अथवा उससे होने वाली हानि से
दूर रहने की भावना बनती है।

 

प्रश्न- भय के कितने रूप होते हैं?

उत्तर- भय के दो रूप होते हैं- पहला असाध्य और
दूसरा साध्य। जिसका निवारण संभव न हो उसे असाध्य कहते हैं तथा जिसे प्रयास से दूर
किया जा सकता है वह भय का साध्य रूप कहलाता है।

 

प्रश्न- साहसी व्यक्ति कठिनाई में फँस जाने पर
क्या करता है?

उत्तर- साहसी व्यक्ति कठिनाई में फँस जाने पर
पहले तो जल्दी ही घबराता नहीं और घबराता भी है तो जल्द ही संभलकर अपने बचाव कार्य
में लग जाता है।

प्रश्न- भीरुता की उत्पत्ति का मूल कारण क्या
है?

उत्तर- कष्ट सहन करने की क्षमता न होने तथा
अपनी शक्ति से कलह को दूर करने का आत्मविश्वास न होने से भय या भीरुता की उत्पत्ति
होती है।

 

प्रश्न- आशंका और भय में अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- दुःख या आपत्ति का पूर्ण निश्चय न रहने
पर उसकी संभावना मात्र के अनुमान से जो आवेग-शून्य भय होता है, उसे आशंका कहते
हैं। मसलन एक घने जंगल में पैदल चलने वाला यात्री इस आशंका में रहता है कि कहीं
कोई चीता न मिल जाए, फिर भी वह चलता रहता है। यदि उसे आवेगपूर्ण स्थिति में असली
भय हो जाएगा, तो फिर वह जंगल में एक कदम भी नहीं रखेगा। इस प्रकार आशंका से स्तम्भकारक
स्थिति अल्पकालिक या कुछ देर के लिए होती है, जबकि भय में वह दीर्घकालिक या पूर्ण
रूप से बनी रहती है।

 

प्रश्न- सभ्य और असभ्य प्राणियों के भय में
क्या अंतर है?

उत्तर- सभ्य समाज में भय के कारण लोग उतने
नहीं घबराते जितने कि असभ्य लोग घबराते हैं। असभ्य प्राणी भय के कारणों से सदैव
अपनी रक्षा के लिए चिंतित रहता है। इसी कारण जंगली और असभ्य जातियों में भय अधिक
होता है। इसके विपरीत सभ्य लोग भय से इतने भयभीत नहीं होते जिनते कि असभ्य लोग।
सभ्य लोग अपनी बुद्धि के बल पर भय के कारणों का समाधान खोज लेते हैं। इस तरह सभ्य
और असभ्य प्राणियों की भय में काफी अंतर है।

प्रश्न- सभ्यता का विकास होने से पूर्व मनुष्य
का भय किस प्रकार का था जो अब नहीं है? इस संबंध में आपका क्या कहना है?

उत्तर- सभ्यता का विकास होने से पूर्व मनुष्य
का भय वर्तमान के भय से भिन्न प्रकार का था। उस समय लोग भूत-प्रेत, जंगली और हिंसक
पशुओं से अधिक भयभीत रहते थे जबकि वर्तमान समय में मनुष्य को मनुष्य से ही भय है।
झूठे गवाह पेश करके मुकदमा जीत लेना, कानून की आड़ से दूसरों की संपत्ति हथिया
लेना, कमजोर लोगों के खेत-खलिहान, घर, रुपए-पैसे जबरन छीन लेना ये सब वर्तमान समय
के भय हैं।

 

पाठ- बाजार दर्शन

लेखक- जैनेंद्र

 

प्रश्न- लेखक के अनुसार बाजार का जादू किस राह
से काम करता है?

उत्तर- लेखक के अनुसार बाजार का जादू आँख की
राह से काम करता है।

 

प्रश्न- पैसे की पर्चेजिंग-पावर से क्या आशय
है?

उत्तर- पैसे की पर्चेजिंग पावर से आशय है-
पैसे की क्रय शक्ति या पैसे की प्रचुरता से मनचाही वस्तुएँ खरीदने की क्षमता।

 

प्रश्न- हमें बाजार से वस्तुएँ खरीदते समय
किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

उत्तर- बाजार दर्शन पाठ के अनुसार बाजार से
वस्तुएँ खरीदते समय मन भरा होना चाहिए। उस समय मन पर नियंत्रण रखना चाहिए।
क्रय-शक्ति होने पर भी लालच नहीं रखना चाहिए और बाजार की चकाचौंध से आकर्षित होने
से भी बचना चाहिए। केवल उपयोगी एवं आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदने का दृढ़ निश्चय करना
चाहिए। लालच से या व्यर्थ की लालसा से सर्वथा मुक्त रहना चाहिए। विवेक और पर्चेजिंग-पावर
का सदुपयोग करना चाहिए।

 

प्रश्न- बाजारूपन से क्या आशय है? किस प्रकार
के व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाजार की सार्थकता किसमें है?

उत्तर- बाजारूपन का आशय है ऊपरी चमक-दमक और
कोरा दिखावा। जब व्यापारी बेकार की वस्तुओं को आकर्षित बना कर ग्राहकों को ठगने
लगता है तो वहाँ बाजारूपन हावी हो जाता है। ग्राहक भी जब क्रय-शक्ति के गर्व में
अपने पैसे से अनावश्यक चीजों को खरीद कर विनाशक शैतानी-शक्ति को बढ़ावा देता है तो
बाजारूपन हावी हो जाता है। परंतु जो लोग बाजार की चकाचौंध में न आकर अपनी आवश्यकता
की ही वस्तुएँ खरीदते हैं वे बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं मनुष्य की
आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही बाजार का कार्य है और उसी में उसकी सार्थकता है।

 

प्रश्न- लेखक ने किस अर्थशास्त्र को मायावी
तथा अनीतिशास्त्र कहा है?

उत्तर- धन एवं व्यवसाय में उचित संतुलन रखने
और विक्रय, लाभ आदि में मानवीय दृष्टिकोण रखने से अर्थशास्त्र को उपयोगी माना जाता
है परंतु जब बाजार का लक्ष्य अपने स्वार्थ में अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने और
तरह-तरह के विज्ञापन द्वारा ग्राहकों को ठगने और उनके साथ कपट भरा आचरण करने का हो
जाता है तब लेखक ने उस अर्थशास्त्र को मायावी और अनीतिशास्त्र कहा है।

 

प्रश्न- बाजार दर्शन निबंध का प्रतिपाद्य या
संदेश स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- बाजार दर्शन निबंध में लेखक ने आधुनिक
काल के बाजारवाद और उपभोक्तावाद का चिंतन कर इसके मूल तत्त्व को समझाने का प्रयास
किया है। इसका संदेश यह है कि व्यक्ति को बाजार के आकर्षण से बचना चाहिए। अपनी
पर्चेजिंग पावर का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए तथा बाजार जाने से पहले अपनी
आवश्यकताओं की पहचान कर लेनी चाहिए तथा जरूरत की वस्तुओं को तय कर लेना चाहिए। तभी
उसे बाजार का लाभ मिल पाएगा और बाजार की सार्थकता सिद्ध होगी।

 

पाठ- ठेले पर हिमालय(निबंध)

लेखक- धर्मवीर भारती।

 

प्रश्न- लेखक की सारी खिन्नता व चिंता कब दूर
हो गई?

उत्तर- कौसानी पहुँचने पर हिमालय की शुभ्र-हिम
दर्शन से लेखक की सारी खिन्नता व निराशा दूर हो गई।

 

प्रश्न- त्रिताप कौन-कौन से होते हैं? हिमालय
की शीतलता से वे कैसे दूर हो गए?

उत्तर- धर्म शास्त्रों में दैहिक, दैविक और
भौतिक कष्टों के ताप को त्रिताप कहा गया है। ये त्रिताप सांसारिक मनुष्य को कष्ट
देते हैं तथा ईश्वर की कृपा भक्ति से उनसे शांति मिलती है। लेखक को जब हिमालय के
दर्शन हुए तो उनके मन की खिन्नता, शारीरिक थकान, सारे संघर्ष एवं अंतर्द्वंद्व सब
एक साथ जैसे नष्ट हो गये। इस प्रकार हिमालय की शीतलता, पवित्रता और शांति से लेखक
की सारी खिन्नता दूर हो गई और वह अब एकदम ताजगी महसूस कर रहे थे।

 

प्रश्न- कौसानी के प्राकृतिक सौंदर्य को लेकर
लेखक ने क्या सुना था?

उत्तर- लेखक ने अनेक लोगों से सुना था कि
कौसानी में अतुलित प्राकृतिक सौंदर्य है। उनके एक सहयोगी ने कहा था कि कश्मीर के
मुकाबले उन्हें कौसानी अधिक आकर्षक लगा। गाँधीजी ने यहीं पर अनासक्ति योग लिखा था
और कहा था कि कौसानी में स्विट्जरलैंड का आभास होता है। कौसानी सोमेश्वर घाटी की
ऊँची पर्वतमाला के शिखर पर स्थित सुंदर पर्वतीय स्थल है वह पर्यटकों को अत्यधिक
आकर्षित करता है।

 

प्रश्न- बिलकुल ठगे गए हम लोग। लेखक को ऐसा
क्यों लगा कि वह ठगे गए?

उत्तर- बस कौसानी के अड्डे पर रुकी। यह एक
छोटा और उजड़ा-सा गाँव था। वहाँ बर्फ का नामोनिशान भी नहीं था। लेखक बर्फ को निकट
से देखने की इरादे से कौसानी गया था। उसने कौसानी की बहुत तारीफ सुनी थी। अतः लेखक
को लगा कि लोगों की बातों पर विश्वास करके गलती की। उसके अनुसार वह बुरी तरह ठगा
गया था।

 

प्रश्न- और यकीन कीजिए इसे बिलकुल ढूंढना नहीं
पड़ा, बैठे-बैठे मिल गया। लेखक धर्मवीर भारती ने किसके बारे में कहा है?

उत्तर- लेखक धर्मवीर भारती ने यह बात अपने
निबंध ‘ठेले पर हिमालय‘ की शीर्षक के बारे में कही है। लेखक अपने गुरुजन
उपन्यासकार मित्र के साथ पान की दुकान पर खड़ा था। वहाँ एक बर्फ वाला ठेले पर बर्फ
की सिल्लियाँ लादकर लाया। उसे देखकर मित्र बोले यह  बर्फ तो हिमालय की शोभा है। सुनते ही लेखक ने
अपने लेख का शीर्षक ‘ठेले पर हिमालय‘ रख दिया।

 

प्रश्न- कौसानी जाते समय लेखक के चेहरे पर
अधैर्य, असंतोष एवं क्षोभ क्यों झलक उठा?

उत्तर- लेखक को बताया गया था कि कौसानी बहुत
ही सुंदर स्थान है। लेकिन कष्टप्रद, टेढ़ी-मेढ़ी सड़क देखकर और बर्फ का नामोनिशान न
पाकर लेखक के मन में अधैर्य, असंतोष और क्षोभ पैदा हो गया।

 

प्रश्न- पर्यटन का हमारे जीवन में क्या
महत्त्व है?

उत्तर- पर्यटन का आशय भ्रमण करने या स्वेच्छा
से कहीं भी सैर करने जाने से है। मानव की जिज्ञासा, महत्त्वाकांक्षा,
सौंदर्य-प्रियता, ज्ञानार्जन की आदत उसमें पर्यटन की रुचि जागृत करती है। पर्यटन
धार्मिक, ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक दृष्टि से प्रसिद्ध स्थानों का किया जाता है।
शैक्षिक दृष्टि से भी पर्यटन का विशेष महत्त्व है। लोगों के मुख से किसी स्थान की
विशेषता सुन लेने या पुस्तकों को पढ़ने से उस स्थान की पूरी जानकारी नहीं मिल पाती
है परंतु वहां भ्रमण करने से, अपनी आँखों से सारे स्थानों पर घूमने से उसका
सर्वांगीण ज्ञान हो जाता है, जो सदा-सदा के लिए मन में अंकित हो जाता है। इस
प्रकार पर्यटन का हमारे जीवन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। पर्यटन से ज्ञान की
प्राप्ति होती है। पर्यटन आनंदवर्द्धक एवं मनोरंजक भी होता है। शरीर में
चुस्ती-फुर्ती आ जाती है। जीवन के अनुभव बढ़ते हैं। लोगों से मेलजोल बढ़ता है और
अनेक स्थानों की परंपराओं, खानपान, वाणी-व्यवहार का पता चलता है। पर्यटन से
व्यवसाय-व्यापार भी बढ़ता है। पर्यटन स्थलों का विकास भी होता है तथा जलवायु
परिवर्तन एवं पर्यावरण की जानकारी मिलती है। इस प्रकार पर्यटन का मानव जीवन में
अत्यधिक महत्त्व है।

 

पाठ- तौलिए(एकांकी)

लेखक- उपेंद्रनाथ अश्क

 

प्रश्न- चूहासैदन शाह के लोगों की तंदुरुस्ती
का राज क्या था?

उत्तर- डॉक्टरों के अनुसार चूहासैदन शाह के एक
जाट के रक्त का परीक्षण किया था। उन्हें मालूम हुआ कि वहाँ के लोगों के रक्त में
रोग का मुकाबला करने वालों की लाल कीटाणु अधिक मात्रा में हैं। ये लोग दही और
लस्सी का प्रयोग अधिक करते हैं। दही में भी बहुत-सी बीमारियों के कीटाणुओं को
मारने की शक्ति होती है। रोगों को रोकने की शक्ति होने से चूहासैदन शाह के लोग
तंदुरुस्त रहते थे।

 

प्रश्न- तौलिए एकांकी में आधुनिक जीवन की किन
विसंगतियों का चित्रण हुआ है?

उत्तर- एकांकी में आधुनिक शहरी मध्यवर्गीय
सभ्य और शिक्षित कहलाने वाले समाज की अडम्बरप्रियता, अनुकरण की प्रवृत्ति, स्वयं
को सब कुछ अधिक मानने की प्रवृत्ति तथा कृत्रिम दिखावे की आदत आदि विसंगतियों का
चित्रण किया गया है। इस तरह की प्रवृत्तियों से उनके पारिवारिक रिश्तों में
प्रगाढ़ता एवं आत्मीयता नहीं रहती है। फलस्वरूप सहजता और सरलता से जीवन जीने की
आनंद लुप्त हो जाता है। एकांकी में इन्हीं विसंगतियों का चित्रण किया गया है।

प्रश्न- तौलिए एकांकी के उद्देश्य पर प्रकाश
डालिए।

उत्तर-
तौलिए एकांकी में मध्यमवर्गीय परिवारों में तथाकथित सभ्यता एवं सुरुचि के नाम पर
जो सिद्धांत गढ़े जाते हैं और आडंबर और दिखावे की प्रवृत्ति बन रही है। उस पर सशक्त
व्यंग्य किया गया है। सफाई रखना अच्छा गुण है किंतु स्वच्छता के प्रति सनक सवार
होना भी ठीक नहीं है क्योंकि इससे परिवार में अशांति रहती है।


पाठ- ममता(कहानी)

 

लेखक- जयशंकर प्रसाद

छायावादी काव्यधारा के प्रमुख कवि। ऐतिहासिक
उपन्यास, नाटक, निबंध एवं कहानियों के लेखक।

 

प्रश्न- ममता ने स्वर्ण मुद्राओं का उपहार
लेने से मना क्यों कर दिया था?

उत्तर- ममता संतोषी और त्यागी स्वभाव की थी।
उसमें जरा भी लोभ-लालच नहीं था। उसके पिता जो स्वर्ण मुद्राएं लाए थे, वे विधर्मी
से रिश्वत रूप में ली गई थी। उसे म्लेच्छ से उत्कोच कदापि स्वीकार नहीं था। वह
मानती थी कि विपत्ति आने पर ब्राह्मण होने के नाते अन्य लोग उनकी सहायता अवश्य
करेंगे। अतः भावी विपदा की आशंका से घूस लेना अनुचित मानकर ममता ने स्वर्ण
मुद्राएं लेने से मना कर दिया था।

 

प्रश्न- ममता कहानी में भारतीय संस्कृति के
किन-किन मूल्यों को उभारा गया है?

उत्तर- ममता कहानी के माध्यम से भारतीय
संस्कृति के निम्न मूल्यों पर  प्रकाश डाला
गया है-

·       शरणागत
की सहायता करनी चाहिए।

·       विपदा
ग्रस्त व्यक्ति को आश्रय देना मानव का कर्तव्य है।

·       किसी
भी हालत में उत्कोच या रिश्वत नहीं लेनी चाहिए।

·       त्याग,
संतोष, निर्लोभ, सहनशीलता आदि गुणों को अपनाना चाहिए।

·       कृतज्ञता
एवं मानवता को परम धर्म मानना चाहिए।

·       दीन-दुःखियों
पर दया करनी चाहिए।

 

प्रश्न- ममता की झोपड़ी की स्थान पर किस बादशाह
ने अष्टकोण मंदिर बनवाया था?

उत्तर- ममता की झोपड़ी के स्थान पर मुगल बादशाह
अकबर ने अष्टकोण मंदिर का निर्माण करवाया था।

 

प्रश्न- मंत्री चूड़ामणि ने किस आशय से उत्कोच
स्वीकार किया था?

उत्तर- मंत्री चूड़ामणि को जवानी में विधवा हुई
पुत्री ममता की चिंता थी। चूड़ामणि वृद्ध था और वह ममता को भविष्य में बेसहारा होने
पर भी सुख-सुविधा मिले, इसके लिए धन संचित करना चाहता था। उसे ज्ञात था कि रोहतास
दुर्ग का सामंत कमजोर है और उसका शीघ्र ही पतन हो सकता है और शेरशाह उस पर अधिकार
कर सकता है। तब न उसका मंत्री पद रहेगा और न जीवन। ऐसी दशा में ममता सुखी रहें इसी
आशय से उन्होंने उत्कोच लिया था।

 

प्रश्न- ममता कहानी में जयशंकर प्रसाद ने
भारतीय नारी के किन गुणों का चित्रण किया है?

