UNIT : 03 राजनीतिक विचारधाराएँ
कक्षा 12 राजनीति विज्ञान : यूनिट III राजनीतिक
विचारधाराएँ उदारवाद समाजवाद मार्क्सवाद गांधीवाद
L- 8 :
उदारवाद
अर्थ :-
उदारवाद का अंग्रेजी पर्याय लिबरलिज्म
है जो कि लेटिन भाषा के
लिबर शब्द से बना है जिसका अर्थ है स्वतंत्र।
उदारवाद ( हिन्दी शब्द )
Liberalism ( अंग्रेजी शब्द )
Liber ( लैटिन शब्द )
स्वतंत्र / मुक्त
अतः उदारवाद एक ऐसी
विचारधारा है जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल दिया गया हैं और राज्य की
सीमितता पर बल दिया गया है।
उदारवाद की उत्पत्ति के कारण :-
मध्यकालीन व्यवस्थाओं में राज्य व चर्च की अव्यवस्थाओं के कारण आए निम्न आंदोलनों द्वारा उदारवाद की
उत्पत्ति हुई :-
1. सामंतवाद का पतन।
2. निरंकुशवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया।
3. पुनर्जागरण आंदोलन।
4. धर्म सुधार आंदोलन।
5. औद्योगिक क्रांति व पूंजीपति वर्ग का उदय।
उदारवाद का
विकास :-
उदारवाद सामंतवादी व्यवस्था के पतन और यूरोप की दो महान क्रांतियों – 1. पुनर्जागरण व 2. धर्म सुधार आंदोलन की देन है। इनके फलस्वरूप इंग्लैंड में औद्योगीकरण की शुरुआत हुई जिससे पूंजीपति वर्ग का
उदय हुआ। अपने विकास के प्रथम चरण में उदारवाद ने पूंजीपति वर्ग का पक्ष लिया। परंतु मार्क्सवादी एवं साम्यवादी विचारधारा के डर से यह गरीबों के
हित की बात करने लगा। वर्तमान में उदारवाद लोककल्याण की अवधारणा
का प्रबल समर्थक बना हुआ है। प्रारंभिक समय में उदारवाद का स्वरूप
नकारात्मकता था। इसे चिरसम्मत या शास्त्रीय उदारवाद भी कहा जाता है। इसका प्रवर्तक जॉन लॉक था जिसने
व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल देते हुए राज्य को व्यक्तिगत कार्यों में हस्तक्षेप
नहीं करने की बात कही। इस विचारधारा का समर्थन जेरेमी बेंथम, एडम स्मिथ, जेम्स मिल, हरबर्ट स्पेंसर आदि ने किया। 19वीं शताब्दी में जे. एस. मिल ने उदारवाद के सकारात्मक स्वरूप को प्रस्तुत किया जिसका समर्थन लास्की, मैकाइवर, रिची आदि ने किया। उदारवाद के विकास में के विभिन्न
चरणों में निम्न क्रांतियों
ने विशेष योगदान दिया है :-
क्रम | क्रांति | योगदान |
1 | 1688 | व्यक्तिवाद |
2 | 1776 | अधिकारों |
3 | 1789 | स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व पर बल |
उदारवाद की विशेषताएं/ प्रकृति/सिद्धान्त/ तत्व
:-
1.व्यक्ति के विवेक में विश्वास :-
उदारवादी व्यक्ति को विवेकशील प्राणी मानते हैं। उनका मानना है कि व्यक्तियों ने अपने विवेक द्वारा ही राज्य जैसी संस्थाओं
का निर्माण किया है।
2. राज्य उत्पत्ति का कारण सहमति :-
उदारवाद के अनुसार व्यक्तियों ने आपस में समझौता कर अपने अधिकार राज्य को सौंपे हैं अर्थात आपसी सहमति से राज्य का निर्माण
हुआ है।
3. व्यक्ति और राज्य का संबंध समझौते पर आधारित :-
व्यक्ति और राज्य का संबंध एक समझौते पर आधारित है जिसमें सभी व्यक्तियों
ने अपने अधिकार राज्य को सौंप दिए और प्रत्युत्तर में राज्य ने व्यक्तियों की रक्षा, विकास आदि हेतु अपनी जवाबदेही
निर्धारित की है।
4.
कानून सर्वोच्च :-
उदारवादियों का मानना है कि देश का संविधान
या कानून ही सर्वोच्च है। इसका उल्लंघन न तो नागरिक कर सकते
हैं और न ही राज्य।
5. सीमित सरकार :-
उदारवादियों का मानना है कि कम से कम शासन करने वाली सरकार ही अच्छी सरकार
होती हैं अर्थात राज्य के कार्य सीमित होने चाहिए।
6. स्वतंत्रता में विश्वास :-
उदारवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करता हैं। उनका मानना है कि राज्य को व्यक्ति के कार्यो में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
7.
आर्थिक
क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता :-
उदारवादियों ने मुक्त बाजार व्यवस्था पर बल देते हुए कहा है कि आर्थिक क्षेत्र में
व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता दे देनी चाहिए।
8. व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार :-
उदारवादियों ने व्यक्तिगत संपत्ति का समर्थन
करते हुए कहा है कि व्यक्ति को संपत्ति अर्जित करने का अधिकार होना चाहिए।
9. प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन :-
उदारवादियों ने प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करते हुए जीवन, स्वतंत्रता व संपत्ति के प्राकृतिक अधिकारों की वकालत की है।
उदारवाद
के प्रकार
:-
I. परंपरागत उदारवाद :-
इसे शास्त्रीय / चिरसम्मत /नकारात्मक / उदान्त उदारवाद के नाम से भी ज्यादा जाना जाता है। उदारवाद को एक विचारधारा के रूप में सर्वप्रथम जॉन लॉक ने प्रस्तुत
किया। इसलिए जॉन लॉक को उदारवाद का जनक कहा जाता
है। परंपरागत उदारवाद व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सीमित राज्य और मुक्त व्यापार
का समर्थन कर पूंजीवाद का समर्थन करता है तथा राज्य को एक आवश्यक बुराई समझता है जिसके
कारण इसका स्वरूप नकारात्मक हो गया। इस विचारधारा का काल 17वीं
से 18वीं सदी तक रहा। इसके समर्थक लॉक, हॉब्स, ह्यूम, स्मिथ, स्पेंसर, पेन, अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा, फ्रेंच क्रांति आदि है।
परम्परागत उदारवाद की विशेषताएं :-
A. दार्शनिक आधार पर :-
1. व्यक्तिवाद पर बल।
2. मनुष्य की विवेकशीलता व अच्छाई में विश्वास।
3. मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों
में विश्वास।
4. व्यक्तियों की आध्यात्मिक समानता
में विश्वास।
5. व्यक्तियों की स्वतंत्र इच्छा में विश्वास।
B. राजनीतिक आधार पर :-
1. राज्य की उत्पत्ति व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा हेतु समझौते से हुई
है।
2. व्यक्ति को राज्य का विरोध
करने का अधिकार है।
3. कानून का आधार विवेक है।
4. राज्य आवश्यक बुराई है।
5. सीमित सरकार सर्वोत्तम है।
C.
सामाजिक
आधार पर :-
1. समाज कृत्रिम संस्था है क्योंकि इसका निर्माण
मनुष्य के द्वारा किया गया है।
2. समाज निर्माण का उद्देश्य व्यक्ति
का हित है।
3. व्यक्ति के हित में ही समाज का हित संभव है।
D.