उत्तर- ममता कहानी में जयशंकर प्रसाद में
भारतीय नारी के विविध गुणों का चित्रण किया है। ममता के माध्यम से भारतीय नारी को
त्याग, स्वाभिमान, जातीय गौरव, जातीय संस्कार, 
सेवाभाव, देशप्रेम, कष्ट-सहिष्णुता और नैतिक आचरण के साथ ही अतिथि सेवा तथा
शरणागत सुरक्षा जैसे गुणों से मंडित बताया गया है। प्रसाद ने भारतीय नारी में
जातीय स्वाभिमान, कर्तव्य निष्ठा एवं आस्तिक भावना आदि गुणों का चित्रण किया है।

 

भाषा, लिपि और व्याकरण संबंधी प्रश्न-

 

प्रश्न- भाषा से आप क्या समझते हैं?

उत्तर- मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के
विषय में अपनी इच्छा और विचारों के आदान-प्रदान के लिए काम में लिए जाने वाले
ध्वनि संकेत ही भाषा कहलाते हैं। इसमें साहित्य रचना भी होती है।

 

प्रश्न- बोली किसे कहते हैं?

उत्तर- बोली भाषा का वह रूप है जिसका व्यवहार
बहुत ही सीमित क्षेत्र में होता है। भाषा का यह रूप मूलतः भूगोल पर आधारित होता
है। यह साहित्यिक नहीं होती।

 

प्रश्न- विभाषा से आप क्या समझते हैं?

उत्तर- विभाषा का क्षेत्र बोली से थोड़ा
विस्तृत तथा भाषा से थोड़ा कम होता है। यह एक प्रांत या उपप्रांत में प्रचलित होती
है। वस्तुतः जब कोई बोली अपना क्षेत्र विस्तृत कर परिष्कृत हो जाती है और एक बड़े
क्षेत्र के निवासियों द्वारा बोली जाने लगती है तो वह विभाषा कहलाती है। इसमें
अल्प मात्रा में साहित्य रचना भी होती है।

 

प्रश्न- भाषा के कितने रूप होते हैं?

उत्तर- भाषा की दो रूप माने जाते हैं- लिखित
एवं मौखिक। भाषा का एक और रूप भी देखने में आता है जिसे सांकेतिक कहा जाता है।

 

प्रश्न- भाषा के किस रूप में समाज की
संस्कृति, इतिहास व साहित्य सुरक्षित रहते हैं?

उत्तर- किसी भी भाषा के दो स्वरूप होते हैं
लिखित एवं मौखिक। मूल रूप से तो भाषा का लिखित रूप ही समाज की संस्कृति, इतिहास व
साहित्य का संरक्षक होता है लेकिन हमने देखा है कि वाचिक या मौखिक रूप से भी
संस्कृति, इतिहास एवं साहित्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित हुए हैं।

 

प्रश्न- लिपि किसे कहते हैं? हिंदी की लिपि
कौनसी है?

उत्तर- भाषा के लिखित रूप को ही लिपि कहा जाता
है अर्थात भाषा के ध्वनि संकेतों को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त होने वाले प्रतीक
चिह्न ही लिपि है। हिंदी भाषा की लिपि का नाम देवनागरी है।

 

प्रश्न- देवनागरी लिपि की प्रमुख विशेषताएँ
बताइए।

उत्तर- देवनागरी एक आदर्श एवं वैज्ञानिक लिपि
है। एक आदर्श एवं वैज्ञानिक सहज रूप में देखी जाने वाली समस्त विशेषताएँ देवनागरी
में दृष्टिगत होती हैंय यथा-

·        ध्वनि के अनुरूप चिह्नों के नाम।

·       एक
ध्वनि के लिए एक चिह्न। क्, च्, ट् इत्यादि

·       लिपि
चिह्नों की पर्याप्त संख्या।

·       लघु
एवं दीर्घ स्वरों के लिए स्वतंत्र चिह्न।

·       सुंदर
एवं कलात्मक लेखन।

 

प्रश्न- भारत की प्राचीन लिपियाँ कौन-कौन सी
हैं?

उत्तर- प्राचीन भारत में मुख्यतः दो लिपियाँ
प्रचलित थीं-  ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपि।

 

प्रश्न- भारत की प्राचीन लिपियों के बारे में
लिखिए।

उत्तर- ब्राह्मी लिपि- यह लिपि भारत की व्यापक
एवं श्रेष्ठ लिपि मानी जाती है। यह बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। खरोष्ठी लिपि- यह
लिपि विदेश से भारत आई थी। यह ईरान से पश्चिमोत्तर के रास्ते भारत आई। यह दाएँ से
बाएँ लिखी जाती है। इसमें 5 स्वर एवं 32 व्यंजन अर्थात कुल 37 वर्ण हैं। इस लिपि
के अक्षर खर अर्थात गधे के ओष्ठों के समान बेढ़ंगे होने के कारण इसका नाम खरोष्ठी
पड़ा। एक अन्य मत के अनुसार गधे की खाल पर लिखे जाने के कारण इसे खरपोश्त
(खर-पृष्ठ) कहा जाता था इसी का अपभ्रंश खरोष्ठ एवं खरोष्ठी के रूप में हुआ।

 

प्रश्न- व्याकरण किसे कहते हैं?

उत्तर- व्याकरण नियमों का वह शास्त्र है जिसके
द्वारा भाषा को शुद्ध बोलने व लिखने का ज्ञान प्राप्त होता है।

 

प्रश्न- व्याकरण किसे कहते हैं?

उत्तर- व्याकरण वह शास्त्र है जो हमें किसी
भाषा के शुद्ध रूप को लिखने और बोलने की नियमों का ज्ञान करवाता है। व्याकरण के
नियमों से भाषा में स्थिरता आती है। नियमों की स्थिरता से भाषा में एक प्रकार की
मानकता स्थापित होती है। यही मानकता भाषा को परिनिष्ठित एवं परिष्कृत रूप प्रदान
करती है। अतः व्याकरण ही ऐसा शास्त्र है जो भाषा को सर्वमान्य, शिष्ट-सम्मत एवं
स्थायी रूप प्रदान करता है।

 

प्रश्न- भाषा के किस रूप में व्याकरण सम्मतता
की संभावना रहती है?

उत्तर- भाषा के दो रूप प्रयुक्त होते हैं-
लिखित और मौखिक। दोनों ही रूप व्याकरण के नियमों से अनुशासित होते हैं परंतु मौखिक
रूप में व्याकरण का अनुशासन थोड़ा कम होता है। व्यक्ति धाराप्रवाह बोलता है अतः
व्याकरण के नियमों का उल्लंघन स्वाभाविक हो जाता है। लिखित रूप में भाषा का प्रयोग
एक विचार के साथ होता है। लेखक के पास समय भी होता है। शीघ्रता अपनाना आवश्यक नहीं
होता और सबसे खास बात लेखन के बाद संशोधन की गुंजाइश भी बनी रहती है। अतः लिखित
रूप अधिक व्याकरण सम्मत होता है।

 

प्रश्न- भाषा और व्याकरण का संबंध बताइए।

उत्तर- व्याकरण भाषा की वर्तनी को निश्चित रूप
प्रदान करता है अर्थात जो भाषा मानक रूप में प्रयुक्त होती है उसके वर्णो,
व्यंजनों, शब्दों एवं वाक्यों का विवेचन एवं प्रतिपादन व्याकरण के द्वारा ही होता
है। अतः वाचिक माध्यम भाषा को बोलने लिखने में नियमों से साधने वाली वर्तनी को
व्याकरण कहते हैं। स्पष्ट रूप से व्याकरण भाषा के स्वरूप को नियंत्रित करती है उसे
शुद्ध रूप प्रदान करती है। व्याकरण के अभाव में भाषा का परिष्कार नहीं हो पाता।

 

प्रश्न- व्याकरण के प्रमुख अंगो का परिचय
दीजिए।

उत्तर- व्याकरण के मुख्य रूप से चार अंग होते
हैं-

1.     वर्ण
विचार- इसके अंतर्गत वर्णों से संबंधित उनके आकार, उच्चारण, वर्गीकरण एवं उनके मेल
से शब्द निर्माण प्रक्रिया का ज्ञान होता है।

2.     शब्द
विचार- इसमें शब्द के भेद उत्पत्ति, व्युत्पत्ति एवं रचना के साथ-साथ शब्दों के
प्रकारों का ज्ञान होता है।

3.     पद
विचार- इसमें शब्द से पद निर्माण की प्रक्रिया और पदों के विविध रूपों का वर्णन
प्राप्त होता है।

4.     वाक्य
विचार- इसके अंतर्गत वाक्य से संबंधित उसके भेद, अन्वय, विश्लेषण, संश्लेषण, रचना एवं
वाक्य निर्माण प्रक्रिया की जानकारी प्राप्त होती है।

 

प्रश्न- भाषा की प्रमुख इकाइयों का परिचय
दीजिए।

उत्तर- भाषा की निम्न इकाइयाँ होती हैं-

1.     ध्वनि-
हमारे मुख से निकलने वाली प्रत्येक आवाज ध्वनि कहलाती है।

2.     वर्ण-
वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई मानी जाती है।

3.     शब्द-
वर्णों के सार्थक समूह को शब्द कहते हैं।

4.     पद-
वाक्य में प्रयुक्त पद को शब्द कहा जाता है अर्थात जब कोई शब्द वाक्य में प्रयुक्त
होकर अन्य शब्दों के साथ अपना संबंध स्थापित कर लेता है तो वह पद कहलाता है।

वाक्य-
शब्दों के मेल से जब एक पूर्ण विचार प्रकट होता है तो वह शब्द समूह वाक्य कहलाता
है अर्थात शब्दों के सार्थक समूह को वाक्य कहते हैं।


<

p align=”center” style=”background: #FFD966; border: none; mso-background-themecolor: accent4; mso-background-themetint: 153; mso-border-bottom-alt: thick-thin-small-gap; mso-border-color-alt: red; mso-border-left-alt: thin-thick-small-gap; mso-border-right-alt: thick-thin-small-gap; mso-border-top-alt: thin-thick-small-gap; mso-border-width-alt: 3.75pt; mso-padding-alt: 1.0pt 4.0pt 1.0pt 4.0pt; padding: 0in; text-align: center;”>अलंकार संबंधी प्रश्नोत्तर-

 

प्रश्न- ‘काली घटा का घमंड घटा‘ पंक्ति में
कौन सा अलंकार है? समझाइए।

उत्तर- उक्त पंक्ति में यमक अलंकार है। जब
किसी पद में एक ही शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त हो और हर बार उसका अलग अर्थ ग्रहण
किया जाए तो वहाँ यमक अलंकार माना जाता है। प्रस्तुत पंक्ति में घटा शब्द दो बार
प्रयुक्त हुआ है और दोनों बार अलग-अलग अर्थ प्रकट हुए हैं। घटा- बादलीध्मेघमाला और
कम होना।

 

प्रश्न- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुष चून।।

प्रस्तुत पद में कौन सा अलंकार है, समझाइए।

उत्तर- प्रस्तुत पद में श्लेष अलंकार है। जब
कोई शब्द प्रसंग के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रकट करने लगता है तो वहाँ श्लेष अलंकार
माना जाता है। उक्त पद में पानी शब्द मोती, मनुष्य और चूने के संदर्भ में क्रम से
चमक, मान-सम्मान और जल के अर्थ को प्रकट कर रहा है।

 

प्रश्न- चरण धरत चिंता करत, भावत नींद न शोर।

सुवरण को ढूँढ़त फिरे, कवि, कामी अरु चोर।।

प्रस्तुत पद में अलंकार का व कारण बताइए।

उत्तर- उक्त पद में श्लेष अलंकार है जब किसी
पद में प्रयुक्त कोई एक शब्द संदर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रकट करने लगता है तो
वहाँ श्लेष अलंकार माना जाता है। प्रस्तुत पद में सुवरण शब्द कवि के संदर्भ में
सुंदर रचना, कामी पुरुष के संदर्भ में गौर वर्ण स्त्री और चोर के संदर्भ में
स्वर्ण या सोने के अर्थ की प्रतीति करवा रहा है। अतः यहाँ श्लेष अलंकार माना
जाएगा।

 

प्रश्न- जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सो।

वारै उजियारो करे, बाढ़े अंधेरो होय।।

प्रस्तुत पद अलंकार का प्रकार व कारण बताइए

उत्तर- प्रस्तुत पद में श्लेष अलंकार प्रयुक्त
हुआ है। जब किसी पद में कोई शब्द संदर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रकट करता है तो
वहाँ श्लेष अलंकार माना जाता है। उक्त पद में दीपक और कपूर में समानता बताते हुए
‘वारे‘ और ‘बाढ़े‘ शब्द के अर्थ दोनों के संदर्भ में अलग-अलग प्रकट हुए हैं। अतः
यहाँ श्लेष अलंकार माना जाएगा।

 

प्रश्न- ‘कोटि कुलिश सम वचन तुम्हारा‘ पद में
अलंकार और उसका कारण बताइए।

उत्तर- प्रस्तुत पद में उपमा अलंकार है। जब
किसी पद में किसी एक सामान्य पदार्थ को एक प्रसिद्ध पदार्थ के समान मान लिया जाता
है तो वहाँ उपमा अलंकार माना जाता है। प्रस्तुत पद में लक्ष्मण के वचनों को करोड़ों
पत्थरों के समान कठोर बताया गया है। अतः यहां उपमा अलंकार माना जाएगा।

 

प्रश्न- काम सा रूप, प्रताप दिनेश सा सोम सा
शील है, राम महीप का।

प्रस्तुत पद में अलंकार व उसका कारण बताइए।

उत्तर- प्रस्तुत पद में उपमा अलंकार है। जब
किसी साधारण चीज को किसी एक प्रसिद्ध पदार्थ के समान मान लिया जाता है तो वहाँ
उपमा अलंकार माना जाता है। उक्त पद में राम को कामदेव, सूर्य और चंद्रमा के समान
माना गया है। अतः उपमा अलंकार माना जाएगा।

 

प्रश्न- अरुण भए कोमल चरण, भूवि चलबे ते मानु।
प्रस्तुत पद में अलंकार और उसका कारण बताइए।

उत्तर- उक्त पद में उत्प्रेक्षा अलंकार
प्रयुक्त हुआ है। जब किसी पद में उपमेय उपमान को समान तो नहीं किंतु उपमेय में
उपमान की संभावना प्रकट की जाती है तो वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार माना जाता है।

 

प्रश्न- ‘तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए‘
प्रस्तुत पद में अलंकार का कारण प्रकार और कारण लिखिए।

उत्तर- प्रस्तुत पद में अनुप्रास अलंकार
प्रयुक्त हुआ है। जब किसी काव्य रचना में किसी एक ही वर्ण की एक निश्चित क्रम में
आवृत्ति होती है वहाँ अनुप्रास अलंकार माना जाता है।

 

प्रश्न- ‘सब जाति फटी दुःख की दुपटी, कपटी
रहें न जहँ एक‘ प्रस्तुत पद में कौनसा अलंकार प्रयुक्त हुआ है?

उत्तर- प्रस्तुत पद में अनुप्रास अलंकार
प्रयुक्त हुआ है। जब किसी काव्य रचना में किसी एक ही वर्ण की निश्चित क्रम में
आवृत्ति होती है तो वहाँ अनुप्रास अलंकार माना जाता है।

 

प्रश्न- पूत कपूत तो क्यों धन संचौ,

पूत सपूत तो क्यों धन संचौ?

पद में प्रयुक्त अलंकार और उसका कारण लिखिए।

उत्तर- विवेच्य पद में अनुप्रास अलंकार
प्रयुक्त हुआ है। जब किसी काव्य रचना में किसी एक ही वर्ण की एक निश्चित क्रम में
आवृत्ति होती है तो वहाँ अनुप्रास अलंकार माना जाता है। यह लाटानुप्रास का उदाहरण
है। जहाँ पूरे पद की जो की त्यों आवृत्ति होती है परंतु अर्थ में परिवर्तन नहीं
होता तो वहाँ लाटानुप्रास माना जाता है।


CLASS 12 HINDI SAHITYA RBSE ABHINAV SIR

CLASS 12 HINDI SAHITYA RBSE ABHINAV SIR

कक्षा 12

विषय- हिंदी साहित्य

तैयारकर्ता- अभिनव सरोवा (व्याख्याता हिंदी, राउमावि- पीथूसर, झुंझुनूं)

 

वैश्विक महामारी कोविड-19 के
चलते मार्च 2020 से विद्यालय बंद रहे हैं। ऐसे में कक्षा-कक्ष शिक्षण न हो पाने के
कारण बच्चे लगातार पढ़ाई से वंचित रहे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में माध्यमिक शिक्षा
बोर्ड राजस्थानए अजमेर द्वारा पाठ्यक्रम को संशोधित किया गया है। प्रश्न-पत्र का
पैटर्न भी बदला गया है। कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव इसमें किए गये हैं; जैसे उच्च
माध्यमिक परीक्षा में पहली बार बहुविकल्पात्मक ;अ, ब, स, द वाले प्रश्न शामिल किए
गए हैं।  इसके साथ ही आतंरिक विकल्प (अथवा
वाले) वाले प्रश्नों में भी पहली बार 2 की बजाय 3 विकल्प मिलेंगे। इस प्रश्न पत्र
को निम्न पाँच भागों में विभक्त किया गया है-

 

1.      खंड अ- इस
खंड में कुल 11 प्रश्न होंगे। पहले प्रश्न में बहुविकल्प वाले 20 प्रश्न किए
जाएँगे। प्रत्येक प्रश्न का अंकभार 1-1 होगा। इसमें भी 4 प्रश्न(i, ii, iii
और iv) हिंदी साहित्य के इतिहास के
आधुनिक काल से किए जाएँगे। उसके बाद 2 प्रश्न(v और vi)
काव्य-गुण से सम्बंधित होंगे। अगले 2 प्रश्न( vii और viii) छंद से और अंतिम 2 प्रश्न(ix और x) अलंकार से संबंधित होंगे।

इसी खंड में प्रश्न नम्बर 2 से
8 तक के प्रश्न अति लघूत्तरात्मक श्रेणी के होंगे। इसमें 3 प्रश्न क्रमशः
काव्य-गुण (2),  छंद (3) और
अलंकार(4) से संबंधित होंगे। उसके बाद के 2 प्रश्न(5 – 6) पाठ्यपुस्तक सरयू से
होंगे। जिनमें एक गद्य खंड से तो दूसरा पद्य खंड से होगा। आगे के 2 प्रश्न(7 – 8)
पूरक पाठ्यपुस्तक मन्दाकिनी से होंगे। इसी खंड में 3 और प्रश्न (9, 10
& 11) भी पूछे जाएँगे जिनमें रिक्त स्थान की पूर्ति करवाई
जाएगी।  इस 3 प्रश्नों में एक प्रश्न
काव्य(गुण) दूसरा छंद और तीसरा अलंकार से संबंधित होगा। इस प्रकार प्रश्न-पत्र के
11 प्रश्नों की प्रकृत्ति के बारे में हम जाने चुके हैं। अब आगे के प्रश्नों के
विषय में जानने का प्रयास करते हैं।

2.      खंड ब- इस खंड में लघूत्तरात्मक
श्रेणी के कुल 8 प्रश्न पूछे जाएँगे जो क्रम संख्या 12 से 19 तक रहेंगे। प्रत्येक
प्रश्न का अंकभार 2-2 रहेगा। इसमें से पहले 2 प्रश्न (12 व 13) पाठ्यपुस्तक सरयू
के गद्य खंड से होंगे और अगले 2 प्रश्न(14 व 15 नम्बर) सरयू के ही पद्य खंड से
पूछे जाएँगे। अगले चार प्रश्न(16 से 19 तक) पूरक पाठ्यपुस्तक मन्दाकिनी से किए
जाएँगे। इनका अंकभार भी 2-2 अंक ही रहेगा। ये समस्त प्रश्न बच्चे की समझ पर आधारित
होंगे।

3.      खंड स-  इस खंड में कुल चार प्रश्न किए जाएँगे। प्रत्येक
प्रश्न का अंकभार 4.4 रहेगा। पहले तीन प्रश्न(20, 21 और 22) हिंदी साहित्य के इतिहास
के आधुनिक काल से होंगे और चौथा प्रश्न (23 नम्बर) अलंकार से संबंधित होगा। इस
प्रश्न में अलंकार की परिभाषा और उदाहरण लिखना होगा। संभव है कि पूछे गए अलंकार के
लक्षण भी पूछ लिए जाएँ। इसलिए पाठ्यक्रम में शामिल अलंकारों (अन्योक्ति,
समासोक्ति, विभावना, प्रतीप और व्यतिरेक) की परिभाषाए लक्षण और एक-एक उदाहरण हर
हाल में तैयार रखें।

 

4.      खंड द- इस
खंड में कुल 2 प्रश्न होंगे।  प्रत्येक प्रश्न
का अंकभार 5-5 रहेगा। इसमें पाठ्यपुस्तक सरयू के गद्य और पद्य खंड से एक-एक गद्यांश
और पद्यांश की व्याख्या पूछी जाएगी। प्रश्न नम्बर 24 में गद्य खंड से एक व्याख्या पूछी
जाएगी। इसमें आतंरिक विकल्प (अथवा) उपलब्ध रहेगा। जिनमें से किसी एक अंश की
व्याख्या करनी है। इसी प्रकार प्रश्न नम्बर 25 में सरयू के पद्य खंड से एक
व्याख्या पूछी जाएगी। इसमें भी आतंरिक विकल्प (अथवा) मौजूद रहेगा।

 

5.      खंड ई-  इस खंड में कुल 3 प्रश्न पूछे जाएँगे। प्रत्येक
प्रश्न 6-6 अंक का होगा।  इनमें से एक
प्रश्न (26 नम्बर वाला) सरयू के गद्य खंड से होगा जिसमें कुल 3 विकल्प होंगे और इन
तीन विकल्पों में से किसी एक का जवाब लिखना है। इसी प्रकार 27 वाँ प्रश्न सरयू के
ही पद्य खंड से होगा। इसमें भी 3 विकल्प (अथवा) होंगे। जिनमें से कोई एक करना है।
प्रश्न-पत्र का अंतिम और 28 वाँ प्रश्न पूरक पाठ्यपुस्तक मन्दाकिनी से होगा।  इसमें भी वही 3 प्रश्न होंगे।  जिनमें से किसी एक का जवाब देना होगा।

    मुझे पूरा विश्वास है कि आप सभी कोरोनाकाल के
संकट को मद्देनजर रखते हुए एक तय रणनीति के तहत अपनी तैयारी रखेंगे। इस पोस्ट को
आप सेव करके रख सकते हैं,  लिख सकते हैं।
मुझे पूरा यकीन है कि ये आपके हर हाल में काम आएगी। अपने शिक्षक साथियों से आग्रह
करता हूँ पहले आप पढ़ें और यदि पसंद आए तो अपनी स्कूल के बच्चों संग साझा करें और
जहाँ कहीं जरूरत महसूसें; आवश्यक मार्गदर्शन जरूर देवें। आपकी सलाहें और
मार्गदर्शन कहीं न कहीं बच्चों के काम आएँगे। सभी बच्चों को शुभकामनाएँ और शिक्षक
साथियों का अभिनन्दन। बहुत जल्द परीक्षा के लिहाज से महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
आपकी सेवा में हाज़िर होंगे। हमें पूरा विश्वास है कि ये आप में एक समझ पैदा करेगी
और परीक्षा परिणाम में गुणात्मक और संख्यात्मक वृद्धि होगी। हमारे प्रयास की सफलता
विद्यार्थियों के अध्ययन, चिंतन और मनन पर आधारित होगी।                                                                                   

                                                                                                  शुभकामनाओं सहित

                                                                                  
अभिनव सरोवा  (हिंदी शिक्षक)

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काव्यांग परिचय

1 काव्य गुण किसे कहते हैं?

उत्तर. काव्य में ओज, प्रवाह,
चमत्कार और प्रभाव उत्पन्न करने वाले तत्त्व काव्य-गुण कहलाते हैं।

2 काव्य-गुण कितने होते हैं?
नाम लिखिए।

उत्तर. काव्य-गुण तीन होते हैं।
प्रसाद गुण, माधुर्य गुण और ओज गुण।

3 माधुर्य गुण की परिभाषा
लिखिए।

उत्तर. जिस काव्य रचना को पढ़ने/
सुनने से पाठक/ श्रोता का चित्त प्रसन्नता से प्रफुल्लित हो जाता है वहाँ माधुर्य
गुण माना जाता है।

अथवा

जिस काव्य रचना से चित्त आह्लाद
से द्रवित हो जाए,  उस काव्य-गुण को
माधुर्य गुण कहते हैं।

4 प्रसाद गुण की परिभाषा लिखिए।

उत्तर. जिस काव्य रचना को सुनते
ही अर्थ समझ में आ जाए,  वहाँ प्रसाद गुण
माना जाता है।

5 प्रसाद गुण किन-किन रसों में
प्रयुक्त होता है?

उत्तर. वैसे तो सभी रसों में
प्रयुक्त होता है किंतु करुण, हास्य, शांत और वात्सल्य रस में मुख्यतः प्रयुक्त
होता है।

6 माधुर्य गुण किन रसों में
प्रयुक्त होता है?

उत्तर. शृंगार, शांत और करुण रस
में प्रयुक्त होता है।

छंद शास्त्र

 

·       प्रवर्तक आचार्य- पिंगल

·       छंद शब्द संस्कृत भाषा की छद् धातु में असुन प्रत्यय जुड़ने से बना
है।

·       छंद शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है- बाँधना, फुसलाना, प्रसन्न करना
या मात्राओं का ध्यान रखना।

·       परिभाषा- साहित्य की ऐसी रचना जिसमें  यति, गति, 
पाद, चरण, दल इत्यादि के नियम लागू होते हैं, उसे छंद कहते हैं।

छंद शब्द का प्रथम उल्लेख
ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद के 10 वें सूक्त( पुरुष सूक्त)के 90 वें मंडल के 9
वें मंत्र में प्राप्त होता है। हमारे छंदशास्त्र में वेद के छह
अंग स्वीकार किए गए हैं। उनमे से छंदशास्त्र को एक अंग माना गया है। छंदशास्त्र को
वेदपुरुष के पैर अंग के रूप में स्वीकार किया गया है।

 

आँख- ज्योतिष

ü कान- निरुक्त

ü नाक- शिक्षा

ü मुख- व्याकरण

ü हाथ- कल्प

ü पैर- छंद।

लौकिक साहित्य के अंतर्गत
आचार्य पिंगल को छंदशास्त्र का प्रवर्तक आचार्य माना जाता है।  इनके द्वारा रचित छंदःसूत्र ग्रन्थ (सातवीं सदी
ई. पू.)को छंदशास्त्र का आदिग्रंथ माना जाता है।

छंदों का वर्गीकरण

(1) मात्रिक छंद- जिस छंद की
पहचान मात्राओं के आधार पर होती है उन्हें मात्रिक छन्द कहते हैं। जैसे दोहा,
सोरठा, चौपाई इत्यादि।

(2) वर्णिक छंद- जिन छंदों की
पहचान वर्णों की संख्या एवं गणों के आधार पर होती है उन्हें वर्णिक छंद कहते हैं।

v सम छंद- जिस छंद के प्रत्येक चरण में समान लक्षण (मात्राएँ एवं
वर्ण) पाए जाते हैं उन्हें सम छंद कहते हैं; जैसे चौपाई और द्रुतविलंबित आदि।

v अर्द्धसम छंद- जिस छंद के आधे-आधे चरणों में समान लक्षण पाए जाते
हैं उन्हें अर्द्धसम छंद कहते हैं। अर्थात सम और विषम चरणों में समान लक्षण होना; जैसे
दोहा और सोरठा आदि।

मात्रा-  किसी भी स्वर के उच्चारण
में लगने वाले समय को ही मात्रा कहते हैं। छंद में दो प्रकार की मात्राएँ होती
हैं-

(1) लघु मात्रा- खड़ी पाई (I)  संख्या-
1

(2) दीर्घ मात्रा- वक्र रेखा (S)  संख्या-
2

मात्रा निर्धारण के नियम

1)     मात्रा सदैव स्वर वर्णों के साथ ही लगती है।

2)     ह्रस्व स्वरों (अ, इ, उ, ऋ) के साथ लघु तथा दीर्घ स्वरों(आ, ई, ऊ,
ए, ऐ, ओ, औ) के साथ गुरु मात्रा लगती है।

3)     यदि किसी ह्रस्व स्वर के तुरंत बाद कोई आधा अक्षर/ हलंत वर्ण/
विसर्ग/ संयुक्ताक्षर आ रहा हो तो ह्रस्व होने के बावजूद भी उस पर गुरु मात्रा का
प्रयोग किया जाएगा।

4)     यदि किसी स्वर पर अनुस्वार का प्रयोग हो रहा हो तो उस पर भी गुरु
मात्रा का ही प्रयोग किया जाएगा। जबकि लघु स्वर के साथ अनुनासिक (चन्द्रबिन्दु) का
प्रयोग हो रहा हो तो लघु मात्रा ही मानी जाएगी और दीर्घ स्वर पर चन्द्रबिन्दु का
प्रयोग हो रहा हो तो उसे गुरु माना जाएगा।

जैसे    हंस- S I (3 मात्राएँ)

                   हँस- I I (2 मात्राएँ)

गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। छन्दशास्त्र में कुल 8 गण
माने जाते हैं। गण निर्धारण के लिए निम्न सूत्र काम में लिया जाता है| :-  यमाताराजभानसलगा

क्रम

संख्या  गण का नाम.                         सूत्र.                       मात्रा.                   अन्य नाम.    उदाहरण

1       यगण                               यमाता                       (ISS)              आदिलघु.      यशोदा/ सुनीता

2       मगण                               मातारा                       (SSS)             सर्व
गुरु       जामाता/आमादा

3       तगण                               ताराज                       (SSI)               अंत लघु       दामाद/
सामान/ नाराज

4       रगण                                राजभा                        (SIS)              मध्य
लघु      आरती/ भारती/ पार्वती

5      जगण                                जभान                        (ISI)               मध्य
गुरु      गुलाब/ जवान/ नवीन

6      भगण                                भानस                         (SII)              आदि
गुरु       भारत/ मानव/ राहुल

7      नगण                                 नसल                          (III)         सर्व
लघु       सुमन/ नमक/ नक़ल/ फसल

8     सगण                                 सलगा                         (IIS)             अंत गुरु        सरिता/ ममता/ सलमा

 

प्रश्न- हरिगीतिका छंद की
परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए अथवा हरिगीतिका छंद को उदाहरण सहित समझाइए

उत्तर- हरिगीतिका सममात्रिक छंद
होता है। इसके प्रत्येक चरण में  28-28
मात्राएँ होती हैं तथा यति हमेशा 16-12 मात्राओं पर होती है। तुक प्रत्येक चरण के
अंत में मिलती है। उदाहरण-

·       कहती हुई यों उत्तरा के, नेत्र जल से भर गए।

·       हिम के कणों से मानो पूर्ण, हो गए पंकज नए।

·       श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मनहरण भव भय दारुणम्।

·       नवकंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम्।।

प्रश्न- छप्पय छंद की परिभाषा
उदाहरण सहित लिखिए।

उत्तर- यह विषम मात्रिक छंद
होता है। रोला और उल्लाला से बने इस मिश्रित छंद में 6 पंक्तियाँ होती हैं। इसकी
प्रथम 4 पंक्तियों में 24-24 तथा अंतिम 2 में 28-28 मात्राएँ होती हैं। प्रथम 4
पंक्तियों में 11-13 पर तथा अंतिम 2 में 15-13 पर यति होती है। सूत्र- छप-छप
रोऊँ(रोला और उल्लाला)

उदाहरण

नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है।

सूर्य चंद्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।।

नदियाँ प्रेम प्रवाह फूल तारामंडल हैं।

बंदीजन खगवृंद शेषफन सिंहासन है।।

करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस देश की।

हे मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।।

 

प्रश्न- कुंडलिया छंद की उदाहरण
सहित परिभाषा लिखिए।

उत्तर- यह विषम मात्रिक छंद
होता है। दोहा और रोला छंद से बने इस मिश्रित छंद में 6 पंक्तियाँ होती हैं। प्रथम
2 पंक्तियों में 13-11 पर तथा अंतिम 4 पंक्तियों में 11-13 पर यति होती है। जिस
शब्द से इसका आरंभ होता है वही इसका अंतिम शब्द भी होता है। दूसरी पंक्ति का दूसरा
चरण तीसरी पंक्ति का प्रथम चरण होता है। सूत्र- कुंडली मारनो दोरो(दोहा और रोला)
काम

उदाहरण-

Ø बिना विचारे जो करे, सो पाछै पछताए।

Ø काम बिगारै आपनो, जग में होत हँसाय।।

Ø जग में होत हँसाय, चित्त में चैन ना पावे।

Ø खान-पान सम्मान, राग रंग मनहिं न भावे।

Ø कह गिरधर कविराय, दु:ख कछु टारै न टरै।

Ø खटकत है जिय माहिं, किया जो बिना विचारे।।

Ø लाठी में गुन बहुत हैं सदा राखिए संग

Ø नदियाँ नाला जहाँ पड़ै तहाँ बचावत अंग।

Ø तहाँ बचावत अंग झपट कुत्ते को मारै।

Ø दुश्मन दामनगीर ताही का मस्तक फारै।

Ø कह गिरधर कविराय सुनो हे धुर के साठी।

Ø सब हथियारन छोड़ हाथ में राखिए लाठी।।

 

प्रश्न. सवैया छंद की परिभाषा
उदाहरण सहित लिखिए।

उत्तर- यह वर्णिक छंद होता है इसके
प्रत्येक चरण में 22 से 26 तक वर्ण होते हैं। वर्णों की संख्या के आधार पर सवैया
के 11 भेद होते हैं।

उदाहरण-

v या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारो।

v आठहुँ सिद्धि नवोंनिधि को सुख नंद की धेनु चराय बिसारौं।

v रसखान कबौं इन आँखिन सों ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

v कोटिक हूँ कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारो।।

 

प्रश्न- अन्योक्ति अलंकार की
परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।

उत्तर. जब कवि अप्रस्तुत(उपमान)
का वर्णन करके प्रस्तुत(उपमेय) का बोध कराता है तो वहाँ अन्योक्ति अलंकार माना
जाता है। इसे अप्रस्तुत प्रशंसा भी कहते हैं। इसे अन्योक्ति इसलिए कहा जाता है कि
इसमें जिसे कुछ कहना होता है सीधे उसे न कहकर दूसरे के माध्यम या सहारे से कहा
जाता है।

उदाहरण.