आर्थिक
आधार पर :-
1. मुक्त व्यापार का समर्थन।
2. पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन।
3. निजी संपत्ति के अधिकार को
मान्यता।
4. राज्य के हस्तक्षेप व नियंत्रण
का विरोध।
परंपरागत उदारवाद की आलोचना :-
1. परंपरागत उदारवाद अत्यधिक स्वतंत्रता या खुलापन पर जोर देता है जो कि नैतिकता व सामाजिक हित के विरुद्ध
हैं।
2. सीमित राज्य की कल्पना से राज्य
जन कल्याण का कोई कार्य नहीं कर पाएगा।
3. केवल पूंजीपति वर्ग के हितों
पर बल देता है।
4. मुक्त व्यापार का समर्थन अर्थव्यवस्था को बाजारू बना देगा जिससे व्यक्ति अधिक से अधिक धन कमाने की होड़ में लग जाएंगे।
5. राज्य की अहस्तक्षेपी और अनियंत्रण की नीति से अव्यवस्था का माहौल
बन जाएगा।
II. आधुनिक उदारवाद :-
इसे सकारात्मक उदारवाद भी कहा जाता है। परंपरागत उदारवाद की अवधारणा ने पूंजीवाद को पोषित किया जिसके कारण
समाज दो वर्गों पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग में बंट गया। परंपरागत उदारवादी सरकार गरीबों के कल्याण हेतु प्रतिबद्ध नहीं थी जिसके कारण मार्क्सवाद और साम्यवाद का जन्म हुआ। इन दो विचारधाराओं से अपने अस्तित्व पर आए संकट के डर से उदारवाद ने लोक कल्याणकारी राज्य का समर्थन किया और निजी संपत्ति पर अंकुश लगाने
की व पूंजीपतियों पर कर लगाने की वकालत की। जॉन स्टूअर्ट मिल ने उदारवाद के सकारात्मक स्वरूप की अवधारणा को प्रस्तुत
किया और राज्य को आवश्यक अच्छाई माना। इस विचारधारा का समर्थन टी. एच. ग्रीन, लास्की, मैकाइवर, हॉबहाउस आदि ने किया।
आधुनिक उदारवाद
की विशेषताएं :-
1. कल्याणकारी राज्य पर बल।
2. व्यक्ति के सर्वांगीण विकास
पर बल।
3. सकारात्मक स्वतंत्रता, समानता व अधिकारों पर बल।
4. विकास व वैज्ञानिक प्रगति की धारणा में
विश्वास।
5. व्यक्तियों की मूलभूत आवश्यकताओं
की पूर्ति पर बल।
6. राज्य के सामाजिक हित के संदर्भ
में हस्तक्षेप का समर्थन।
7. वर्ग सामंजस्य पर बल।
8. शांतिपूर्ण, सुधारवादी और क्रमिक परिवर्तन
पर बल।
9. अल्पसंख्यकों, वृद्धों व दलितों के विशेष
हितों के संवर्धन पर बल।
10. मुक्त अर्थव्यवस्था के स्थान
पर नियंत्रित अर्थव्यवस्था पर बल।
11. संपत्ति के अधिकार को सीमित
करने पर बल।
12. पूंजीपतियों पर कर लगाने की वकालत।
13. लोकतंत्र व समाजवाद को मिलाने पर बल।
आधुनिक उदारवाद
की आलोचना :-
1. उदारवाद का यह स्वरूप मूलतः पूंजीवादी वर्ग
का ही दर्शन है।
2. यह यथास्थितिवाद पर बल देता है।
3. इसका सामाजिक न्याय मात्र ढकोसला
है।
4. इसका वर्तमान स्वरूप गरीबों
को बरगलाता है।
5. स्वतंत्रता की आवश्यक परिस्थितियों
का निर्माण राज्य द्वारा ही संभव है।
6. पूंजी व्यवस्था को समाप्त करने
में असमर्थ।
परंपरागत और आधुनिक उदारवाद में अंतर :-
क्रम संख्या | विषय | परम्परागत उदारवाद | आधुनिक उदारवाद |
1 | उदय का कारण | सामंतवाद, पोपवाद व निरंकुश राजतन्त्र | पूंजीवादी व्यवस्था और मार्क्सवाद |
2 | विकास का समय | 16वीं से 18वीं सदी | 19वीं सदी से वर्तमान तक |
3 | राज्य के प्रति दृष्टिकोण | राज्य एक आवश्यक बुराई है। | राज्य एक सकारात्मक अच्छाई है। |
4 | राज्य का स्वरूप | अहस्तक्षेपवादी | हस्तक्षेपवादी |
5 | स्वतन्त्रता का स्वरूप | असीमित या नकारात्मक | सीमित या सकारात्मक |
6 | अधिकारों का स्वरूप | प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन | संवैधानिक अधिकारों का समर्थन |
7 | आर्थिक आधार | मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन | नियन्त्रित अर्थव्यवस्था का समर्थन |
8 | सम्पति का स्वरूप | असीमित सम्पति अर्जित करने का समर्थन | सम्पति को सीमित करने का समर्थन |
उदारवाद और जॉन लॉक का दर्शन :-
जॉन लॉक का जन्म 1632 ई. में इंग्लैंड में हुआ। लॉक के समय इंग्लैंड में संसद और राज्य के मध्य सत्ता के लिए गृहयुद्ध छिड़ गया जिसका उसके दर्शन पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। जॉन लॉक के दर्शन की निम्नलिखित बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उदारवाद का जन्म उसके विचारों से ही हुआ है :-
1. मनुष्य स्वभाव से अच्छा और
विवेकशील है।
2. राज्य की उत्पत्ति सामाजिक समझौते के सिद्धांत से हुई है जिसका आधार
था – व्यक्तियों के अधिकारों की
रक्षा।
3. समझौता जनता की सहमति पर आधारित
है।
4. सीमित सरकार का समर्थन।
5. व्यक्तिवाद का समर्थन।
6. प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन।
7. राज्य एक आवश्यक बुराई है।
8. कानूनों का आधार विवेक है।
9. नकारात्मक स्वतंत्रता का समर्थन।
- जनता को विद्रोह करने का अधिकार।
L – 09 : समाजवाद
समाजवाद का अर्थ एवं परिभाषा :-
समाजवाद अंग्रेजी भाषा के सोशलिज्म
(socialism) शब्द का हिन्दी पर्याय
है जिसकी उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के ही सोशियस ( socious ) शब्द से हुर्इ है जिसका अर्थ है समाज ।
समाजवाद
( हिन्दी शब्द )
Socialism
( अंग्रेजी
शब्द
)
Socious
( अंग्रेजी
शब्द
)
अर्थ
समाज
इस प्रकार समाजवाद का सम्बन्ध समाज और उसके
सुधार से है। अर्थात समाजवाद मूलत: समाज से सम्बन्धित है और
न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील है। समाजवाद शब्द मुख्य रूप से तीन अर्थो
में प्रयुक्त किया जाता है –
1. यह एक राजनीतिक सिद्धांत है।
2. यह एक राजनीतिक आंदोलन है।
3. इसका प्रयोग एक विशेष प्रकार की समाजिक व आर्थिक व्यवस्था के लिये किया
जाता है।
परिभाषाएं :-
1. ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार – “समाजवाद वह सिद्धान्त या नीति है जो उत्पादन
एवं वितरण के सभी साधनों पर समाज के स्वामित्व का और इन साधनों का उपयोग समाज के हित में करने का समर्थन करती है।”