*  नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहीं विकास इहिं काल।

*

  अलि कली ही सौ बंध्यो, आगे कौन हवाल।

*  माली आवत देखकर, कलियन करी पुकारि।

*  फूले-फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बारि।।

 

प्रश्न. विभावना अलंकार की
परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।

उत्तर. प्रत्येक कार्य के पीछे
कोई न कोई कारण(साधन) अवश्य होता है परंतु जब कहीं पर कारण के बिना ही किसी कार्य
की उत्पत्ति हो जाती है तो वहाँ विभावना अलंकार माना जाता है। इस विभावना को प्रकट
करने के लिए बिन, बिना, बिनु, रहित जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

जब किसी पद में कारण(साधन) के
अभाव में ही किसी कार्य का होना वर्णित किया जाता है तो वहाँ विभावना अलंकार माना
जाता है।

उदाहरण-

(1)   निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।

(2)   बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।

नोट.  साबुन एवं पानी जैसे साधनों के बिना भी
कार्य(निर्मल) सिद्ध हो रहा है

 

प्रश्न. व्यतिरेक तथा प्रतीप
अलंकार में अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर. व्यतिरेक अलंकार में
गुणों की अधिकता देखकर उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाता है इसमें उपमेय उपमान
के किसी गुण में तुलना का भाव नहीं रहता। इसके विपरीत प्रतीप अलंकार में दोनों में
किसी एक गुण के बारे में तुलना होती है तथा उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाता
है। उदाहरण.

§  व्यतिरेक-  संत हृदय नवनीत
समाना कहा कविन्ह परि कहि नहिं जाना।

§  निज प्रताप द्रवै नवनीता पर दुरूख द्रवहि सुसंत पुनीता।

§  प्रतीप-  राधे तेरो बदन
विराजत नीको।

§  जब तू इत उत विलोकति निसि निसि पति लागत फीको



पाठ्य पुस्तक सरयू से लघूरात्त्मक प्रश्न और उनके जवाब

पाठ. गुल्ली.डंडा

लेखक. प्रेमचंद (मूलनाम- धनपतराय)

20 गया का मित्र या कथानायक बड़ा
होकर किस पद पर पहुँचता है?

उत्तर. कथानायक बड़ा होकर जिला
इंजीनियर के पद पर नियुक्त होता है।

21 गया बड़ा होकर क्या बनता है?

उत्तर. गया बड़ा होकर डिप्टी
साहब का साइस बनता है।

22 गया के व्यक्तित्व की तीन
विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर. (अ) गया गरीब पारिवारिक
लंबाए पतला और काला-सा लड़का था।

(ब) गया गुल्ली-डंडे का कुशल
खिलाड़ी था।

(स) गया समझदार था। वह कथानायक
का आदर करता था। जबकि वो ये भी जानता था कि वह खेल में बेईमानी कर रहा है।

23 गुल्ली-डंडे को खेलों का
राजा क्यों कहा जाता है?

उत्तर. गुल्ली-डंडा नामक खेल के
सामान अन्य खेलों की भाँति महँगे नहीं होते हैं। किसी भी पेड़ की टहनी काटकर गुल्ली
और डंडा बनाया जा सकता है और इसके लिए किसी प्रकार के कोर्ट, लॉन, नेट या थापी की
जरूरत नहीं पड़ती। टीम के लिए ज्यादा खिलाड़ियों की जरूरत भी नहीं होती। दो लोग भी
इसे खेल सकते हैं। इन्हीं सब खूबियों के कारण गुल्ली-डंडा खेलों का राजा माना जाता
है।

24 कथानायक और गया के बीच
स्मृतियाँ सजीव होने में कौनसी बात बाधक बनती है और क्यों?

उत्तर. कथानायक का बड़े पद पर
नियुक्त होना और गया का एक साइस होना अर्थात पद और प्रतिष्ठा ही इन दोनों के बीच
की स्मृतियों के सजीव होने में बाधक बनती है। गया को जब पता चलता है कि उसका बचपन
का मित्र अब जिला इंजीनियर बन गया है तो वह समझ जाता है कि अब उनमें बचपन की सी
समानता नहीं रही। इसी कारण वह कथानायक का आदर करता है। बस यही बात उनकी स्मृतियों
को सजीव होने में बाधक बनती है।

25 “कुछ ऐसी मिठास थी
उसमें कि आज तक उससे मन मीठा होता रहता है” इस कथन में लेखक किस मिठास की बात
कर रहा है?

उत्तर. बचपन में लेखक गया के
साथ गुल्ली.डंडा खेल रहा था। लेखक बिना दाँव दिए ही घर जाना चाहता था जबकि गया उसे
बिना दाँव के घर जाने नहीं देना चाहता था। इसी बात पर दोनों में झगड़ा होता है और
गया ने कथानायक की पीठ पर डंडा मारा था। लेखक ने डंडे की उसी मार को मीठी याद
बताया है। लेखक कहता है कि उसमें जो मिठास थी वो उच्चपदए प्रतिष्ठा और धन में भी
नहीं है।

26 “वह बड़ा हो गया और मैं
छोटा” लेखक को ऐसा अनुभव कब और क्यों हुआ?

उत्तर. लेखक ने देखा कि भीमताल
में खेलते समय गया कुछ अनमना था। वह पूरी कुशलता के साथ नहीं खेल रहा था। वह
कथानायक की बेईमानियों का विरोध भी नहीं कर रहा था। वास्तव में वह खेल नहीं रहा था
बल्कि खेल का बहाना करके लेखक को खिला रहा था। लेखक का मानना था कि इसका कारण
दोनों के पदए प्रतिष्ठा और आर्थिक स्थिति में अंतर होना था। गया लेखक को अपनी जोड़
का खिलाड़ी नहीं मान रहा था। जबकि दूसरे दिन उसने बहुत ही शानदार खेल दिखाया था। बस
यही कारण था कि लेखक के मुँह से अनायास ही निकल गया कि वह बड़ा हो गया और मैं छोटा।

27 ‘गुल्ली-डंडा’ कहानी  के आधार पर प्रेमचंद की भाषा.शैली पर संक्षिप्त
टिप्पणी लिखिए।

उत्तर. ‘गुल्ली-डंडा’ कहानी के
लिए प्रेमचंद ने सरल और विषयानुकूल भाषा का चयन किया है। उनकी भाषा में संस्कृत के
तत्सम शब्द हैं तो उर्दू के शब्द भी हैं और बोलचाल भी भाषा के शब्द भी शामिल हैं।
मुहावरों का भी सुंदर और प्रभावी प्रयोग किया गया है। इस कारण भाषा में एक प्रवाह
बन पड़ा है। शैली वर्णनात्मक तो है ही साथ ही प्रसंग के अनुसार विवेचनात्मकए
विचारात्मक और व्यंग्यात्मक भी है।

28 लेखक के अनुसार बच्च्चों में
ऐसी कौनसी शक्ति होती है जो बड़ों में नहीं होती?

उत्तर. लेखक के अनुसार बच्चों
में मिथ्या;झूठद्ध को सत्य मानने की शक्ति होती है जो बड़ों में नहीं होती है। बड़े
तो सत्य को भी मिथ्या बना देते हैं जबकि बच्चे मिथ्या को सत्य बना लेते हैं। इसी
कारण अपने पिता का तबादला होने पर वह अपने साथियों से कहता है कि अब वह शहर जा रहा
है। वहाँ आसमान छूते ऊँचे मकान हैं। स्कूल में मास्टर बच्चों को मारे तो उसे जेल
जाना पड़ता है। हालांकि वह झूठ बोल रहा था लेकिन उसके दोस्त उसकी बातों को सत्य मान
रहे थे।

पाठ. मिठाईवाला

लेखक. भगवती प्रसाद वाजपेयी

29 मिठाईवाला कहानी में किन-किन
रूपों में आया था?

उत्तर. मिठाईवाला निम्न तीन
रूपों में आया था- खिलौनेवाला मुरलीवाले और मिठाईवाले के रूप में।

30 मिठाई वाला कहानी की मूल
संवेदना क्या है?

उत्तर. ये एक युवा की कहानी है
जिसके दो बच्चों का देहांत समय से पहले हो जाता है। इससे उसके मन में भारी पीड़ा
उत्पन्न होती है। इसी पीड़ा को कम करने के लिए वह बच्चों के बीच अपना समय व्यतीत
करता है। वह खिलौनोंए मुरली और मिठाई से उनको खुश करने का प्रयास करता है। इससे
उसे भी खुशी और संतोष की प्राप्ति होती है। कहानी की मूल संवेदना भी यही है कि हम
अपने व्यवहार और वाणी से किसी को खुशी देकर खुद भी खुश हो सकते हैं। प्रेम और खुशी
बाँटकर ही व्यक्ति खुश हो सकता है और अपने दुःख या अभाव को भूला सकता है।

31 ‘पेट जो न कराए सो थोड़ा’ इस
कथन से कौनसा मनोभाव प्रकट होता है?

उत्तर. रोहिणी अपने घर से मुरलीवाले
कि बात सुन रही थी। वह बड़े प्यार से और सस्ते भाव से बच्चों को चीजें बेच रहा था।
उसे वह भला आदमी लगा। फिर वह सोचती है कि समय का फेर है। बेचारे को अपना पेट भरने
के लिए ये सब करना पड़ रहा है। पेट जो न करवाएए सो थोड़ा। इस कथन से रोहिणी का
मुरलीवाले के प्रति दया और सहानुभूति के मनोभाव प्रकट होते हैं।

32 मिठाईवाले ने अपनी मिठाई की
क्या-क्या विशेषताएँ बताईं?

उत्तर.  मिठाईवाले ने बताया कि उसकी मिठाइयाँ नई तरह की
हैं। वे रंग-बिरंगी कुछ खट्टी, कुछ मीठी तथा जायकेदार हैं। वे मुँह में जल्दी नहीं
घूलती। उनमें से कुछ चपटी कुछ गोल और कुछ पहलदार हैं बच्चे इनको बड़े चाव से चूसते
हैं और इनसे खाँसी भी दूर होती है।

33 मुरलीवाला एकदम अप्रतिभ
क्यों हो गया?

उत्तर. जब विजय बाबू मुरलीवाले
से मुरली का मोलभाव करते हैं तो वह उसे कहते हैं कि तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत
होती है। मुरली तो सभी को दो-दो पैसे में ही दे रहे हैं परंतु एहसान का बोझ मेरे
ऊपर लाद रहे हैं। विजय बाबू की इस प्रकार की कठोर और अविश्वास से भरी बात सुनकर
मुरलीवाला उदास और अप्रतिभ हो जाता है क्योंकि वह बच्चों की खुशी पाने के लिए
चीजें सस्ती बेच रहा था। धन कमाना उसका उद्देश्य नहीं था।

34 मिठाईवाला कहानी के आधार पर
समझाइए कि मनुष्य अपने जीवन के अभाव की पूर्ति स्वयं को विश्व से जोड़कर कर सकता है
तथा सुख संतोषपूर्ण जीवन जी सकता है।

उत्तर.  मिठाईवाला पंडित भगवतीप्रसाद वाजपेयी की एक
उद्देश्यपूर्ण कहानी है। मानव जीवन में अभाव तथा कष्टों का आना स्वाभाविक है। कुछ
लोग अपना अभावग्रस्त जीवन अन्य अभावों के बारे में सोचते.सोचते और दुःख सहते हुए
बिताते हैं। समझदार लोग दूसरों के अभावए 
पीड़ाए रोग आदि से मुक्त करके अपने अभाव को भूल जाते हैं। वे खुद को संसार
से जोड़ देते हैं तथा दूसरों के सुख.दुःख में सहभागी बनते हैं। इस प्रकार उनके अपने
अभाव महत्त्वहीन हो जाते हैं। उल्टे दूसरों को सुख और संतोष पहुंचाकर वे स्वयं भी
सुखी और संतुष्ट होते हैं। मिठाईवाला अपने बच्चों को सभी बच्चों में देखता है उनको
प्रसन्नता देकर उसे भी सुख मिलता है वह उनको खुशी से उछलता-कूदता देखकर, उनकी
तोतली बातें सुनकर सुखी और संतुष्ट होता है और खुद के बच्चों के बिछोह की पीड़ा को
भूल जाता है। कहानीकार को यह बताने में सफलता मिली है कि मनुष्य अपने जीवन के अभाव
और संकटों से मुक्ति पा सकता है यदि वह स्वयं को समाज से जोड़ दें और दूसरों के सुख
में ही अपना सुख खोजे।

पाठ.शिरीष के फूल

लेखक. हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रश्न. ‘धरित्री निर्धूम
अग्निकुंड बनी हुई थी’ पंक्ति से क्या आशय हैघ्

उत्तर. आशय यह है कि धरती किसी
अग्निकुंड की तरह तप रही थी बस उसमें से धुँआ नहीं निकल रहा था।

प्रश्न. शिरीष का फूल संस्कृत
साहित्य में कैसा माना गया है?

उत्तर.  शिरीष का फूल संस्कृत साहित्य में अत्यंत कोमल
माना गया है।

प्रश्न.  लेखक ने शिरीष के फूल को कालजयी अवधूत की तरह
क्यों बताया है?

उत्तर. अवधूत अनासक्त होता है
वह संसार के सुख.दुःख में समरस होकर जीता है। इसी कारण वह काल को जीतने में समर्थ
होता है शिरीष का फूल भी ऐसा ही है। जब चारों ओर भीषण गर्मी पड़ती है लू के थपेड़े
लगते हैं। धरती निर्धूम अग्निकुंड बन जाती है तब भी शिरीष हरा-भरा और फूलों से लदा
रहता है। जब कोई फूल खिलने का साहस नहीं करता उस समय भी फूलों से लदा रहता
है।                                     

प्रश्न. काल के कोड़ों की मार से
कौन बच सकता है?

उत्तर.  काल देवता अर्थात मृत्यु निरंतर कोड़े चला रहा
है। कुछ लोग समझते हैं कि वे जहां है वही बने रहे तो काल देवता की आंख से बच
जाएंगे। ऐसे लोग भोले और अज्ञानी होते हैं। जो बचना चाहते हैं उनको निरंतर गतिशील
रहना चाहिए एक ही स्थान पर जमे नहीं कि गए नहीं। इससे तात्पर्य यह है कि निरंतर
कर्मरत और प्रगतिशील रहना ही काल की मार से बचने के लिए जरूरी है।

प्रश्न. शिरीष के फूल द्विवेदी
जी का एक संदेशपरक निबंध है। इसमें लेखक ने जो संदेश दिया है उसे अपने शब्दों में
लिखिए।

उत्तर. शिरीष के फूल
हजारीप्रसाद द्विवेदी की एक उद्देश्यपरक निबंधात्मक रचना है। इसमें लेखक ने बताया
है कि विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी शांत और एक सुखद जीवन जिया जा सकता है।
लेखक जब शिरीष को देखता है तो विस्मयपूर्ण आनंद से भर जाता है। भीषण गर्मी में भी
शिरीष हरे-हरे पत्तों और फूलों से लद जाता है। लेखक को लगता है कि वह कठिन
परिस्थितियों से अप्रभावित अवधूत है। मनुष्य के भी जीवन में कठिनाइयां आती है
किंतु उनसे अप्रभावित रहकर अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ता से चलना चाहिए।

लेखक ये संदेश देता है कि
मनुष्य जीवन के चरम सत्य को समझे। संसार परिवर्तनशील है। वृद्धावस्था तथा मृत्यु
अनिवारणीय है। जो किसी पद पर अधिकार प्राप्त जन है उनको पदए अधिकार और धन लिप्सा
से मुक्त रहना चाहिए। शिरीष समदर्शी तथा अनासक्त है। गांधीजी अनासक्त कर्मयोगी थे।
कालिदास योगी के समान विरक्त किंतु विदग्ध प्रेमी थे। कबीर मस्त मौला थे। मनुष्य
को इसी प्रकार का अनासक्त जीवन जीना चाहिए।

प्रश्न. शिरीष के पुराने फलों
को देखकर लेखक को किनकी और क्यों याद आती है?

उत्तर.  शिरीष के फूल बहुत मजबूत होते हैं। वे नए फूल आ
जाने पर भी अपना स्थान नहीं छोड़ते जब तक कि नए पत्ते और फल मिलकर उनको वहाँ से हटा
न दें। पुराने लड़खड़ाते फलों को देखकर लेखक को भारत के उन बूढ़े नेताओं की याद आती
है जो युवा पीढ़ी को काम करने तथा आगे बढ़ने का अवसर नहीं देते तथा अपनी मृत्यु तक
अपने पद पर बने रहना चाहते हैं। इन नेताओं और शिरीष के पुराने फलों का स्वभाव एक
जैसा है इसलिए लेखक को इनकी याद आ जाती है।

प्रश्न. हाय वह अवधूत आज कहाँ
है? लेखक ने अवधूत किसे कहा है? आज उसकी आवश्यकता लेखक को क्यों महसूस हो रही है?

उत्तर. हाय वह अवधूत आज कहाँ
है?  द्विवेदीजी महात्मा गांधी को अवधूत कह
रहे हैं तथा उनको स्मरण कर रहे हैं। गांधीजी शिरीष की तरह अनासक्त थे। उस समय
विश्व में सर्वत्र हिंसा तथा अन्यायए अत्याचार तथा शोषण फैला हुआ था। उस सबसे
अविचलित महात्मा गांधी सत्य और अहिंसा के मार्ग पर दृढ़ता से चल रहे थे। आज भी भारत
और विश्व के अन्य देशों में उपद्रव, मारकाट, 
खूनखराबा व लूटपाट का वातावरण है। आतंकवाद विश्व के सभी देशो में फैल चुका
है। धर्म के नाम पर दूसरे धर्म को मानने वाले लोगों की हत्या हो रही हैं। प्रेम और
सद्भाव नष्ट किया जा रहा है। विश्व को इस वातावरण से मुक्ति दिलाने में महात्मा
गांधी ही समर्थ हो सकते हैं। अतः लेखक को गांधीजी की याद आ रही है। उसका मन उनकी
अनुपस्थिति को लेकर व्याकुल है उसमें एक पीर, एक टीस उठ रही है। हाय अहिंसा का वह
अग्रदूत आज नहीं रहा। काश आज गांधी होते तो लोगों से कहते। तुम मनुष्य होए उसी एक
परमपिता की संतान हो, क्यों एक-दूसरे की जान ले रहे हो? जिसे तुम धर्म समझ रहे हो
वह धर्म नहीं है। धर्म तो मनुष्य से प्रेम करना तथा उसकी पूजा करना है। गांधी आज
भी प्रासंगिक है वह लेखक को याद आ रहे हैं।

पाठ. पाजेब

लेखक- जैनेंद्र (मूलनाम-
आनंदीलाल)

प्रश्न. जैनेंद्र किस प्रकार के
कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं?

उत्तर.जैनेंद्र मनोवैज्ञानिक
कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न. आशुतोष निरपराध होते
हुए भी पाजेब चुराने की बात क्यों स्वीकार कर लेता है?

उत्तर. आशुतोष ने पायल नहीं
चुराई थी किंतु वह उसकी चोरी करना स्वीकार कर लेता है क्योंकि वह अबोध बच्चा था।
उसकी बुद्धि अविकसित थी वह तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात नहीं रख पाया। पिता के
प्रभावए स्नेह, भय तथा प्रलोभन आदि के कारण वह सही बात नहीं कर पाया। जो कुछ उसके
पिता कहलवाना चाहते थे वह वही कह देता था। वह दृढ़तापूर्वक अपनी बात नहीं रख पाया
कि उसने चोरी नहीं की थी।

प्रश्न. मैंने स्थिर किया कि
अपराध के प्रति करुणा ही होनी चाहिए रोष का अधिकार नहीं है लेखक के इस निश्चय का
क्या कारण थाघ् क्या आप इससे सहमत हैं अथवा नहीं?

उत्तर. लेखक को संदेह हुआ कि
आशुतोष ने पाजेब चुराई है अपराध स्वीकृति के लिए उस पर बल प्रयोग को उसने उचित
नहीं माना। उसका मत है कि क्रोध करने से बात बिगड़ जाती है। अपराधी में विशेष रूप
से यदि वह बच्चा हो तो जिद्द तथा विरोध की भावना पनप जाती है। इसके विपरीत
करुणापूर्ण व्यवहार करने से वह अपने अपराध को आसानी से स्वीकार कर लेता है। हम
इससे सहमत हैं यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है।

प्रश्न. पाजेब कहानी बाल
मनोविज्ञान पर आधारित कहानी है। कथन की समीक्षा कीजिए

उत्तर. बालकों के मन की विशेषता
बताने वाले ज्ञान को बाल मनोविज्ञान कहते हैं। बच्चे मन से भोले और सरल होते हैं।
उनकी बुद्धि अविकसित एवं कोमल होती है। वे टेढ़े.मेढ़े तर्कों को नहीं समझ पाते।
उनकी बुद्धि तर्कपूर्ण भी नहीं होती। घुमा.फिराकर पूछे गए टेढ़े-मेढ़े प्रश्नों से
वे भ्रमित हो जाते हैं तथा सत्य क्या है यह ठीक तरह से बता नहीं पाते। इस तरह से
निरपराध होने पर भी अपराधी बना दिए जाते हैंए जो उनके लिए एक भयानक त्रासदी होती
है।

पाजेब कहानी की कथावस्तु तथा
पात्रों का चरित्र बाल-मनोविज्ञान पर आधारित है। आरंभ मुन्नी तथा उसके भाई आशुतोष
के बालहठ से होता है। बाद में कथानक का विकास पाजेब के खोने तथा उसके बारे में
आशुतोष के साथ पूछताछ करने से हुआ है। कोमल मन का बालक अपने पिता के तर्कपूर्ण तथा
घुमा-फिराकर पूछे गए प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाता है और चोरी करना स्वीकार कर
लेता है।

कहानी के पात्रों का
चरित्र.चित्रण भी मनोविज्ञान के अनुरूप ही हुआ है आशुतोष का चरित्र बाल-मनोविज्ञान
का सजीव चित्र है इसे प्रभावशाली बनाने में बाल-मनोविज्ञान का गहरा योगदान है।

प्रश्न. लेखक के अनुसार अपराध
प्रवृत्ति को किस प्रकार जीता जा सकता है?

उत्तर. लेखक का मानना है कि
अपराध की प्रवृत्ति को दंड से नहीं बदला जा सकता। अपराध के प्रति करुणा होनी चाहिए
रोष नहीं। अपराध की प्रवृत्ति अपराधी के साथ प्रेम का व्यवहार करने से ही दूर हो
सकती है उसको आतंक से दबाना ठीक बात नहीं है। बालक का स्वभाव कोमल होता है अतः
उसके साथ स्नेह का व्यवहार होना चाहिए।

 

पाठ. अलोपी

लेखिका. महादेवी वर्मा

प्रश्न. अलोपी पाठ किस
गद्य-विधा की रचना है?

उत्तर. अलोपी संस्मरण गद्य.विधा
की रचना है।

प्रश्न. अलोपी के चक्षु के अभाव
की पूर्ति किसने की?

उत्तर. अलोपी के चक्षु के अभाव
की पूर्ति उसकी रसना अर्थात जीभ ने की।

प्रश्न. ‘आज के पुरुष का
पुरुषार्थ विलाप है’ लेखिका ने ऐसा क्यों कहा है?

उत्तर. लेखिका ने महसूस किया कि
आज का पुरुष कर्तव्यनिष्ठ तथा परिश्रमी नहीं है वह श्रमपूर्वक कठोर जीवन न बिताकर
अपनी निराशा और अभावों की शिकायतें करता रहता है। वह हर समय अपने दुर्भाग्य का
रोना रोता रहता है। आधुनिक पुरुष की ऐसी अवस्था देखकर महादेवी ने रोने-पीटने को ही
उसका पुरुषार्थ बताया है।

प्रश्न. ‘गिरा अनयन नयन बिनु
बानी’ लेखिका इन शब्दों को किस संदर्भ में ठीक मानती है?

उत्तर. महादेवी ने नेत्रहीन
अलोपी को छात्रावास में ताजा सब्जी लाने का काम सौंपा था। अलोपी नेत्रहीन था किंतु
उसको वाणी का वैभव प्राप्त था। वह बालक रघु के मार्गदर्शन में नित्य छात्रावास आता
था। ये दोनों छात्रावास में विनोद के केंद्र बन गए थे। धीरे-धीरे अलोपी उन सबका
प्रिय बन गया था। इसलिए छात्रावास के माहौल को देखकर ऐसा कहा जा सकता है कि गिरा
अनयन नयन बिनु बानी। गिरा बताने का काम करती है परन्तु उसके आँख नहीं होती। इसलिए
उसने कुछ देखा नहीं और नयन बिनु बानी अर्थात आँखे देख तो लेती हैं लेकिन वह बता
नहीं पाती क्योंकि उनके वाणी नहीं है।

प्रश्न. यह सत्य होने पर भी
कल्पना जैसा जान पड़ता है इस कथन में कौनसे सत्य का उल्लेख है जो कल्पना जैसा जान
पड़ता है?

उत्तर. अलोपी साहसी, पराक्रमी व
कठोर परिश्रमी था। वह सब्जियों से भरी भारी डलिया सिर पर उठाकर संतुलन बनाकर चल
लेता था। जब उसकी पत्नी उसको धोखा देकर चली गई तो अलोपी को गहरा आघात लगा। उसका सब
साहस, संपूर्ण विश्वास तथा समस्त आत्मविश्वास को संसार का एक विश्वासघात निगल गया
था यह बात सत्य है किंतु कल्पना के समान लगती है।

प्रश्न. ऐसे आश्चर्य से मेरा
कभी साक्षात नहीं हुआ था महादेवी को अलोपी के बारे में क्या अपूर्वए आश्चर्यजनक
लगा था? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर. अलोपी नेत्रहीन युवक था
उसने महादेवी को विश्वास दिलाया कि वह रघु की सहायता से उनके यहाँ ताजा तरकारियाँ
पहुँचाने का काम सफलता के साथ कर सकेगा। उसकी दृढ़ताए आत्मविश्वास तथा श्रम के
प्रति लगन देखकर महादेवी को विस्मय होता है। आजकल अनेक किशोर सुख की चीजें पाने के
लिए अपनी बूढ़ी माताओं से झगड़ते हैं जो बुढ़ापे में काम करती है। ऐसे-ऐसे युवक हैं
जो अपने निर्धन पिता का सब कुछ छीन लें तथा भीख माँगने में भी संकोच नहीं करते।
छोटे बच्चों का लालन-पालन छोड़कर दिनभर मजदूरी करके धन कमाने वाली अपनी पत्नी से
पैसे छीनकर शाम को शराब पीने या सिनेमा देखने वाले पुरुषों की भी कमी नहीं है आज
के पुरुष अपनी निराशा और असमर्थता का रोना रोते हैं। उनका पुरुषार्थ तथा पराक्रम
उनके रोने में ही प्रकट होता है ऐसे युवकों और पुरुषों के संसार में एक अलोपी भी
है जो अंधा होते हुए भी काम करता है और अपनी माँ को आराम देना चाहता है। अलोपी का
यह दृढ़ निश्चय महादेवी को आश्चर्य में डालने वाला था।

प्रश्न. अलोपी संस्मरण के नायक
अलोपी का चरित्र-चित्रण कीजिए।

उत्तर.अलोपी संस्मरण के नायक
अलोपी के चरित्र में प्रमुख गुण निम्न थे-

नेत्रहीन किंतु पराक्रमी- अलोपी
नेत्रहीन जरुर था किंतु पुरुषार्थहीन नहीं। वह साहस एवं आत्मविश्वास के साथ
सब्जियों से भरी डलिया उठाकर महादेवी वर्मा के यहाँ प्रतिदिन पहुँचाता है।

आत्मविश्वासी- अलोपी में गजब का
आत्मविश्वास था वह विश्वास दिलाता है कि वह रघु की सहायता और सहयोग से सब्जी लाने
का कठिन काम भी सफलतापूर्वक कर लेगा।

सभी के प्रति आदर एवं सद्भाव
रखने वाला- अलोपी बड़ों का आदर तथा महादेवी का सम्मान करता है महादेवी द्वारा
डाँटने पर भी वह कहता है जब आपकी आज्ञा नहीं है तब वह घर के बाहर पैर नहीं रखेगा।
उसके मन में भक्तिन से सद्भाव, उसे अपनी वृद्धमाता के प्रति चिंतित हैए वह अपनी
धोखेबाज पत्नी की शिकायत भी पुलिस से नहीं करता है।

परिश्रमी-  अलोपी कठोर परिश्रम करता है। काम करने से बचने
के लिए वह अपनी नेत्रहीनता का बहाना नहीं बनाता।

विश्वासघात से आहत- पत्नी का
विश्वासघात अलोपी को तोड़ देता है और वह एक दिन इस संसार को छोड़कर चला जाता है।


पाठ- संस्कारों और
शास्त्रों की लड़ाई (व्यंग्यात्मक निबंध)

लेखक- हरिशंकर परसाई

प्रश्न- लेखक मदर इन लॉ को
क्रांति की दुश्मन क्यों मानता है?

उत्तर- मदर इन लॉ क्रांतिकारी
दामाद के विचारों को बदल देती है। मदर इन लॉ क्रांति की दुश्मन होती है। वह
क्रांतिकारी के विचारों को बदल देती है। परिवार के संस्कारों के अनुसार आचरण करने
को विवश कर देती है। यदि वह न माने तो मदर इन लॉ बच्चों का ध्यान दिलाकर
क्रांतिकारी को परिवार की मान्यता और संस्कारों को मानने के लिए विवश कर देती है
इस प्रकार मदर इन लॉ क्रांतिकारी की क्रांति की भावना की दुश्मन बन जाती है।

प्रश्न. ष्बड़ा विकट संघर्ष
हैष्लेखक के मित्र में उसको किस विकट संघर्ष के बारे में बताया?

उत्तर. लेखक ने देखा कि परंपरा
तथा आडंबर के धुर विरोधी मित्र ने अपने सिर का मुंडन करवा लिया है तो उसने इसका
कारण जानना चाहा। मित्र ने बताया कि उसके पिता की मृत्यु हो गई है। वह उनका
पिंडदान करने प्रयाग जा रहा है। उसके सिद्धांतों का क्या हुआए यह जानने पर मित्र
ने बताया कि पारिवारिक संस्कारों तथा सिद्धांतों में जबरदस्त संघर्ष है। संस्कारों
के कारण उसे अपने सिद्धांत त्यागने पड़े।

प्रश्न. वह पाँव दरवाजे की तरफ
बढ़ाती है तो हाथ साँकल की तरफ चले जाते हैं। इस कथन में लेखक ने किस प्रथा पर
व्यंग्य किया है?

उत्तर.  इस कथन में लेखक ने पर्दा प्रथा पर व्यंग्य
किया है। स्त्रियों को घर में ही रहना होता था। वह पर्दे में रहती थी। वे घर से
बाहर नहीं जा सकती थीं। किसी को यहाँ तक कि अपने पति को बुलाने के लिए भी पुकारने
के स्थान पर उनको कुंडी बजानी होती थी पाँव दरवाजे की तरफ बढ़ाने और हाथ साँकल की
ओर चले जाने में इसी प्रथा की ओर संकेत किया गया है। यहाँ पाँव दरवाजे की तरफ
बढ़ाना रूढ़ियों से मुक्ति पाने के लिए प्रयोग किया गया है तथा हाथ साँकल पर चले
जाना पुरानी रूढ़ियों के लिए प्रयोग किया गया है।

प्रश्न. नारी मुक्ति में महंगाई
का क्या योगदान है? लेखक के मत से अपनी सहमति अथवा असहमति का उल्लेख तर्क सहित
कीजिए।

उत्तर. पहले स्त्रियों को घर के
अंदर रहना होता था तथा पर्दा भी करना होता था। वह बाहर नहीं जा सकती थी। घर में
पुरुषों से बातें नहीं कर सकती थी। समय बदला महँगाई बढ़ी और अकेले पति की कमाई से
घर का खर्च चलना मुश्किल हो गया तब पत्नी भी नौकरी करने लगी। इस प्रकार उसे बंधनों
से मुक्ति मिली और वह खुले वातावरण में साँस लेने लगी। नारी मुक्ति के लिए खूब
आंदोलन हुए हैं उसको इन आंदोलन के कारण मुक्ति नहीं मिली। उसे इस कारण भी मुक्ति
नहीं मिली कि समाज ने उसके व्यक्तित्व को मान्यता प्रदान कर दी है या पुरुषवादी
मानसिकता कमजोर हो गई है। उसको मुक्ति मिलने का कारण समाज में आधुनिक दृष्टिकोण की
वृद्धि होना भी नहीं है। लेखक के मत में इसका कारण बढ़ती हुई महंगाई है इसी के कारण
उसे घर से बाहर जाकर नौकरी करने का अवसर मिला है। जिससे वह दूसरों यहाँ तक कि
पुरुषों के साथ भी बात कर सकती है तथा साथ काम करती है। लेखक के मत से हम सहमत
हैं। आर्थिक दबाव अनेक स्थापित अवगुणों को ध्वस्त कर देता है। पर्दाप्रथा को नष्ट
करने में भी यह एक महत्त्वपूर्ण कारक बनकर सामने आया है।

प्रश्न. संस्कारों और शास्त्रों
की लड़ाई पाठ के लेखक ने किसे और क्यों द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में फंसा माना है?

उत्तर. लेखक ने अपने एक
मार्क्सवादी मित्र को लेकर यह व्यंग्य किया है। यह मित्र एक तरफ तो बाहरी आडंबर और
अंधविश्वासों पर विश्वास नहीं करने का दावा करता है दूसरी ओर पिता की मृत्यु पर
सारे संस्कारों का पालन करते हैं इसीलिए लेखक ने उन्हें द्वंद्वात्मक भौतिकवादी
अर्थात दोहरी मान्यताओं के द्वंद्व में फँसा हुआ बताया है।

प्रश्न. लड़की की माता की किस
तरह की सोच से पता लगा कि अर्थशास्त्र ने संस्कारों को पटकनी दे दी?

उत्तर. माँ ने सोचा यह जो
15,000 दहेज के लिए रखे थे यह साफ बच गए। 15,000 में इतना अच्छा लड़का नहीं मिलता
उन्होंने कार्ड बाँटकर दावत दे दी। इस प्रकार अर्थशास्त्र ने संस्कारों को पटकनी
दे दी। पहले वह सरकारी शादी को बुरा समझती थी किंतु 15000 की बचत ने सारे
संस्कारों को समाप्त कर दिया।

 

सरयू का पद्य खंड

कबीर

प्रश्न. कबीर ने इस संसार को
किसके समान बताया है?

उत्तर. कबीर ने इस संसार को
सेमल के फूल के समान बताया है।

प्रश्न. कबीर के अनुसार गुरु और
गोविंद में क्या अंतर है?

उत्तर. कबीर के अनुसार गुरु और
गोविंद में कोई अंतर नहीं है। उनमें सिर्फ आकार (शरीर) का ही अंतर है।

प्रश्न. कबीर के दोहों को साखी
क्यों कहा जाता है?