2. जवाहरलाल नेहरु की अनुसार – “बल के बजाय जन सहमति के तरीकों से राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियों के विकेंद्रीकरण की न्यायपूर्ण व्यवस्था ही लोकतांत्रिक समाजवाद है।”
3. राम मनोहर लोहिया के अनुसार – “समाजवाद ने साम्यवाद की आर्थिक लक्ष्यों और पूंजीवाद के सामान्य लक्षणों को अपना लिया है। प्रजातांत्रिक समाजवाद का लक्ष्य दोनों में सामंजस्य स्थापित करना
है।”
4. वेकर कोकर के अनुसार -‘‘समाजवाद
वह नीति या सिद्धांत है जिसका उददेश्य एक लोकतांत्रिक
केन्द्रीय सत्ता द्वारा प्रचलित व्यवस्था की अपेक्षा धन का श्रेष्ठतर वितरण
और उसके अधीन रहते हुए धन का श्रेष्ठतर उत्पादन करना है।’’
5. बर्नार्ड शॉ के अनुसार – ‘‘समाजवाद का अभिप्राय संपत्ति के सभी आधारभूत साधनों पर नियंत्रण से है। यह नियंत्रण समाजवाद के किसी एक वर्ग द्वारा न होकर
स्वयं समाज के द्वारा होगा और धीरे धीरे व्यवस्थित ढंग से स्थापित किया जायेगा।’’
इस प्रकार परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक तरीकों से उत्पादन और वितरण के सभी साधनों पर राज्य का नियंत्रण और उससे सामाजिक व आर्थिक न्याय की स्थापना ही समाजवाद है।
समाजवादी अवधारणा का विकास :-
( A ) प्राचीन काल में समाजवाद :-
प्राचीन काल में यूनान के स्टोइक दर्शन में आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय का सिद्धांत दिया गया था।
( B )
मध्यकाल
में समाजवाद
:-
मध्यकाल में थॉमस मूर ने अपनी प्रसिद्ध कृति “यूटोपिया” में एक आदर्श समाजवादी राज्य की कल्पना प्रस्तुत की है। इसी प्रकार बेकन ने अपनी पुस्तक “न्यू अटलांटिस” में समाजवादी विचारों का उल्लेख किया है ।
( C ) आधुनिक काल में समाजवाद :-
समाजवाद की वास्तविक प्रगति 1789 की फ्रेंच क्रांति से हुई जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा दिया गया। 19वीं सदी में सेन्ट साइमन, चार्ल्स
फूरियर और रॉबर्ट ओवन जैसे विचारकों ने पूंजीवाद के दोषों को उजागर कर
सामाजिक और आर्थिक कल्याण की बात की। प्रूधों ने तो अपनी पुस्तक “What is Property” में निजी संपत्ति को चोरी की संज्ञा
तक दे डाली। बाकुनिन, जी. डी. कॉल, बर्नार्ड शॉ आदि विचारकों ने अनेक समाजवादी विचारधाराओं के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। इसी क्रम में कार्ल मार्क्स ने वैज्ञानिक समाजवाद
की अवधारणा प्रस्तुत कर समाजवाद को नवीन दिशा प्रदान की। चूँकि औद्योगिक क्रांति की
शुरुआत इंग्लैण्ड से हुई जिससे वहाँ शहरी श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ और इसी वर्ग ने आगे
चलकर पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध समाजवाद की अवधारणा को प्रस्तुत किया। इस प्रकार
समाजवाद की शुरुआत इंग्लैण्ड से मानी जाती है।
समाजवाद के तत्व या मूल सिद्धांत या विशेषताएं :-
1. व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व :-
समाजवाद व्यक्तिवाद के विपरीत विचार है जो व्यक्ति की अपेक्षा समाज
को अधिक महत्व देता है। इस विचारधारा की मान्यता है
कि समाज के माध्यम से ही व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास हो सकता है।
2. पूंजीवाद का विरोधी :-
समाजवाद पूंजीवाद का विरोधी है। समाजवाद के अनुसार समाज में असमानता तथा अन्याय का कारण पूंजीवाद की
विद्यमानता है। पूंजीवाद में उत्पादन का समान वितरण न होने के कारण संपत्ति पर पूंजीपतियों का अधिकार होता है। समाजवादियों के विचार में पूंजीपतियों व श्रमिको में सघंर्ष अनिवार्य है। अत: समाजवाद उत्पादन व वितरण के
साधनों को पूंजीपतियों के हाथों से समाज को सौंपना चाहता है।
3. सहयोग पर आधारित :-
समाजवाद प्रतियोगिता का विरोध करता है और सहयोग में वृद्धि करने पर बल देता है। राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग करके अनावश्यक प्रतिस्पर्धाओं को समाप्त किया जा सकता है।
4. आर्थिक समानता पर आधारित :-
समाजवाद सभी व्यक्तियों के लिये आर्थिक समानता प्रदान करने
का पक्षपाती है। समाजवादी विचारकों का मत है कि आर्थिक असमानता अधिकांश देशों के पिछड़ेपन का मूल कारण है।
5. उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर राज्य का नियंत्रण :-
समाजवादी विचारकों का मत है कि सम्पूर्ण देश की सम्पत्ति पर किसी व्यक्ति विशेष का नियंत्रण न होकर सम्पूर्ण समाज का नियंत्रण होना चाहिए। उत्पादन
तथा वितरण के साधन यदि राज्य के नियंत्रण में रहेंगे तो सभी व्यक्तियों की
आवश्यकताओं की पूरी हो जायेंगी।
6. लोकतांत्रीय शासन में आस्था :-
समाजवादी विचारक राज्य के लोकतंत्रीय स्वरूप में विश्वास
रखते है। ये मताधिकार का विस्तार करके संसद को उसकी व्यवस्था चलाने के लिये एक महत्वपूर्ण
साधन मानते है। इस व्यवस्था से व्यक्तियों को राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति होती है।
7. उत्पादन का लक्ष्य समाजीकरण :-
उत्पादन के समाजीकरण का तात्पर्य है कि उद्योग
चाहे सार्वजनिक क्षेत्र का हो या निजी क्षेत्र का हो, उन पर नियंत्रण की व्यवस्था
राज्य के निर्देशानुसार होनी चाहिए और इनका संचालन लाभ
प्राप्ति के लिए नहीं अपितु सामाजिक हितों की दृष्टि
से किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए स्कूल, अस्पताल आदि चाहे सरकारी हो या निजी, उनका लक्ष्य समाज का भला करना होता है। भले ही निजी संस्थाएं लाभ की मंशा रखते हैं परंतु वह लाभ राज्य द्वारा
जारी गाइडलाइन के तहत ही प्राप्त किया जा सकता है।
8. असीमित संपत्ति संग्रह के विरुद्ध :-
समाजवाद का मानना है कि संपति भेदभाव को बढ़ावा देती है जो कि शोषण को जन्म देती है। अतः संपत्ति के असीमित संग्रह के अधिकार को समाप्त किया जाना चाहिए। इसी क्रम में समाजवाद का मानना
है कि बड़े-बड़े उद्योग असीमित संपत्ति को जन्म देते हैं। अतः सभी बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना चाहिए।
9.