उत्तर. कबीर ने जो कहा वो उनके
जीवन के अनुभव पर आधारित है। उन्होंने सुनी.सुनाई बातों पर नहीं लिखा है। उन्होंने
अपनी आँखों से जो देखा है वही अपने दोहों में व्यक्त किया है। आँखों देखी होने के
कारण उसे साक्ष्य अर्थात साखी कहा गया है।

प्रश्न. पीछें लागा जाई था, लोक
वेद के साथि। इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर. इस पंक्ति में कबीर ने
गुरु की महान उपकार के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की है। जब तक गुरु का मार्गदर्शन
प्राप्त नहीं हुआ था तब तक कबीर भी बिना सोचे-समझे लोकाचार और मान्यताओं के
पिछलग्गू बने हुए थे। जब गोविंद की कृपा से उन्हें गुरु की प्राप्ति होती है या
गुरु का सान्निध्य प्राप्त होता है और गुरु ने उनके हाथ में ज्ञान रूपी दीपक थमाया
तब उन्हें दिखाई दिया कि वह तो अंधविश्वास के मार्ग पर चले जा रहे थे। गुरु ने
उनके उद्धार का मार्ग प्रशस्त किया है।

प्रश्न. ‘संतो भाई आई ज्ञान की
आँधी रे’ पद में कवि क्या संदेश देना चाहते हैं? स्पष्ट कीजिए

उत्तर. कबीर भले ही घोषणा करते
हैं कि उन्होंने मसि कागद छुयो नहीं कलम गही ना हाथ परंतु उन्होंने अपनी बात सटीक
प्रतीकों और रूपकों के द्वारा कहने में पूर्ण निपुणता दिखाई है। उपर्युक्त पद में
कबीर ने ज्ञान के महत्त्व को आलंकारिक शैली में प्रस्तुत किया है। उनकी मान्यता है
कि स्वभाव के सारे दुर्गुणों से मुक्ति पाने के लिए ज्ञान से बढ़कर और कोई दवा नहीं
है। जब हृदय में ज्ञान रूपी आँधी आती है तो सारे दुर्गुण एक-एक कर धराशायी होते
चले जाते हैं और अंत में साधक का हृदय प्रेम की रिमझिम वर्षा से भीग उठता है।
ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है और अज्ञान का अंधकार विलीन हो जाता है। ज्ञान
प्राप्ति की साधना का यही संदेश इस पद द्वारा कबीर ने दिया है।

प्रश्न. ‘जल में उत्पत्ति जल
में वास, जल में नलिनी तोर निवास’ पंक्ति का मूलभाव लिखिए।

उत्तर. उपर्युक्त पंक्ति कबीर
के पद काहे री नलिनी तू कुम्हलानी से लिया गया है। इस पद में कबीर ने नलिनी
(कमलीनी) को जीवात्मा का और सरोवर के जल को परमात्मा का प्रतीक माना है। वह कमलीनी
रूपी अपनी आत्मा से प्रश्न करते हैं कि अरे नलिनी तू क्यों मुरझाई हुई है? तेरे
चारों ओर तथा तेरे नाल में सरोवर का जल (परमात्मा) है। तेरी उत्पत्ति और निवास भी
इसी सरोवर में है निरंतर इसी सरोवर रूपी परमात्मा में तू स्थित है। भाव यह है कि
कमलिनी को यदि जल न मिले तो वह कुम्हला जाएगी परंतु जब भीतर-बाहर दोनों ओर जल ही
हो तो कमलीनी के मुरझाने का क्या कारण हो सकता है। इसका एकमात्र कारण यही हो सकता
है कि कमलिनी का किसी अन्य से प्रेम हो गया हो और उसी के वियोग में वह दुःखी और
मुरझाई है। पंक्ति का मूलभाव यही है कि जीवात्मा और परमात्मा अभिन्न हैं। जीवात्मा
की उत्पत्ति और स्थिति उसी सर्वव्यापक परब्रह्मा में है वह उसे कदापि अलग नहीं है।

पाठ. मंदोदरी की रावण को
सीख

रचनाकार.  गोस्वामी तुलसीदास।

रामचरितमानस से संकलित।

प्रश्न. मंदोदरी ने सीता को
किसके समान माना?

उत्तर.  मंदोदरी ने सीता को रावण के वंश रूपी कमल समूह
को नष्ट कर देने वाली शीत ऋतु की रात्रि के समान माना है।

प्रश्न. रावण को राम के
विश्वरुप से परिचित कराने में मंदोदरी का क्या उद्देश्य था?

उत्तर. रावण राम को साधारण
मनुष्य मान रहा था वह राम से बैर ठाने हुए था। मंदोदरी राम के स्वरुप और प्रभाव से
परिचित थी। वह जानती थी कि राम का विरोध रावण और राक्षसों के विनाश का कारण बनेगा।
वह असमय विधवा नहीं होना चाहती थी। अतः रावण को प्रभावित करने और राम की शरण जाने
को प्रेरित करने के लिए उसने राम के विश्व रूप से रावण को परिचित करवाया था।

प्रश्न. दुःखी और खिसियाये हुए
राजसभा से लौटे रावण को मंदोदरी ने क्या समझाया?

उत्तर. मंदोदरी ने रावण से कहा
कि राम से बैर और उन पर विजय पाने के कुविचार को मन से त्याग दो। जब तुम लक्ष्मण
द्वारा खींची गई रेखा को नहीं लांघ सके तो उन भाइयों पर विजय कैसे पाओगे?  उनके दूत हनुमान ने सहज ही समुद्र लांघकर आराम
से लंका में प्रवेश किया। उसने अशोक वाटिका उजाड़ डालीए रखवालों को मार डाला।
तुम्हारी आँखों के सामने तुम्हारे पुत्र अक्षय कुमार को मार डाला। तुम्हारे प्यारे
नगर लंका को जला डाला। अब तो अपने बल की डींग हाँकना छोड़ दो।

रहीम के दोहे

प्रश्न. रहीम सच्चा मित्र किसे
मानते हैं?

उत्तर. रहीम ने माना है कि
सच्चा मित्र वही है जो सुख.दुःख में समान रूप से काम आए। रहीम उसी को सच्चा मित्र
मानते हैं जो संकट आने पर भी अपने मित्र को छोड़ता नहीं और बुरे दिनों में उसका साथ
निभाता है।

प्रश्न. रहीम दुष्ट लोगों से
मित्रता व शत्रुता क्यों नहीं रखना चाहते?

उत्तर. दुष्ट और ओछे लोग
विश्वसनीय नहीं होते हैं। उनसे शत्रुता या मित्रता दोनों ही हानिकारक हो सकती हैं
यदि हम ऐसे लोगों से शत्रुता रखेंगे तो वह हमें हानि पहुँचाने के लिए घटिया से
घटिया तरीके काम में ले सकते हैं इसी प्रकार दुष्टों की मित्रता परभी विश्वास करना
बुद्धिमानी नहीं कहा जा सकता वह अपनेस्वार्थ के लिए कभी भी हमारे साथ विश्वासघात कर
सकते हैं। जैसे यदि कुत्ता किसी कारण कुछ हो जाए तो तुरंत काट देता है और यदि
प्रसन्न होकर वह आपके हाथ.पैर चाटता है तो भी अच्छा नहीं लगता। उस स्थान को धोना
पड़ता है इस प्रकार से कवि ने संदेश दिया है कि दुष्ट व्यक्तियों के प्रति तटस्थ
भाव रखना चाहिए।

प्रश्न. रहीम के अनुसार
कौन-कौनसी बातें दबाने पर भी नहीं दबती, प्रकट हो जाती हैं? स्पष्ट करते हुए
लिखिए।

उत्तर. कवि रहीम के अनुसार सात
बातें ऐसी हैं जो मनुष्य कितना भी छुपाना चाहे लेकिन छुप नहीं सकती। ख़ैर अर्थात
कुशल-मंगल, मनुष्य के हाव-भाव, व्यवहार से जान लेते हैं कि वह सुख से रह रहा है।
इसी प्रकार खून अर्थात किसी की हत्या कभी नहीं छुपती। खाँसी भी नहीं छिपाई जा
सकती। ख़ुशी का भी सभी को पता चल जाता है। ऐसे ही बैरभाव और प्रेमभाव भी व्यवहार से
समझ में आ जाते हैं। मदिरा पिए हुए व्यक्ति की पहचान गंध या पीने वाले के व्यवहार
से हो जाती है।

 

कवि. मैथिलीशरण गुप्त
(राष्ट्रकवि)

रचना. यशोधरा और भारत की
श्रेष्ठता।

प्रश्न. भारत की श्रेष्ठता
कविता में मैथिलीशरण गुप्त ने क्या संदेश दिया है?

उत्तर. भारत की श्रेष्ठता कविता
में मैथिलीशरण गुप्त ने भारत के गौरवशाली अतीत का वर्णन किया है। उन्होंने बताया
है कि भारत ही विश्व का वह देश है जहाँ सर्वप्रथम सृष्टि आरंभ हुई थी। यहीं से
विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैला। समस्त संसार को ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल,
सभ्यता-संस्कृति सिखाने वाला देश भारत ही है। गुप्तजी का संदेश है कि भारतीयों को
अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण करना चाहिए तथा निराशा और उत्साहहीनता को त्यागकर देश
के उत्थान के कार्य में जुट जाना चाहिए। हमें अपने देश से प्रेम करना चाहिए तथा
अपने कठोर परिश्रम द्वारा उसको पुनः उन्नति के शिखर पर पहुँचाना चाहिए।

प्रश्न. कवि ने भारतवर्ष को
भू-लोक का गौरव क्यों बताया है? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर.  भारत का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। यहाँ
पर्वतराज हिमालय तथा देवनदी गंगा है। संसार के सभी देशों की अपेक्षा यह देश महान
और उन्नत है। भारतवर्ष ऋषि-मुनियों की तपोभूमि रहा है। कवि ने इसी कारण भारत को
भू-लोक का गौरव बताया है।

प्रश्न. संतान उनकी आज यद्यपि
हम अधोगति में पड़े, पर चिह्न उनकी उच्चता के आज भी कुछ हैं खड़े उपर्युक्त पंक्ति
के आधार पर बताइए कि भारतीय किनकी संतान हैं और आज उनकी क्या दशा हो रही है?

उत्तर. गुप्तजी की रचना
भारत-भारती के अनुसार भारत के निवासी आर्य थे। आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ
मनुष्य। भारत उन्हीं आर्यों की संतान है आर्यों का शारीरिक सौष्ठव और मानसिक
प्रखरता अत्यंत उच्चकोटि की थी। उस समय भारत अंग्रेजों के अधीन था गुलामी के कारण
उनको पढ़ने-लिखने तथा अपना और अपने देश का विकास करने और उन्नति करने का अवसर नहीं
मिल पाया। भारतीय शिक्षित एवं निर्धन रह गए। विश्व में उनका कोई सम्मान नहीं रहा।
वे तन-मन से अशक्त बन गए। गुलामी, गरीबी और अशिक्षा उनको खटकती नहीं थी। खटकती भी
थी तो उसको दूर करने का कोई उपाय वे नहीं जानते थे। आज भी भारतीयों की दशा में
बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है।

यशोधरा खंडकाव्य से

प्रश्न. ‘दु:खी न हो इस जन के
दुःख से’ पंक्ति  में यशोधरा ने जन शब्द का
प्रयोग किसके लिए किया है?

उत्तर.  दुःखी न हो इस जन के दुःख से पंक्ति में जन
शब्द का प्रयोग यशोधरा ने स्वयं अपने लिए किया है। यद्यपि उसे इस बात की पीड़ा है
कि उसके पति ने उसकी उपेक्षा की है। वह उसको बिना बताए घर से चले गए हैं परंतु वह
उनके सुख एवं सिद्धि पाने में बाधक नहीं बनना चाहती। वह चाहती है कि उसके पति सुखी
रहें और अपने लक्ष्य सिद्धि को प्राप्त करें। यहाँ जन शब्द का प्रयोग यशोधरा स्वयं
के लिए हुआ है।

प्रश्न. फिर भी क्या पूरा
पहचानाघ् यशोधरा ने यह क्यों कहा कि गौतम बुद्ध उसको पूरी तरह पहचान नहीं पाए हैं?

उत्तर. बुद्ध के चोरी-चोरी
यशोधरा से बिना कहे घर से जाने के कारण यशोधरा को इस बात की शंका होती है कि
सिद्धार्थ अपनी पत्नी को अच्छी या पूरी तरह से पहचान नहीं पाए थे यशोधरा की नजर
में सिद्धार्थ को इस बात की आशंका हुई होगी कि यदि वह यशोधरा को बताकर जाएँगे तो
वह उन्हें जाने नहीं देगी। यशोधरा ऐसी नहीं है उनको कभी नहीं रोकती। अपितु गौतम का
इस तरह जाना सिद्ध करता है वह अपनी पत्नी की भावना को पहचान नहीं पाए थे।

प्रश्न. ‘हुआ न वह भी भाग्य
अभागा’ पंक्ति में यशोधरा ने स्वयं को अभागा क्यों कहा है?

उत्तर. यशोधरा बता रही है कि
पत्नी का कर्तव्य है कि वह अपने पति के कर्तव्यपालन में सहयोग करें। युद्धभूमि के
लिए भी अपने पति को विदा करना क्षत्राणी का धर्म रहा है। यशोधरा के पति चुपचाप चले
गए। वह सोती ही रह गई। उसे इस बात का दुःख था कि वह सिद्धि हेतु जाने वाले अपने
पति को अपने हाथ से तैयार कर नहीं भेज सकी उसको यह बात मन ही मन साल रही है कि
अपने पति को विदा करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाया।


कवि. सूर्यकांत त्रिपाठी
‘निराला’

राम की शक्तिपूजा।

प्रश्न. रावण अशुद्ध होकर भी
यदि कर सकता है त्रस्त, तो निश्चय तुम हो सिद्धए  उसे करोगे ध्वस्त।

इन पंक्तियों में राम व रावण की
कौनसी असमानता व्यंजित हुई है?

उत्तर. ष्राम की
शक्तिपूजाष्कविता में निराला ने जीवन संग्राम में संघर्षरत सत् और असत्शक्तियों के
प्रतीक के रूप में राम और रावण को प्रस्तुत किया है। राम नीतिए धर्म और न्याय के
प्रतीक हैं जबकि रावण अपने बुरे कार्यों को सही सिद्ध करने के लिए युद्ध कर रहा
था। एक सदाचारी था तो दूसरा दुराचारी। यही राम और रावण के बीच की असमानता है।

प्रश्न. राम का यह संघर्ष
विषमता और हताशा से त्रस्त मानवता को दानवता की शक्तिसंपन्नता के विरुद्ध निरंतर
संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। टिप्पणी कीजिए।

अथवा

राम की शक्तिपूजा में
अंतर्निहित संदेश क्या है?

उत्तर. राम की शक्तिपूजा में
पुरुष रूपी सिंह राम की विजय का संदेश है। सत्, 
न्याय तथा धर्म का पक्ष रखने वाले राम एक ओर हैं तो दूसरी ओर असत, अन्याय
अनाचार और अधर्म का साथ देने वाला रावण है। इसमें पहला पक्ष मानवता का तो दूसरा
दानवता का है। राम महामानव है तथा रावण दानव।

राम में मानवीय कमजोरियाँ हैं।
उनके मन में आशा-निराशा, विश्वास-अविश्वास आदि के बीच द्वंद्व है। किंतु अंत में
उनका आत्मविश्वास ही विजयी होता है। राम की शक्तिपूजा के आरंभ में हम देखते हैं कि
राम का मन सशंक हो जाता है। शक्ति के रावण के पक्ष में होने के कारण वे हताश हो
जाते हैं। मानवता के प्रतीक राम उसके अभाव में दुर्बलता का अनुभव कर रहे हैं। दानव
रावण महाशक्ति का साथ पाकर और अधिक प्रबल हो जाता है। राम डर रहे हैं कि मानवता की
विजय कैसी होगी। मित्रों के परामर्श पर वे शक्ति की पूजा करते हैं और देवी का
आशीर्वाद प्राप्त कर रावण पर विजय प्राप्त करते हैं। हमें भी अपनी कमजोरियों से न
घबराकर आत्मविश्वास के साथ शक्तिशाली के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए यही राम की
शक्तिपूजा का संदेश या शिक्षा है।

प्रश्न. भौतिकता की वर्तमान
चकाचौंध में राम की शक्तिपूजा साधारण मनुष्य की पीड़ा को अभिव्यक्त करती है। स्पष्ट
कीजिए

उत्तर. राम की शक्तिपूजा
आध्यात्मिकता से प्रेरित है। इस कविता में प्रतीकात्मक रूप से वह आज के मानव की
पीड़ा को भी व्यक्त करती है। आज भ्रष्टाचार का सर्वत्र बोलबाला है। भौतिक सुख का
आकर्षण मनुष्य को सत्य से अलग कर देता है। रावण ने परनारी सीता का अपहरण किया है।
आज हर दिन हम महिलाओं के अपहरण एवं उनसे दुराचार के समाचार पढ़ते व सुनते हैं। इन
घटनाओं का विरोध करने वाले लोग ही हमें दिखाई देते हैं। सीता के अपहरण से सीता व
राम की पीड़ा आज भी अनेक स्त्री-पुरुषों की भी पीड़ा है। राम सत्य की लड़ाई लड़ रहे थे
किंतु उन्हें पग-पग पर विरोध का सामना करना पड़ता है। सत्य के मार्ग पर चलना भी
नीरापद नहीं है। समाज में व्याप्त अनाचार और अन्याय आज भी सशक्त रूप में दिखाई
देते हैं। अनेक लोग उससे पीड़ित होते हैं तथा उनके कारण दंड भी सहन करना पड़ता है।
राम को यह देखकर दुःख होता है कि सत् और शक्ति अधर्म के साथ खड़ी है। आज के
भौतिकवादी समाज में सत् के मार्ग के अनेक पथिक लोभ-लालच में पड़कर अधर्म का साथ
देते हैं। साधारण आदमी के मन की पीड़ा राम की पीड़ा बनकर उभरी है।

प्रश्न. राम की शक्तिपूजा कविता
के नायक राम के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर. राम की शक्तिपूजा
महाप्राण निराला की एक प्रबंधक रचना है। उसके नायक राम हैं। राम के चरित्र की
विशेषताएँ निम्न हैं-

धीर, गंभीर और विचारशील- राम
धैर्यवान, गंभीर और विचारशील हैं। राम सीता के अपहरण को धैर्यपूर्वक सहते हैं तथा
वह रावण से उसकी मुक्ति के लिए उपाय सोचते हैं।

§  आशावादी-  राम आशावादी हैं।
वे रावण पर विजय पाकर सीता को मुक्त कराने की आशा मन में पाले हुए हैं।

§  निराश और हताश- राम को एक साधारण मनुष्य के रूप में दिखाया गया है।
महाशक्ति को रावण के पक्ष में देखकर राम हताश हो जाते हैं उन्हें अपनी विजय पर
संदेह होने लगता है।

§  दृढ़ निश्चयी- राम दृढ़ निश्चयी थे। वे शक्ति की उपासना के समय एक
नीलकमल गायब होने पर उसके स्थान पर वह अपना एक नेत्र दुर्गा को अर्पित करने के लिए
तैयार हो जाते हैं।

 

रचना-  कुरुक्षेत्र

रचयिता- रामधारी सिंह दिनकर

प्रश्न. क्षमा किस पुरुष को
शोभा देती है?