राजनीतिक
और आर्थिक आजादी का समर्थन :-
समाजवाद राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता का पक्षधर भी है। इसका मानना है कि व्यक्तियों को काम का अधिकार, उचित पारिश्रमिक का अधिकार
एवं अवकाश का अधिकार होना चाहिए। समाजवाद का मानना है कि आर्थिक
स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है।
10. श्रेष्ठ मानव जीवन का लक्ष्य :-
समाजवाद राज्य को सद्गुणों को विकसित करने वाली संस्था मानता है। इसका मानना है कि समाजवादी राज्य ही शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, मनोरंजन और श्रेष्ठ सांस्कृतिक जीवन की सुविधाएं जुटा सकता है। अतः श्रेष्ठ मानव जीवन सामाजिक राज्य द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
समाजवाद के पक्ष में तर्क या गुण –
1. शोषण का अन्त : –
समाजवाद श्रमिकों एवं निर्धनों के शोषण का विरोध करता है। समाजवादियों ने स्पष्ट कर दिया है कि पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों के षडयंत्रों के कारण ही निर्घनों व श्रमिकों का शोषण होता है। यह विचारधारा शोषण के अन्त में आस्था रखने वाली है।
इसलिये विश्व के श्रमिक, किसान व निर्घन इसका समर्थन करते है।
2. सामाजिक न्याय पर आधारित :-
समाजवादी व्यवस्था में किसी वर्ग विशेष के हितों को महत्व न देकर समाज के सभी व्यक्तियों के हितों को महत्व दिया जाता है। यह व्यवस्था पूंजीपतियों के अन्याय को
समाप्त करके एक ऐसे वर्गविहीन समाज की स्थापना करने का समर्थन
करती है जिसमें विषमता न्यनूतम हो।
3. उत्पादन का लक्ष्य सामाजिक आवश्यकता :
–
व्यक्तिवादी व्यवस्था में व्यक्तिगत लाभ को ध्यान में रखकर किये जाने
वाले उत्पादन के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था में समाजिक आवश्यकता और हित को ध्यान में रखकर उत्पादन करने पर बल दिया जाता है क्योंकि समाजवाद इस बात पर
बल देता है कि जो उत्पादन हो वह समाज के बहुसंख्यक लोगो के लाभ के लिए हो।
4. उत्पादन पर समाज का नियंत्रण : –
समाजवादियों का मत है कि उत्पादन और वितरण के
साधनों पर राज्य का स्वामित्व स्थापित करके विषमता को समाप्त किया जा सकता
है।
5. सभी को उन्नति के समान अवसर :-
समाजवाद सभी लोगों को उन्नति के समान अवसर प्रदान
करने के पक्षपाती है। इस व्यवस्था में कोर्इ विशेष सुविधा संपन्न वर्ग नही होगा। सभी लोगो
को समान रूप से अपनी उन्नति एव विकास के अवसर प्राप्त होंगे।
6. साम्राज्यवाद का विरोधी : –
समाजवाद औपनिवेशिक परतत्रंता और साम्राज्यवाद का विरोधी है। यह राष्ट्रीय
स्वतंत्रता का समर्थक है। लेनिन के शब्दों में ‘‘साम्राज्यवाद
पूंजीवाद का अंतिम चरण है।’’ समाजवादियों का मत है कि जिस प्रकार पूंजीवाद में व्यक्तिगत शोषण होता है, ठीक उसी प्रकार साम्राज्यवाद
मे राज्यों को राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से परतंत्र बनाकर शोषण किया जाता है।
7. सत्ता के राजनीतिक एवं आर्थिक विकेन्द्रीकरण पर
बल।
8. धर्म एवं नैतिकता के महत्व को स्वीकारना।
समाजवाद के विपक्ष में तर्क अथवा
आलोचना :-
1. राज्य के कार्य क्षेत्र में वृद्धि :-
समाजवाद में आर्थिक तथा राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में राज्य का अधिकार होने से
राज्य का कार्य क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जायेगा जिसके परिणामस्वरूप राज्य द्वारा
किये जाने वाले कार्य समुचित रूप से संचालित और सम्पादित नही होंगे।
2. वस्तुओं के उत्पादन में कमी :-
समाजवाद के आलोचकों की मान्यता है कि यदि उत्पादन के
साधनों पर सम्पूर्ण समाज का नियंत्रण हो तो व्यक्ति की कार्य करने की प्रेरणा समाप्त हो जायेगी और कार्यक्षमता भी धीरे-धीरे घट जायेगी। व्यक्ति को अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने का अवसर
नही मिलेगा जिससे वस्तुओं के उत्पादन की मात्रा घट जायेगी।
3. पूर्ण समानता संभव नही :-
प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान उत्पन्न
नही किया। जन्म से कुछ बुद्धिमान, कुछ मुर्ख, कुछ स्वस्थ व कुछ परिश्रमी होते है। इन सबको समान समझना प्राकृतिक सिद्धांत की अवहेलना करना है। अत: पूर्ण समानता स्थापित नही की जा सकती।
4. समाजवाद प्रजातंत्र का विरोधी :-
प्रजातंत्र में व्यक्ति के अस्तित्व को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। वहीं समाजवाद में वह राज्य रूपी विशाल मशीन में एक निर्जीव पुर्जा बन जाता है।
5. नौकरशाही का महत्व : –
समाजवाद में राज्य के कार्यो में वृद्धि होने के कारण नौकरशाही का महत्व बढ़ता है और सभी निर्णय
सरकारी कर्मचारियों द्वारा लिये जाते है। ऐसी स्थिति में
भष्टाचार बढ़ता है।
6.
समाजवाद
हिंसा को बढाता है :-
समाजवाद अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्रांतिकारी तथा हिंसात्मक
मार्ग को अपनाता है। वह शांतिपूर्ण तरीको में विश्वास नही करता। वह वर्ग संघर्ष
पर बल देता है। जिसके परिणामस्वरूप समाज में वैमनस्यता और विभाजन की भावना फैलती है।
7. स्पष्ट विचारधारा नहीं :-
समाजवाद में अस्पष्टता और अनिश्चितता है। उदाहरण के लिए कुछ समाजवादी राष्ट्रीयकरण पर बल देते हैं तो कुछ समाजीकरण पर। निजी संपत्ति पर किस सीमा तक नियंत्रण रखा जाए, इस संबंध में भी समाजवादियों
में एकमत नहीं है।
8. विरोधाभासी विचारधारा :-
लोकतंत्र स्वतंत्रता में विश्वास करता है जबकि समाजवाद
नियंत्रण की व्यवस्था में विश्वास करता है। इस प्रकार लोकतंत्र और समाजवाद के परस्पर विरोधाभासी
विचारधारा होने के कारण समाजवादियों की विचारधारा विरोधाभासी प्रतीत होती है।
समाजवाद की आलोचना को हम निम्न दो कथनों से
भलीभांति समझ सकते है
:-
जोड़ ने कहा है- ”समाजवाद एक ऐसी टोपी है जिसका रूप प्रत्येक व्यक्ति
के पहनने के कारण बिगड़ गया है ।”
ब्रिटिश राजनीतिज्ञ हैरॉल्ड लॉस्की ने कभी समाजवाद को एक ऐसी टोपी कहा था जिसे
कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है।
निष्कर्ष :-
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि समाजवादी
आर्थिक प्रणाली अनेक गुणों से सम्पन्न होते हुए भी दोषमुक्त नहीं है । पूंजीवादी आर्थिक
प्रणाली की भांति इस प्रणाली में भी अनेक कमियां एवं दोष दृष्टिगोचर होते है ।
पूंजीवादी एवं समाजवादी आर्थिक प्रणालियों
का यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट होता है कि दोनों प्रणालियों में से कोई भी प्रणाली
अपने आप में पूर्ण नहीं है । किन्तु तुलनात्मक रूप से यदि विश्लेषण किया जाये तो समाजवादी
आर्थिक प्रणाली पूंजीवादी प्रणाली की तुलना में अधिक सफल एवं विकसित हुई है ।
इस सफलता का कारण समाजवादी प्रणाली की अधिकतम
सामाजिक कल्याण की भावना का होना है । साथ ही पूंजीवाद के दोष एवं शोषण (मुख्यत: आर्थिक विषमताएं, वर्ग संघर्ष, अन्याय, शोषण,
अत्याचार आदि) से जनमानस को मुक्ति दिलाने में समाजवादी आर्थिक प्रणाली ने महत्वपूर्ण
भूमिका अदा की है ।
समाजवाद की इसी विशेषता के कारण अल्प समय में
यह प्रणाली अनेक देशों में विकसित हो गई ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जहां पूंजीवाद
असफल होता है, वहां समाजवाद सफल होता है ।
इस प्रकार समाजवाद पूंजीवाद के दोषों को दूर
करने का एक साधन है । यदि समाजवादी आर्थिक प्रणाली को समाजवाद की मौलिक मान्यताओं के
अन्तर्गत क्रियान्वित किया जाए तो समाजवाद की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है ।
प्रमुख समाजवादी विचारक :- सेंट साइमन, चार्ल्स फूरियर, रोबर्ट ओवन, R.H.
टॉनी, हेराल्ड लास्की, क्लीमेंट एटली, रैम्जे मैकडोनल्ड।
प्रमुख भारतीय समाजवादी विचारक : जवाहरलाल
नेहरू, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय, जयप्रकाश नारायण
L 10 : मार्क्सवाद
मार्क्सवाद का अभिप्राय
जर्मनी के प्रसिद्ध विचारक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल्स ने मिलकर
दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र, विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि की विभिन्न समस्याओं पर अत्यधिक गंभीर अध्ययन करते हुए
सभी समस्याओं के संबंध में एक सुनिश्चित विचारधारा और एक नवीन दृष्टिकोण विश्व के सामने
रखा जिसे मार्क्सवाद के नाम से जाना जाता है।
मार्क्सवाद में
योगदान :-
राजनीतिक पहलू का
चिंतन : कार्ल मार्क्स
वैज्ञानिक एवं
दार्शनिक पहलू का चिंतन : फ्रेडरिक एंजिल्स
इस विचारधारा के
समर्थक कार्ल मार्क्स के अतिरिक्त फ्रेडरिक एंजिल्स, लेनिन, स्टालिन, कोटसी, रोजा लक्जमबर्ग, माओ, ग्राम्शी आदि है।
कार्ल मार्क्स
का जीवन परिचय :-
कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी में 1818 ई. को एक यहूदी परिवार में हुआ। इनके पिता एक वकील थे। उनके बचपन में
ही इनके पिता ने इसाई धर्म स्वीकार कर लिया। इन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। यहां पर उन्होंने हीगल के द्वन्दात्मक दर्शन का अध्ययन किया। मार्क्स शुरुआत में विश्वविद्यालय
के शिक्षक बनना चाहते थे परंतु नास्तिक विचारधारा का होने के कारण वह शिक्षक नहीं बन पाया। 1841 ई. में मार्क्स ने जेना विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। 1843
ई. में उनका विवाह जैनी नामक
युवती से हुआ। 1849 ई. में मार्क्स इंग्लैंड चले गए
जहां पर उनकी मित्रता फ्रेडरिक एंजिल्स से हुई और यहीं पर कार्ल मार्क्स ने फ्रेडरिक एंजिल्स के साथ मिलकर मार्क्सवादी विचारधारा
का प्रतिपादन किया। 14 मार्च 1883 ई. को लंदन में इनका देहांत हो
गया।
कार्ल मार्क्स
के दर्शन के स्रोत :–
ऐसा नहीं है कि मार्क्स ने जो दर्शन प्रतिपादित किया वह पूर्णत: मौलिक था। मार्क्स ने विभिन्न विचारकों के सिद्धांतों को अपनाकर मार्क्सवाद का
प्रतिपादन किया। उस पर निम्नलिखित विचारकों का स्पष्ट प्रभाव था :-
1. जर्मन विचारकों का प्रभाव :-
जर्मन विचारक हीगल से मार्क्स ने द्वन्दात्मक पद्धति और फायरबाख से भौतिकवाद का विचार ग्रहण किया।
2. ब्रिटिश
अर्थशास्त्रियों का प्रभाव :-
मार्क्स ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों जैसे एडम स्मिथ, रिकार्डो आदि के विचारों से प्रभावित थे। इनसे प्रभावित होकर मार्क्स ने श्रम का
सिद्धांत और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
3. फ्रेंच समाजवादियों का प्रभाव :-
फ्रेंच विचारक सेंट साइमन, चार्ल्स फोरियर आदि ने समाजवाद का प्रतिपादन
किया और इन विचारकों का मार्क्स पर स्पष्ट प्रभाव
पड़ा है। इन विचारकों से ही प्रभावित होकर मार्क्स ने
उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व का सिद्धांत, श्रमिकों का उत्पादन और उनका
शोषण करने वाले वर्ग के विनाश का सिद्धांत और वर्ग विहीन समाज की स्थापना का विचार प्रस्तुत किया।
4. सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियां का प्रभाव
:-
तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों में पूंजीवाद
का वर्चस्व था जिसने समाज के शोषणवादी चरित्र को प्रस्तुत किया और इन्हीं परिस्थितियों
ने मार्क्स को क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया।
इस प्रकार हम कह
सकते हैं कि मार्क्स
में अलग-अलग स्थानों से अलग-अलग प्रकार की विषय-वस्तु एवं विचार ग्रहण किए परंतु उसने साम्यवाद का जो विशाल भवन बनाया, वह पूर्णत: मौलिक है।
मार्क्सवाद की प्रमुख रचनाएं :-
1. द पॉवर्टी ऑफ फिलोसॉफी 1847
2. इकोनॉमिक एंड फिलोसॉफिक मनुस्क्रिप्ट 1844
3. थीसिस ऑन फायरबाख
-1888
4. क्लास स्ट्रगल इन फ्रांस
5. द क्रिटिक ऑफ पॉलीटिकल इकोनॉमी – 1859
6. वैल्यू प्राइस एंड प्रॉफिट – 1865
7. दास कैपिटल ( तीन खण्ड 1867,1885 व 1894 )
8. द सिविल वार इन फ्रांस -1871
9. द गोथा प्रोग्राम
10. दे होली फैमिली – 1845 एंजिल्स द्वारा, जर्मन आईडियोलॉजी – 1845 और द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो – 1848 दोनों एंजिल्स के साथ मिलकर
लिखी।
11. द ओरिजन ऑफ फैमिली,
प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट – एंजिल्स
12. स्टेट एंड
रेवोल्यूशन – लेनिन
13. ऑन
कॉन्ट्रेडिक्शन – माओत्से तुंग ( माओ )
14. द प्रिजन नोट
बुक्स – ग्राम्शी
मार्क्स के प्रमुख विचार या मान्यताएं :-
A. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद :-
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्स के संपूर्ण चिंतन का मूल आधार है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में द्वंद्वात्मक का आशय सृष्टि के विकास की प्रक्रिया
से है और भौतिकवाद का आश्य सृष्टि के मूल तत्व से हैं। इस सिद्धांत के प्रतिपादन में मार्क्स ने हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति और फायरबाख से भौतिकवाद का दृष्टिकोण ग्रहण किया।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रक्रिया :–
जहाँ हीगल अपने दर्शन में सृष्टि का मूल तत्व आत्मा या चेतना को मानता है वहीं मार्क्स ने सृष्टि का मूल तत्व जड़ या पदार्थ
को माना है। मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया को गेहूँ के पौधे के उदाहरण से स्पष्ट किया है :-
चरण | द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया | विवरण |
प्रथम | वाद | गेहूं का दाना |
द्वितीय | प्रतिवाद | गेहूं का पौधा |