उत्तर. क्षमा वीर तथा पराक्रमी
पुरुष को शोभा देती है। जो निर्बल हैं, 
जिसमें अत्याचारी का विरोध करने की न इच्छा है, न ही सामर्थ्य। उसको किसी
को क्षमा करने का अधिकार भी नहीं होता। यह माना जाता है कि अत्याचारी को दंड देने
की सामर्थ्य न होने के कारण वह क्षमा करने की बात करता है और अपनी दुर्बलता को
छिपा लेता है

प्रश्न. ‘अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वंद्व हो जारी’ पंक्ति में कवि ने किनके बीच होने वाले संघर्ष की ओर संकेत
किया है? अहंकार एवं घृणा किसके प्रतीक हैं?

उत्तर. इस पंक्ति में कवि ने
शोषक और शोषितों के बीच चलने वाले संघर्ष की ओर संकेत किया है। शोषकों को अपनी
शक्ति का अहंकार होता है। शोषित उनके दमनकारी व्यवहार के कारण उनसे घृणा करते हैं।
दोनों के हित एक दूसरे के विरोधी होते हैं शोषक शोषण की सुविधा के लिए शांति
व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है। अहंकार शोषकों तथा घृणा शोषितों का प्रतीक हैं।

प्रश्न. “कौन  दोषी होगा इस रण का” पंक्ति के अनुसार
स्पष्ट कीजिए कि युद्ध किस कारण आरंभ होता है?

उत्तर. नए-नए बहाने बनाकर लोगों
का शोषण करनाए उनकी उपेक्षा करना तथा चुभने वाले कटुवचन कहना, उन्हें अपमानित करना
यह सब शोषित और पीड़ितों को उत्तेजित कर देते हैं। उनकी सहनशक्ति नष्ट हो जाती है
वे शोषकों का विरोध करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार युद्ध के दोषी असल
में आक्रमणकारी शोषित नहीं होते। वे तो मजबूरन आक्रमण करते हैं वास्तविक दोष उनका
होता है जो युद्ध के लिए उनको विवश कर देते हैं।

प्रश्न. निर्बल मनुष्य में दया,
क्षमा और सहनशीलता आदि गुण होने पर भी उसका आदर क्यों नहीं होता?

उत्तर. निर्बल मनुष्य में दया,
क्षमा और सहनशीलता आदि गुण हो तब भी लोग उसका आदर नहीं करते इसका कारण है उसका
निर्बल होना। जब मनुष्य शक्तिशाली होता है तभी संसार उसकी पूजा करता है। दुनिया
ताकत की ही पूजा करती है दया, क्षमा और सहनशीलता को लोग निर्बल व्यक्ति की कमजोरी
समझते हैं।

प्रश्न. शांति कितने प्रकार की
होती है? उनमें क्या अंतर होता है?

उत्तर. शांति दो प्रकार की होती
है। पहली शासकों तथा बलवान लोगों द्वारा शक्ति के बल पर स्थापित की गई शांति तथा
दूसरी जनता के बीच स्वीकृत स्वाभाविक रुप से स्वीकृत शांति। बल से स्थापित शांति
बनावटी होती है तथा उसके विरुद्ध विद्रोह होने का भय भी निरंतर बना रहता है शांति
तब होती है जब समाज में किसी का शोषण नहीं होता तथा सबको न्यायोचित अधिकार सुलभ
रहते हैं।

प्रश्न. युद्ध निंदनीय तथा
शांति प्रशंसनीय कब होती हैघ् कुरुक्षेत्र कविता के आधार पर लिखिए।

उत्तर. प्रत्येक दशा में युद्ध
निंदनीय तथा शांति प्रशंसनीय नहीं होती। शांति अच्छी और प्रशंसनीय तब होती है जब
वह सच्ची शांति हो। कृत्रिम शांति प्रशंसनीय नहीं होती जब मनुष्य स्वेच्छा सेए
अपने मन से शांति व्यवस्था का समर्थन करते हैं तो शांति प्रशंसनीय होती है इस
प्रकार की शांति की स्थापना के लिए बल प्रयोग करने की जरूरत नहीं होती। सच्ची
शांति व्यवस्था में लोगों को सुखपूर्वक जीने का अवसर मिलता है कोई किसी का शोषण और
दमन नहीं करता।

युद्ध निंदनीय होता है किंतु
सदैव नहीं। जब कोई आततायी किसी की संपत्ति और राज्य हड़पने के लिए आक्रमण करता है
तो युद्ध निंदनीय होता है। दूसरे के सुख.साधन छीनने और धन.दौलत लूटने के इरादे से
होने वाला युद्ध निंदा योग्य है। यदि युद्ध अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए
किया जाता है तो वह निंदनीय नहीं होता इस प्रकार युद्ध और शांति दोनों ही स्थिति
परिस्थिति के अनुसार निंदनीय अथवा प्रशंसनीय हो सकते हैंण्

प्रश्न. श्सच पूछो तो शर में
बसती है दीप्ति विजय कीष्ष् पंक्ति के आधार पर कुरुक्षेत्र काव्यांश का ध्येय
लिखिए।

उत्तर. इस काव्यांश में कवि ने
जीवन में शक्ति.सामर्थ्य को ही सारे मानवीय गुणों का आधार सिद्ध करना चाहा है।
भीष्म द्वारा यही संदेश दिलवाया गया है। विनम्रता की चमक.दमक बाण अर्थात
अस्त्र.शस्त्र से ही प्रकट होती है। शस्त्रहीनए शक्तिहीन पुरुष की विनम्रता
निरर्थक होती है। जिस वीर पुरुष में शत्रु को परास्त करने की शक्ति होती है उसी की
मेल.जोल की नीति तथा संधि समझौते की बातें स्वीकार ये होती हैं। संधि की शर्तें तय
करने का अधिकारी शक्तिशाली मनुष्य ही होता है। जब मनुष्य की वीरता और पराक्रम
लोगों को स्पष्ट दिखाई देते हैं तभी संसार उनका आदर करता है।

 

रचना-  भारतमाता, धरती कितना देती है

रचनाकार-  सुमित्रानंदन पंत

प्रश्न. धरती कितना देती है
कविता का केंद्रीय भाव लिखिए।

उत्तर. धरती कितना देती है
कविता में कवि ने मनुष्य की जीवन में सत्कर्म के महत्त्व का प्रतिपादन किया है।
अच्छे काम करने से ही मानव जीवन तथा समाज का हित होना संभव है। कवि भाग्यवाद से
प्रेरित है अथवा यह भी कह सकते हैं कि कवि गीता के कर्मवाद का संदेश दे रहा है।
कवि के शब्दों में कहा जाए तो कहा जा सकता है कि हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पाएँगे

प्रश्न. भारत माता कविता की दो
विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर. कवि ने भारत माता के
माध्यम से भारत के दीन और शोषित जनों का चित्रण किया है। भारत गाँवों में बसता है।
अतः कवि भारत माता को ग्रामवासिनी कहता है। भारत माता की दरिद्रता का वर्णन करके
ही कवि निराश नहीं हैं। उसमें आशा की भावना प्रखर है। वह गाँधीवादी अहिंसा में
भारत की मुक्ति के दर्शन करता है। (यह 
कविता वस्तुतः तब लिखी गई थी जब भारत स्वतंत्र नहीं था)


पुस्तक-
मंदाकिनी

इस पाठ्यपुस्तक में से 1
निबंधात्मक प्रश्न (आंतरिक विकल्प सहित) अंकभार 4 तथा 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न
(प्रत्येक का अंकभार 3-3 अंक) आएँगे।

पाठ. हिंदी गद्य का विकास

प्रश्न. क्या गद्य आज हमारी
सांस्कृतिक गतिविधियों का आधार बन गया है?

उत्तर. आज का युग गद्य युग कहा
जाता है। दो व्यक्तियों के बीच साधारण बातचीत से लेकर गंभीर विषयों पर गोष्ठियों
के आयोजन आदि सभी गतिविधियों में गद्य का ही प्रयोग होता है। ज्ञान-विज्ञान, कला,
शिल्प, तकनीक आदि ऐसे विषय है जहाँ ग्रंथ रचना से लेकर उन पर व्याख्यान आदि सभी
गद्य के माध्यम से ही संभव है।

प्रश्न.  रिपोर्ताज का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर. रिपोर्ताज फ्रांसीसी
भाषा का शब्द है। यह रिपोर्ट का ही साहित्य के रूप होता है। किसी घटना के तथ्यों
तथा उपस्थित व्यक्तियों के विचारों को रोचक शैली में प्रस्तुत करना ही रिपोर्ताज
कहलाता है। दूसरे विश्वयुद्धए आजाद हिंद सेना का निर्माणए बंगाल के अकाल आदि ने
रिपोर्ताज को हिंदी गद्य साहित्य का अंग बना दिया।

प्रश्न. फीचर विधा क्या
है?  संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर. यह विधा अभी
पत्र.पत्रिकाओं के स्तंभों में अधिक दिखाई दे रही है फ़ीचर द्वारा लेखक किसी स्थान
का सजीव वर्णन प्रस्तुत करता है इसे रूपक भी कहा जाता है। फीचर में प्रस्तुत कथा
के साथ एक अंतर्कथा भी चलती है। फीचर लेखक का उद्देश्य स्थान विशेष का सर्वांगीण
परिचय कराना होता है फीचर विधा हिंदी गद्य साहित्य में धीरे.धीरे अपना स्थान बना
रही है।

प्रश्न. संस्कृत विद्वानों ने
गद्य की परिभाषा के विषय में क्या कहा है?

उत्तर. आचार्य भामह ने गद्य को
स्वाभाविक, व्यवस्थित, शब्दार्थ युक्त पदावली कहा है। वामन ने कोई परिभाषा तो नहीं
दी किंतु कहा है कि ‘गद्य कवियों की कसौटी है’ ऐसा  कहकर गद्य के महत्त्व का परिचय करवाया है।
आचार्य दंडी ने गद्य को चरणों में अविभाजित है तथा गण और मात्राओं से रहित रचना
माना है। विश्वनाथ ने भी गद्य की कोई परिभाषा नहीं दी है केवल उसको काव्य मानते
हुए  4 
भेदों की चर्चा की है।

पाठ. राष्ट्र का स्वरूप

लेखक. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल

प्रश्न. मेघ हमारे अध्ययन की
परिधि में क्यों आने चाहिए?

उत्तर. मेघ अर्थात बादल, बादलों
के बरसने से ही पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है। प्रकृति अपने सौंदर्य को प्राप्त
करती है। पेड़-पौधे और विभिन्न प्रकार की वनस्पति विकसित होती है। वर्षा का यह जल
विभिन्न रुप से सहायक सिद्ध होता है। अतः उसके निर्माण और विकास की प्रक्रिया को
जानना हमारे लिए आवश्यक है। जब हम मेघों का अध्ययन करेंगे तभी हमें उसकी
निर्माण-प्रक्रिया और पृथ्वी के लिए उसकी उपयोगिता का ज्ञान होगा।

प्रश्न. लेखक ने संस्कृति को
राष्ट्र के  विटप का पुष्प क्यों कहा है?

उत्तर. लेखक डॉ. वासुदेवशरण
अग्रवाल ने राष्ट्र को विटप अर्थात पेड़ तथा उसकी संस्कृति को पुष्प कहा है। जब
किसी वृक्ष का पूर्ण विकास हो जाता है तब ही वह पुष्पित होता है। पुष्पों से लदे
वृक्ष की शोभा दर्शनीय होती है। पुष्प उसकी शोभा, सौंदर्य और आकर्षण को बढ़ाते हैं।
इसी प्रकार किसी राष्ट्र के उन्नत होने पर उसकी संस्कृति विकसित होगी। संस्कृति उस
राष्ट्र को महत्त्वपूर्ण बनाती है। समस्त विश्व उस राष्ट्र का मूल्यांकन उसकी
संस्कृति को देखकर ही करता है।

रचना. निर्वासित कहानी

लेखिका- सूर्यबाला

प्रश्न- वर्तमान युग में वृद्ध
दंपतियों को एकाकीपन का दंश झेलना पड़ रहा है। इस कथन की पुष्टि निर्वासित कहानी के
आधार पर कीजिए।

उत्तर. नगरों के बढ़ते आकार,
सिकुड़ते घर और संकीर्ण होती मानसिकता ने बुजुर्गों को अकेले और निर्वासित जीवन
जीने को विवश कर दिया है। वृद्ध दंपती या तो अकेले जीवनयापन करते हैं या उनकी
संतान उन्हें विभाजित करके एकाकी जीवन जीने को बाध्य कर देती है। आज की युवा पीढ़ी
भौतिक सुखों तथा अपने सपनों को साकार करने में इतनी स्वार्थी हो गई है कि
बुजुर्गों को घर की शान, मान एवं अनमोल धरोहर समझने के स्थान पर उन्हें भारस्वरूप
समझने लगी है। ऐसे माहौल में वृद्ध दंपतियों को एकाकी जीवन जीना पड़ता है।

प्रश्न. ऐसी क्या बात हुई जिसने
राजेन की माँ और बाबूजी को अंदर तक झकझोर दिया?

उत्तर. जब बाबूजी ने माँ को
बताया कि उन्हें अपने छोटे बेटे रणधीर के साथ उसके घर जाना होगा और उसे (राजेन की
माँ) बड़े बेटे राजेन के साथ यहीं रहना होगा। इस अप्रत्याशित बात ने उन दोनों को
अंदर तक झकझोर दिया। एक-दूसरे के बिना रहने की कल्पना ने उन्हें अंदर तक तोड़ दिया।
दोनों के लिए यह एक असहनीय पीड़ा थी।

प्रश्न. बड़े बेटे राजेन के पास
जाने की बात पर पड़ोसियों ने क्या कहा?

उत्तर. रिटायर होने के बाद डेढ़
साल तक तो राजेन उन्हें पैसे भेजता रहा। एक दिन उसने पत्र भेजकर दोनों को अपने पास
आने के लिए कहा। यह बात जानकर पड़ोसियों ने उन दोनों को राजेन के पास जाकर रहने के
लाभ बताते हुए कहा और समझाया। अनेक तर्क उनके समक्ष रखे गए। एक अन्य पड़ोसन ने
उन्हें न जाने की सलाह देते हुए कहा कि ये सब कचौड़ी.पकौड़ी एक तरफ और अपना सुराज एक
तरफ। इस प्रकार पड़ोसियों ने उन्हें बेटे के पास जाने और न जाने के बारे में
समझाया।

प्रश्न. बुजुर्गों के प्रति
युवा पीढ़ी का क्या नजरिया होता है युववर्ग और बुजुर्गों की सोच और व्यवहार में
अंतर को स्पष्ट करें। इस अंतर को किस प्रकार दूर किया जा सकता हैघ्

उत्तर. प्रत्येक संतान की
सफलता.असफलता एवं चरित्र निर्माण में माता.पिता के योगदान को नकारा नहीं जा सकता
यदि संतान की सफलता मेंमाता.पिता का योगदान होता है तो उसके चारित्रिक पतन या उसके
व्यक्तित्व का विकास न होने के लिए भी माता.पिता ही उत्तरदायी होते हैं। अतः
युवकों के लिए बुजुर्गों का बहुत महत्त्व है किंतु आज का युवा कुछ भिन्न प्रकार की
सोच रखता है वह सफलता का श्रेय सिर्फ अपनी मेहनत और लगन को देता है और असफलता के
लिए बुजुर्गों को दोषी ठहराता है आज के युवा के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में रखी
ऐसी मूर्ति के समान होता है जिसे दो वक्त की रोटीए कपड़ा और दवा की आवश्यकता होती
है। उसके नजरिए के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके होते हैं उनकी आवश्यकताएँ
और भावनाएँ महत्त्वपूर्ण नहीं होती। अब उन्हें सिर्फ मृत्यु का इंतजार होता है।

आज का युवा अपने बुजुर्गों के
कठोर अनुशासन पसंद व्यक्तित्व के आगे नहीं झुकता सिर्फ बुजुर्ग होने के कारण उनकी
तर्कहीन बातों को स्वीकार कर लेना उसके लिए असहनीय होता है। उन्हें भी आज की पीढ़ी
का व्यवहार उद्दंडतापूर्ण प्रतीत होता है। समाज में आ रहे बदलाव उन्हें विचलित
करते हैं।

इन सब मतभेदों को दूर करने के
लिए आवश्यक है कि बुजुर्ग पीढ़ी अपनी संतान के मन को समझें। बुजुर्गों को चाहिए कि
वह संतान के दुःख में भागीदार बनें। दूसरी ओर युवा पीढ़ी को भी वृद्धजनों के साथ
प्रेम और आदर के साथ पेश आना चाहिए तथा उनके अनुभवों और सुझावों का सम्मान करते
हुए उनसे लाभ लेना चाहिए।

पाठ. सुभाषचंद्र बोस
(जीवनी)

प्रश्न. मेरा घर तो गंदा था ही
मेरा मन उससे ज्यादा गंदा था। आपकी सेवाओं ने मेरी दोनों गंदगियों को निकल दिया
हैए किसका कथन है तथा ऐसा कहने का क्या कारण था?