तृतीय | संवाद | बाली आना, गेहूं का दाना बनना, पौधे का सूखकर नष्ट होना |
इसी प्रकार मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया द्वारा साम्यवाद को समझाने
का प्रयास किया है :-
चरण | द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया | विवरण |
प्रथम | वाद | पूंजीवाद |
द्वितीय | प्रतिवाद | सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व |
तृतीय | संवाद | साम्यवाद |
द्वन्द्वात्मक विकास के नियम :-
मार्क्स के द्वंद्वात्मक विकास के
निम्न 3 बुनियादी नियम बताए हैं :-
· परस्पर एवं विपरित तत्वों की एकता एवं संघर्ष
· परिमाण से गुण की ओर परिवर्तन
· निषेध का निषेध नियम
B. इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या :-
इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से भी जाना जाता है। मार्क्स का मानना है कि मानव इतिहास में होने वाले विभिन्न परिवर्तन
एवं घटनाएं कुछ विशेष व महान व्यक्तियों के कार्यों के परिणामस्वरुप नहीं होते हैं बल्कि ये परिवर्तन व घटनाएं भौतिक और आर्थिक कारणों से होती हैं। मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद को निम्न प्रकार
समझा जा सकता है |
इस प्रकार स्पष्ट है कि जब जब उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन हुआ है
तब तब मनुष्य के सामाजिक संबंधों में परिवर्तन हुआ है। मार्क्स ने आर्थिक आधार पर मानव इतिहास के विकास को 6 भागों में बांटा है :-
·
आदिम साम्यवादी अवस्था
·
दास अवस्था
·
सामंती व्यवस्था
·
पूंजीवादी अवस्था
·
सर्वहारा वर्ग
का अधिनायकवाद
·
साम्यवादी अवस्था
मार्क्स का मानना है कि प्रथम तीन अवस्थाएं गुजर चुकी हैं, चौथी अवस्था यानि पूंजीवादी अवस्था चल रही है और दो अवस्था अभी आनी बाकी है।
इतिहास की आर्थिक व्याख्या की के निष्कर्ष :-
1. मानव जीवन में सभ्यता के विकास की प्रक्रिया का संचालक आर्थिक तत्व
है।
2. प्रत्येक युग में जिसका आर्थिक
व्यवस्था पर नियंत्रण था उसका सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था पर नियंत्रण था।
3. आर्थिक परिवर्तनों से ही सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन होते हैं।
4. आदिम साम्यवाद अवस्था को छोड़कर पूंजीवादी अवस्था तक वर्ग संघर्ष की
अवस्था रही है।
5. इतिहास की आर्थिक व्याख्या
के आधार पर ही मार्क्स पूंजीवाद के अंत और साम्यवाद के
आगमन की घोषणा करता है।
इतिहास की आर्थिक व्याख्या की आलोचना :-
1. आर्थिक तत्व पर अत्यंत बल।
2. सभी ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या
आर्थिक आधार पर संभव नहीं है।
3. इतिहास की धारणा राज्य विहीन समाज पर आकर रुकना संभव नहीं है।
4. राजनीतिक सत्ता का एकमात्र
आधार आर्थिक सत्ता नहीं हो सकता है।
C. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत :-
मार्क्स ने अपनी पुस्तक “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” का प्रारंभ इस वाक्य से किया
है कि समाज का अब तक का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। उसका मानना है कि आदिम साम्यवाद अवस्था को छोड़कर वर्तमान तक का इतिहास
वर्ग संघर्ष से भरा पड़ा है। दास अवस्था में स्वामी व दासों के मध्य, सामंती अवस्था में जमींदारों और किसानों के मध्य और पूंजीवादी अवस्था में पूंजीपतियों व मजदूरों के मध्य संघर्ष होता आया है। सभी युगों में यह संघर्ष कभी चोरी-छुपे तो कभी खुलेआम होता रहा है। परिणामत: इस संघर्ष का अंत कभी क्रांतिकारी
पुनर्निर्माण से तो कभी-कभी
दोनों पक्षों के विनाश से हुआ हैं। मार्क्स का कहना है कि अब तक के इतिहास में जिस वर्ग ने शोषणकर्त्ता से सत्ता छीनी है कालांतर में वही वर्ग शोषणकर्त्ता साबित हुए हैं।
एंगेल्स ने अपनी
पुस्तक ” Origin of Family : Private Property and State ” में लिखा है कि पहली शोषक संस्था परिवार है और
शोषित वर्ग महिला है।
वर्ग :- जिस समूह का एक समान आर्थिक हित हो उसे वर्ग कहते है। जैसे श्रमिक वर्ग, पूंजीपति
वर्ग आदि।
संघर्ष :- असंतोष, रोष व असहयोग
वर्ग संघर्ष
के सिद्धांत की आलोचना :-
· एकांकी व दोषपूर्ण ।
· सामाजिक जीवन का मूल तत्व सहयोग है, संघर्ष नहीं ।
· समाज में केवल दो ही वर्ग ( शोषक व शोषित वर्ग ) नहीं होते हैं।
· सामाजिक वर्ग व आर्थिक वर्ग में अंतर होता है।
· क्रांति श्रमिक वर्ग की बजाय बुद्धिजीवी वर्ग से ही संभव है।
· समस्त इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास नहीं हो सकता है।
D. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत :-
मार्क्स
का यह सिद्धांत पूंजीवादी अवस्था में मजदूरों
के शोषण की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। मार्क्स ने यह सिद्धांत रिकार्डो के श्रम सिद्धांत के आधार पर प्रस्तुत किया है। मार्क्स के अनुसार उपयोगिता मूल्य एवं विनिमय मूल्य का अंतर अतिरिक्त मूल्य है।
मार्क्स के अनुसार
बाजार में माल परिचालन का सामान्य सूत्र है :- C – M – C अर्थात वस्तु – मुद्रा –
वस्तु
अर्थात पूंजीपति
अपने पास उपलब्ध वस्तु को लेकर बाजार में आता है और उसे उचित मूल्य पर बेच कर
मुद्रा कमाता है तथा उसी मुद्रा से अपनी दूसरी इच्छित वस्तु खरीद कर बाजार छोड़
देता है। इस प्रकार वस्तु के विनिमय से पूंजी का निर्माण करता है।
मार्क्स के अनुसार
पूंजी के परिचालन का सूत्र है :- M – C – M’ अर्थात मुद्रा – वस्तु – (मुद्रा +
लाभ )
इस प्रकार पूंजीपति
अपनी मुद्रा ( M ) लेकर बाजार में आता है। इससे माल खरीद कर व श्रम शक्ति लगा कर
नया माल बनाता है तथा फिर इसे बाजार में अधिक मूल्य पर बेचकर अधिक मुद्रा ( M’ )
कमा लेता है।
इस प्रकार ( M’ – M ) को मार्क्स अतिरिक्त मूल्य कहता है।
इसके अलावा पूंजीपति
निर्वाह मजदूरी पर श्रमिक का श्रम खरीद लेता है और वह मजदूर को निर्वाह मजदूरी से
तय श्रम से ज्यादा श्रम करने के लिए बाध्य करता है। इस प्रकार इस अतिरिक्त श्रम का
मूल्य श्रमिक के पास न जाकर पूंजीपति के पास चला जाता है जो कि अतिरिक्त मूल्य है।
साथ ही कभी कभी
बाजार में मांग पूर्ति के कारण भी पूंजीपति को मुनाफा होता है, वह भी अतिरिक्त
मूल्य है।
इस प्रकार अतिरिक्त
मूल्य पूंजी का निर्माण करता है जिससे पूंजीपति और अधिक अमीर बन जाता है एवं
श्रमिक की स्थिति दयनीय होने लगती है।
अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की आलोचना :-
1. श्रम एकमात्र उत्पादन का साधन
नहीं।
2. मानसिक श्रम की अवहेलना।
3. मौलिक नहीं ( रिकार्डो से प्रभावित )।
मूल्य का प्रभाव :-
1. श्रमिकों की दयनीय स्थिति।
2. सर्वहारा वर्ग की क्रांति का कारण।
3. जनसंख्या वृद्धि का कारण।
E. अलगाव का सिद्धांत :-
अलगाव का सिद्धांत मार्क्स की पुस्तक “इकोनामिक एंड फिलोसॉफिकल मनुस्क्रिप्ट – 1844” में दिया गया है। मार्क्स के जीवन काल में यह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाई। बाद में हंगरी की मार्क्सवादी विचारक जॉर्ज ल्यूकास ने सर्वप्रथम अलगाववाद पर लेख लिखे। जब मार्क्स की पुस्तक प्रकाशित हुई तो इस सिद्धांत का महत्व और अधिक बढ़ गया।
मार्क्स ने
पूंजीवादी समाज के अंतर्गत अलगाव के चार स्तरों की पहचान की है :-
1. उत्पादन व उत्पादन प्रणाली से अलगाव:-
इसे हम कमीज बनाने
की प्रक्रिया से समझ सकते है। पूर्ववर्ती सामंतवादी अवस्था में मजदूर या कारीगर कमीज का पूर्ण निर्माण स्वयं करता था जिसमें उसे इस बात का अपनापन
महसूस होता था कि अमुक कमीज उसके द्वारा बनाया गया है परंतु पूंजीवादी अवस्था में मशीन
के उपयोग से अब कमीज एक व्यक्ति नहीं बनाता
है बल्कि कमीज के अलग-अलग भाग अलग-अलग व्यक्ति बनाते हैं जिससे कामगार का उस कमीज से कोई लगाव नहीं रहता है।
2. प्रकृति से अलगाव :-
मशीनों पर काम
करते-करते मनुष्य का प्राकृतिक वातावरण जैसे खेतों की हरियाली, घास के मैदान, बारिश के घने बादल आदि से संबंध
टूट जाता है।
3. साथियों से अलगाव :-
आर्थिक प्रणाली
प्रतिस्पर्धात्मक होने के कारण व्यक्ति अपने साथियों से भी प्रतिस्पर्धा करने लगता
है जिससे हमें यह लगने लगता है कि मेरा काम कोई दूसरा न ले ले। इस प्रकार व्यक्ति अपने साथियों के साथ भी अलगाव रखने
लगता हैं।
4. स्वयं से अलगाव :-
अंतत: मनुष्य धन कमाने की अंध-दौड़ में इतना अधिक व्यस्त हो जाता है कि उसे साहित्य, कला, संस्कृति, रीति-रिवाजों, परंपराओं, त्यौहारों आदि से कोई लगाव नहीं रहता है और वह इन सब को मात्र औपचारिक
समझने लगता है। इस
प्रकार वह स्वयं से भी अलगाव करने लगता है।
F. पूंजीवाद का विश्लेषण :-
मार्क्स के अनुसार इतिहास की प्रत्येक अवस्था अपनी पिछली अवस्था से उन्नत होती हैं क्योंकि वह उत्पादन की शक्तियों के विकास का संकेत देती है। अतः सामंतवाद
की तुलना में पूंजीवाद श्रेष्ठ है।
मार्क्स ने
अपनी पुस्तक “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” में लिखा है कि पूंजीवादी व्यवस्था ने उत्पादन के साधनों को द्रुत गति से उन्नत
करके और संचार के साधनों को अत्यधिक सुविधाजनक बना कर समस्त राष्ट्रों यहां तक कि बर्बर
एवं असभ्य जातियों को भी सभ्य बना दिया है।
मार्क्स का
कहना है कि पूंजीवाद में दो विरोधी वर्गों का हित पाया जाता है तथा यह पूंजीपतियों
के लिए निरंतर अथाह पूंजी का निर्माण करता है। इस प्रकार अत्यधिक पूंजी निर्माण की
प्रतिस्पर्धा में पूंजीपतियों द्वारा अत्यधिक
उत्पादन किया जाएगा परिणामस्वरूप माल अधिक होने और
खपत कम होने से मांग कम हो जाएगी जिससे पूंजीपतियों के प्रतिस्पर्धा के तत्व का अंत
हो जाएगा और पूंजीवाद की समाप्ति हो जाएगी।
G. राज्य व शासन संबंधी विचार :-
कार्ल मार्क्स के राज्य संबंधी विचार “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” में मिलते हैं जो कि निम्नानुसार है :-
· राज्य की उत्पत्ति का कारण वर्ग विभेद है।
· राज्य शोषक वर्ग या पूंजीपति वर्ग के हितों की सुरक्षा करता है।
· राज्य शोषण का यंत्र है।
· वर्ग संघर्ष उपरांत राज्य व पूंजीपति वर्ग के अवशेषों को समाप्त करने के लिए सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व की स्थापना होगी।
· अंततः राज्य समाप्त हो जाएगा और राज्य विहीन व वर्ग विहीन समाज की स्थापना होगी।
आलोचना
:-
· राज्य केवल एक वर्गीय संस्था नहीं है बल्कि नैतिक संस्था है।
· वर्तमान में राज्य सर्वहारा वर्ग का शत्रु न होकर मित्र हैं।
· राज्य स्थायी हैं न
कि अस्थायी।
· राज्य के विलुप्त होने की धारणा मात्र कल्पना है।
H. लोकतंत्र, धर्म व राष्ट्रवाद के संबंध में मार्क्स के
विचार
:-
कार्ल मार्क्स लोकतंत्र, धर्म और राष्ट्रवाद को मजदूरों के शोषण का साधन मानता है। मार्क्स के अनुसार धर्म अफीम के समान नशा है जो कि श्रमिकों का शोषण
करता है।
मार्क्स के
अनुसार मजदूरों का कोई देश नहीं होता है। अतः विश्व के सभी मजदूरों को एक हो जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में मार्क्स राष्ट्रवाद को व्यर्थ बताता है।
I. मार्क्सवादी कार्यक्रम :-
· पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध क्रांति।
· संक्रमण काल में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना।
· पूर्ण साम्यवाद की स्थापना।
मार्क्सवाद
की आलोचना :-
1.
हिंसा व क्रांति
को प्रोत्साहन।
2.
वर्ग संघर्ष का
प्रचार कर वर्ग सहयोग को समाप्त कर देना चाहता है।
2.
व्यक्तिगत स्वतंत्रता
के लिए घातक।
3.
राज्य के विलुप्त
होने की धारणा गलत है।
4.
राज्य शोषण का
यंत्र है, गलत है।
5.
समाज दो वर्गों
की बजाय अनेक वर्गों में विभाजित है।
6.
पदार्थ में स्वतः परिवर्तन संभव नहीं है।
7.