अथवा

हैदर गुंडे का हृदय परिवर्तन
किस कारण हुआ?

उत्तर-  यह कथन हैदर का है। हैदर नगर का कुख्यात गुंडा
था। वह आए दिन सुभाष और उनकी मित्र मंडली के सेवा कार्य में बाधा डालता था। एक दिन
हैजे ने उसके परिवार को भी चपेट में ले लिया। इससे मुक्ति के लिए वह नगर के
प्रत्येक डॉक्टर के पास गया किंतु कोई भी उसके साथ नहीं आया। जब वह निराश होकर
लौटा तो यह देखकर चकित रह गया सेवादार बच्चे उसके घर की सफाई कर रहे थे। घर वालों
को दवा खिला रहे थे। उसका मन बहला रहे थे। यह वही बच्चे थे जिनके काम में वह
अड़चनें खड़ी करता था। उनके इस सेवा कार्य को देखकर उसका हृदय परिवर्तित हो गया उसने
सुभाष के चरण पकड़कर यह शब्द कहे थे।

प्रश्न. सुभाष बाबू ने मांडले
जेल के वातावरण का वर्णन किस प्रकार किया है?

उत्तर.  सुभाष बाबू ने मांडले जेल के वातावरण का वर्णन
करते हुए कहा है कि वहाँ चारों ओर धूल ही धूल थी। मांडले जेल की वायु भी धूलयुक्त
थी,  जिसके कारण साँस के साथ धूल अंदर जाती
थी। इतना ही नहीं भोजन की धूल धूसरित हो जाता था और उन्हें वही भोजन खाना पड़ता था।
सब तरफ बस धूल ही धूल थी। जब यहाँ धूल भरी आँधियाँ चलती थी तो दूर-दूर तक के पेड़
और पहाड़ियाँ सब ढक जाती थी। उस समय धूल के पूर्ण सौंदर्य के दर्शन होते थे। सुभाष
बाबू ने इसी धूल को दूसरा परमेश्वर कहा है।

पाठ. भारत के महान वैज्ञानिक सर जगदीशचंद्र बोस

लेखक. परमहंस योगानंद।

यह पाठ परमहंस योगानंद की
आत्मकथा ‘योगी कथामृत’ से लिया गया है। इसमें परमहंस योगानंद द्वारा सर जगदीशचंद्र
बोस के साक्षात्कार के अंश शामिल किए गए हैं।

प्रश्न. बोस के क्रेस्कोग्राफ
की क्या विशेषता थी? लिखिए

उत्तर. सर बोस द्वारा आविष्कृत
क्रेस्कोग्राफ से पौधों में होने वाली सूक्ष्म से सूक्ष्म जैविक क्रिया स्पष्ट
दिखाई देती थी। इसकी परिवर्धन शक्ति एक करोड़ गुणा है। इस आविष्कार के माध्यम से
बड़े से बड़े पेड़ को आसानी से स्थानांतरित किया जा सकता है। इसी के माध्यम से यह भी
सिद्ध हुआ कि पौधों में संवेदनशील स्नायुतंत्र होता है।

प्रश्न. अपने आविष्कार के
माध्यम से बोस ने क्या सिद्ध किया?

उत्तर. अपने आविष्कार
क्रेस्कोग्राफ के माध्यम से वह सर बोस ने यह सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी
संवेदनशील स्नायुतंत्र होता है। उनका जीवन भी विभिन्न भावनाओं से परिपूर्ण होता
है। वे भी प्रेम, घृणा, आनंद, भय, सुख-दुःख, चोट, दर्द, मूर्छा जैसी अन्य
उत्तेजनाओं के प्रति संवेदनशील होते हैं। अन्य प्राणियों की समान ही प्रतिक्रिया
भावानुभूति पेड़-पौधों में भी होती है।

प्रश्न. सर बोस के किन शब्दों
को सुनकर योगानंद जी की आँखें भर आई?

उत्तर. सर बोस ने अपने भाषण के
अंत में कहा कि विज्ञान न तो पूर्व का है न पश्चिम का। बल्कि अपनी सार्वभौमिकता
एवं सार्वलौकिकता के कारण वह सभी देशों का है। परंतु फिर भी भारत इसके विकास में
महान योगदान देने के लिए विशेष रूप से योग्य है। भारतीयों की ज्वलंत कल्पनाशक्ति
तो ऊपर-ऊपर परस्पर विरोधी लगने वाले तथ्यों की गुत्थी से भी नया सूत्र निकाल सकती
है। परंतु एकाग्रता की आदत ने इसे रोक रखा है। संयम मन को अनंत धीरज के साथ सत्य
की खोज में लगाए रखने की शक्ति प्रदान करता है उसकी इन शब्दों को सुनकर योगानंद जी
की आँखें भर आई।


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लेखक. जगदीश चंद्र माथुर

प्रश्न. शेखर को राजकवि क्यों
बनाया गया?

उत्तर. एक उत्सव के अवसर पर
छाया के मुख से मधुर गीत सुनकर सम्राट स्कंदगुप्त मंत्रमुग्ध हो गए। उनके द्वारा
गीत के रचनाकार का नाम पूछे जाने पर छाया ने शेखर का नाम बताया और उसे राजकवि
बनाने की बात कही। छाया की बात मानकर और उसके द्वारा रचित गीत से प्रसन्न होकर सम्राट
द्वारा शेखर को राजकवि बनाया गया।

प्रश्न. भोर का तारा एकांकी का
नायक कौन है? उसका चरित्र-चित्रण कीजिए।

उत्तर. भोर का तारा एकांकी का
नायक शेखर है। वह सच्चा प्रेमी, कर्तव्य के प्रति त्याग को तत्पर रहने वाला युवक
है। उसके चरित्र की विशेषताएँ निम्न हैं-

 (अ) 
सहृदय कवि- शेखर एक सहृदय कवि है। वह प्रकृति के हर तत्त्व में कविता को
देखता है। उसे राजपथ पर भीख माँगने वाली स्त्री में भी कला दिखाई देती है। उसके
रचित गीत पर मुग्ध होकर सम्राट उसे अपना राजकवि बना लेता है।

(ब) भावुक व्यक्ति-  शेखर एक भावुक व्यक्ति है। वह अपने भावों को
अपनी कविता के माध्यम से प्रकट करता है

(स) सच्चा प्रेमी- शेखर एक
सच्चा प्रेमी है। वह छाया और अपने बीच के अंतर को जानता है वह सदैव अपनी सीमा में
रहकर छाया को चाहता है। 

(द) राजभक्त-  राजकवि नियुक्त होने पर अपने कवि कर्म के
द्वारा राजा को प्रसन्न करता है किंतु उन्हें ज्ञात होने पर कि राष्ट्र पर संकट आ
गया है वह व्यक्तिगत प्रेम संबंधी अपनी रचना को आग के हवाले कर देता है।

(य)  कर्तव्य के प्रति सजग एवं त्याग को तत्पर-  शेखर अपने कर्तव्य के प्रति सजग है वह कवि-कर्म
द्वारा देश के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन हेतु देशवासियों को सजग करता है।

प्रश्न. भोर का तारा एक निजी
प्रेम-प्रधान एकांकी है या देश प्रेम प्रधान एकांकी? कारण सहित उत्तर दीजिए

उत्तर. भोर का तारा एकांकी आरंभ
से मध्य तक निजी प्रेम से परिपूर्ण एकांकी प्रतीत होता है। जिसका नायक शेखर अपनी
प्रेयसी के प्रेम से प्रेरणा लेकर काव्य रचना करता है। वह जीवन के प्रत्येक अंग
में प्रेम देखता है किंतु जैसे-जैसे मध्य से आगे बढ़ता है वह निजी प्रेम से देश
प्रेम में बदलता जाता है। माधव के द्वारा यह सूचना पाकर कि भारत में हूणों का
प्रवेश हो चुका है और वे अपने अत्याचार और अन्याय से लोगों को प्रताड़ित कर रहे
हैं, स्वदेश प्रेम में परिणत हो जाता है। माधव से अपनी ओजपूर्ण वाणी में देश के
युवाओं में देश के प्रति प्रेम और चेतना जगाने को कहता है। शेखर देशवासियों को
जाग्रत करता है। वह अपनी प्रेम की निशानी भोर का तारा को आग के हवाले कर देता है
इस प्रकार निजी प्रेम के ऊपर राष्ट्रप्रेम विजयी होता है।

पाठ. गेहूँ बनाम गुलाब

लेखक. रामवृक्ष बेनीपुरी।

इस पाठ में लेखक ने गेहूँ को
मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं का प्रतीक माना है वहीं गुलाब को मानव की सांस्कृतिक
प्रगति का प्रतीक माना है।

गुलाब मनुष्य के मानसिक विकास
को सूचित करता है।

प्रश्न. गेहूँ पर गुलाब की
प्रभुता से क्या तात्पर्य है?

उत्तर. मनुष्य को भौतिक वस्तुओं
के जंजाल से मुक्त होकर सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक सौंदर्य के आनंद को प्राप्त करना
होगा। भौतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आवश्यकताओं के स्थान पर सांस्कृतिक एवं मानसिक
आवश्यकताओं को महत्त्व देना होगा। मनुष्य को मानसिक आवश्यकताओं का स्तर शारीरिक
आवश्यकता के स्तर से ऊँचा उठाना होगा। तभी यह गेहूँ पर गुलाब की प्रभुता संभव हो
पाएगी।

प्रश्न. ‘शौक-ए-दीदार अगर है तो
नज़र पैदा कर’ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर. लेखक कहते हैं कि जल्द
ही इस संसार से भौतिक युग समाप्त हो जाएगा और लोग धन तथा अपने स्वार्थों को
महत्त्व देने के स्थान पर श्रेष्ठ और महान विचारों तथा प्रेम और सौहार्द्र पर
आधारित भावनाओं को महत्त्व देना शुरू कर देंगे। शारीरिक भूख और तृप्ति के स्थान पर
मानसिक संतोष और भावनाओं की संतुष्टि पर अधिक बल दिया जाएगा। संपूर्ण संसार सुखमय
हो जाएगा यदि कोई आने वाले ऐसे सुनहरे युग को देखना और महसूस करना चाहता है तो उसे
स्वयं के प्रत्यक्षीकरण की प्रबल जिज्ञासा पैदा करनी होगी।

हिंदी साहित्य का आधुनिक
काल

 

प्रश्न. भारतेंदु युग को
पुनर्जागरण काल क्यों कहा जाता है?  इस काल
के गद्य साहित्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर. भारतेंदु पुरानी और नई
के संधि स्थल पर हैं। इस युग में रीतिकाल की शृंगार प्रवृत्ति,  व्यक्ति महिमा के स्थान पर कवि गण समाज और
राष्ट्र को उद्बोधन देने वाली लोक मंगलकारी दृष्टि अपनाने लगे थे। इसी कारण
भारतेंदु युग को पुनर्जागरणकाल कहा जाता है। भारतेंदु युग के गद्य साहित्य में
गद्य की लगभग सभी विधाओं में यथा नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना इत्यादि का
विकास एवं लेखन हुआ। इसमें सांस्कृतिक जागरण का संदेश निहित था। भारतेंदुयुगीन
गद्य साहित्य में धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन एवं
सुधार की आवाज मुखर थी। इस काल के गद्य साहित्य में मातृभूमि प्रेम, स्वदेशी की
भावना, कुरीतियों का विरोध,  शिक्षा का
महत्त्व, मद्य का निषेध,  बाल-विवाह
इत्यादि विषयों पर लेखकों ने अपने विचार प्रकाशित किए। ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज,
स्वामी विवेकानंद व थियोसोफिकल सोसायटी के सिद्धांतों ने भी गद्यकारों को प्रभावित
किया।

प्रश्न.  भारतेंदु युग को पुनर्जागरणकाल क्यों कहा जाता
है?  इस काल के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाओं
का उल्लेख कीजिए।

उत्तर. भारतेंदु युग में जन
चेतना पुनर्जागरण की भावना से भरी हुई थी इस कारण उस समय की साहित्य चेतना
मध्यकालीन रचना प्रवृत्तियों तक सीमित न रहकर नई दिशाओं की ओर बढ़ने लगी इस कारण इस
युग को पुनर्जागरणकाल कहा जाता है। इस काल के प्रमुख कवि भारतेंदु हरिश्चंद्रए
प्रेमघन; बद्रीनारायण चौधरीद्धए प्रतापनारायण मिश्रए ठाकुर जगन्मोहनसिंहए
अंबिकादत्त व्यासए राधाकृष्ण दास थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ भारतेंदु कृत-
विद्यासुंदर, मुद्राराक्षस, भारतदुर्दशा, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, अंधेर नगरी,
प्रेमजोगिनी। प्रेमघन कृत- मयंक महिमा, लालित्य लहरी, जीर्ण जनपद। प्रतापनारायण
मिश्र कृत-प्रेम पुष्पावली,  शृंगार विलास।
अंबिकादत्त व्यास कृत- हो हो होरी, पारस पतासा, 
सुकवि सतसई। बालकृष्ण भट्ट कृत- सौ अजान एक सुजान, नूतन ब्रह्मचारी, रहस्य
कथा। राधाचरण गोस्वामी कृत- नवभक्तमाल, 
श्रीदामा चरित, तन मन धन गोसाई जी अर्पण, 
बूढ़े मुँह मुँहासे लोग देखे तमाशे इनके अतिरिक्त अन्य कवियों ने भी
भारतेंदु काल को अपने काव्य से समृद्ध किया।

प्रश्न. द्विवेदी युग को जागरण
सुधार काल क्यों कहा जाता है?

उत्तर. द्विवेदी युग का नामकरण
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हुआ है। आचार्य द्विवेदी ने सन् 1903 से
सरस्वती पत्रिका का संपादन शुरू किया था। इस पत्रिका में इन्होंने खड़ी बोली को
अपनाया। द्विवेदी जी भाषा की शुद्धता एवं वर्तनी की एकरूपता के प्रबल समर्थक थे।
अतः आपने काव्यभाषा का व्याकरण की दृष्टि से परिमार्जन किया। द्विवेदी जी ने
समस्या पूर्ति को छोड़ने एवं स्वतंत्रता विषय पर कविता लिखने का परामर्श दिया इस
कारण यह युग जागरण सुधारकाल के नाम से अभिहित किया जाता है।

प्रश्न. छायावादयुगीन कहानी
विधा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

उत्तर. आधुनिक हिंदी कहानी का
विकास सच्चे अर्थों में इसी काल में हुआ था। कहानी परंपरा में प्रेमचंद का
आदर्शवादी एवं यथार्थवादी दृष्टिकोण साथ-साथ दिखाई देता है। आपने तकरीबन 300
कहानियाँ लिखीं। जो मानसरोवर के आठ खंडों में प्रकाशित हुई थी। बूढ़ी काकी,
कजाकी,  सवा सेर गेहूँ, ठाकुर का कुआँ,
ईदगाह, सद्गति इनकी मुख्य कहानियाँ हैं। इस काल के दूसरे प्रमुख कहानीकार जयशंकर
प्रसाद हैं। इनकी कहानियों में जीवन के यथार्थ की जगह स्वर्णिम अतीत के गौरव को
अधिक स्थान दिया गया है। प्रतिध्वनि, इंद्रजाल, आकाशदीप और आँधी इनके मुख्य कहानी
संग्रह हैं। इस युग के अन्य कहानीकारों में विशंभरनाथ कौशिक, सुदर्शन प्रेमचंद की
धारा के अनुयायी हैं। पांडे बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने एक नई कहानी धारा का विकास किया।
उनकी कहानियों में सामाजिक विद्रोह के खिलाफ उग्र आक्रोश की अभिव्यक्ति हुई है।
जैनेंद्र ने कहानी को ‘घटना’ के स्तर से मानव चरित्र और मनोवैज्ञानिक स्तर पर ला
खड़ा किया। अज्ञेय ने भारतीय समाज की रूढ़िवादिता, शोषण, तत्कालीन विश्व में व्याप्त
संघर्ष को अपनी कहानियों में स्थान दिया। राहुल सांकृत्यायन और सुभद्रा कुमारी
चौहान ने सामाजिक व पारिवारिक व्यवहार पर केंद्रित कहानियों की रचना की।

प्रश्न. नई कविता क्या है? नई
कविता की प्रमुख विशेषता एवं कवियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

उत्तर. प्रयोगवाद का विकास ही
कालांतर में नई कविता के रूप में हुआ। प्रयोगवाद और नई कविता के मध्य कोई निश्चित
सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती। बहुत से प्रयोगवादी कवियों ने नई कविता भी लिखी। नई
कविता की पहली विशेषता जीवन के प्रति आस्था है। इन कविताओं में आज की क्षणवादिता
और लघु.मानवतावादी दृष्टि जीवन मूल्यों के प्रति नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक
है। नई कविता में जीवन को पूर्ण रूप से स्वीकार कर उसे भोगने की लालसा दिखाई देती
है। अनुभूति की सच्चाई भी नई कविता में दिखाई देती है नई कविता जीवन के एक-एक क्षण
को सत्य मानती है। नई कविता में जीवन मूल्यों की नई दृष्टिकोण से व्याख्या की गई
है। लोक से जुड़ाव ही नई कविता की मुख्य विशेषता है। नई कविता में नवीनताए
बौद्धिकता, अतिशय वैयक्तिकता, क्षणवादिता, भोग एवं वासना, यथार्थवादिता, आधुनिक
बोध, प्रणयानुभूति, लोक संस्कृति, नया शिल्प विधान आदि विशेषताएँ मिलती हैं।
गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध, जगदीश गुप्त, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन इत्यादि
इसके मुख्य हस्ताक्षर हैं।


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