अलोकतांत्रिक विचारधारा।
मार्क्सवाद का योगदान या
वर्तमान समय में प्रासंगिकता :-
कार्ल मार्क्स ने अपने विचारों से समाजवाद लाने का ठोस एवं सुसंगत कार्यक्रम
प्रस्तुत किया जिसने विश्व में हलचल पैदा कर दी। मार्क्स के विचारों को आधार बनाकर लेनिन ने 1917 ई. में सोवियत संघ में और 1949 में माओत्से तुंग ने चीन में साम्यवादी शासन
की स्थापना की जिससे अपने अस्तित्व के संकट को देखकर उदारवादी पूंजीवाद ने अपने आप को सुधारने का प्रयास करते हुए लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा
प्रस्तुत की । हम निम्न तथ्यों के आधार पर मार्क्स के योगदान / प्रासंगिकता को स्पष्ट कर सकते
हैं :-
1.
विभिन्न
विचारधाराओं का आधार :-
मार्क्सवाद ने आधुनिक विश्व में प्रचलित अनेक विचारधाराओं जैसे समाजवाद, फेबियनवाद, श्रमिक संघवाद, अराजकतावाद, लोकतांत्रिक समाजवाद, बहुलवाद, साम्यवाद, लेनिनवाद आदि को वैचारिक आधार प्रदान किया है।
2. उदारवाद को चुनौती :-
मार्क्स का मानना था कि जब तक उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर पूंजीपतियों का आधिपत्य रहेगा तब तक पूंजीपतियों द्वारा सर्वहारा वर्ग का शोषण
किया जाएगा। अतः सर्वहारा वर्ग को क्रांति के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था को
उखाड़ फेंकना चाहिए और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना करनी चाहिए। इस प्रकार मार्क्स
ने उदारवाद को चुनौती प्रस्तुत की।
3. समाजवाद की व्यवहारिक योजना प्रस्तुत :-
मार्क्स ने अपने कार्यक्रम के माध्यम से समाजवाद की व्यवहारिक और वैज्ञानिक
योजना प्रस्तुत की।
मार्क्स से पूर्व का समाजवाद मात्र काल्पनिक था जो समाज में होने वाले परिवर्तनों की आधारभूत योजना प्रस्तुत करने
में असफल रहा था।
- श्रमिक वर्ग में जागृति
:-
मार्क्स ने अपने विचारों जैसे अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत, वर्ग संघर्ष के सिद्धांत आदि से श्रमिकों के शोषण की व्यवस्था को उजागर कर उन्हें जागृत किया। साथ ही उन्होंने अपने नारों “विश्व के मजदूरों एक हो जाओ”, “तुम्हारे पास खोने के लिए जंजीरें है और जीतने के लिए समस्त विश्व है” के माध्यम से श्रमिकों में अपने अधिकारों के प्रति नवीन चेतना उत्पन्न
की।
- समाज का यथार्थवादी चित्रण
:-
मार्क्स सर्वप्रथम समाजवादी विचारक था जिसने न केवल तत्कालीन समाज का वास्तविक
चित्रण प्रस्तुत किया बल्कि अपने विचारों से समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त
करने का कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया।
L 11 : गांधीवाद
गांधीवाद क्या है :- गांधी जी के विचारों
और आदर्शों का संग्रह गांधीवाद है।
गांधीजी के जीवन मूल्य :-
गांधीजी के जीवन मूल्य निम्न है :-
1.सत्य,
2. अहिंसा, 3. भ्रातृत्व व 4. प्रेम ।
1. गांधीजी सत्य, अहिंसा, प्रेम और भ्रातृत्व के पुजारी थे।
2. गांधी जी राजनीति को पवित्र
बनाकर उसे धर्म व न्याय पर आधारित करना चाहते थे।
3. गांधीजी व्यक्तियों में प्रेम
और स्वतंत्रता का संचार करना चाहते थे।
4. गांधीजी व्यक्ति को पुरुषार्थ
का महत्व समझाना चाहते थे।
5. गांधीजी साध्य और साधनों की पवित्रता पर बल देते थे।
गांधीवाद विचारों का समूह मात्र है :-
गांधीवाद गांधी जी के विचारों का एक समूह मात्र है जिसमें उनके निम्नलिखित
विचार हैं :-
1. गांधी जी के आदर्शों का आधार
है – सत्य, अहिंसा, प्रेम व भ्रातृत्व।
2. मानवतावाद में विश्वास।
3. वे परिवर्तनवादी थे।
4. ईश्वर में अटल विश्वास।
5. समूहवादी विचारक।
6. वर्ग सहयोग व आध्यात्मिक समाजवाद
पर बल।
7. ग्राम स्वराज्य पर बल।
8. राजनीतिक व आर्थिक विकेंद्रीकरण
पर बल।
9. राज्य विहीन एवं वर्ग विहीन समाज के समर्थक।
10. अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य को महत्व।
11. उदारवाद और नैतिकता में विश्वास।
गांधी जी की रचनाएं :-
1. हिंद स्वराज
2. दक्षिण अफ्रीका
के सत्याग्रह का इतिहास
3. सत्य के साथ मेरे
प्रयोग
4.गीता पदार्थ कोश
गांधीजी द्वारा प्रकाशित एवं सम्पादित समाचार-पत्र और पत्रिकाएं :-
1. इंडियन ओपिनियन
(दक्षिण अफ्रीका में)
2. नवजीवन
3. यंग इंडिया
4. हरिजन
5. आर्यन पथ
गांधीवाद के स्रोत :-
गांधी जी के विचारों पर पड़े प्रभावों का विवेचन इस प्रकार कर सकते हैं :-
A. धार्मिक ग्रंथों का प्रभाव :-
1. सनातन धर्म ग्रंथों का प्रभाव :-
ग्रन्थ | प्रभाव |
पतंजलि का योग सूत्र | योग दर्शन |
उपनिषद | अपरिग्रह और त्याग |
रामायण | भक्ति |
गीता | कर्म का सिद्धान्त |
2. जैन व बौद्ध ग्रंथों का प्रभाव :-
(i) अहिंसा का सिद्धांत।
(ii) मांस, मदिरा व पराई स्त्री से दूर रहना।
3. बाइबिल का प्रभाव :-
बुराई को भलाई से, शत्रुता को मित्रता से, घृणा को प्रेम से, अत्याचार को प्रार्थना से एवं हिंसा को अहिंसा से जीतने का मार्ग गांधी जी ने बाइबिल
से ही सीखा है।
विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से गांधीजी ने निम्न विचारों को अपनाया :-
1. सत्य | 5. ब्रह्मचर्य | 9. शारीरिक श्रम |
2. अहिंसा | 6. अस्वाद | 10. सर्वधर्म |
3. अस्तेय | 7. अभय | 11. समभाव |
4. अपरिग्रह | 8. अस्पृश्यता निवारण | 12. स्वदेशी |
B. दार्शनिकों का प्रभाव :-
दार्शनिक | प्रभाव |
जॉन रस्किन | सर्वोदय एवं शारीरिक श्रम का महत्त्व |
हेनरी डेविड थोरो | सविनय अवज्ञा |
लियो टॉलस्टॉय | निष्क्रिय प्रतिरोध |
सुकरात | सत्याग्रह का विचार |
गोपाल कृष्ण गोखले | राजनीतिक आध्यात्मीकरण |
बाल गंगाधर तिलक | असहयोग, जन आंदोलन, बहिष्कार |
C. सुधारवादी आंदोलनों का प्रभाव :-
भारत में चल रहे विभिन्न सांस्कृतिक, दार्शनिक
व धार्मिक सुधारवादी आंदोलन का गांधीजी के विचारों पर प्रभाव पड़ा है, विशेषकर रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद का। स्वदेश प्रेम और स्वदेशी की भावना गांधी जी ने इन्हीं से सीखी थी।
D. सामाजिक–आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव :-
भारतीयों की तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक दशा का भी गांधीजी के विचारों पर विशेष प्रभाव पड़ा। उनके समाजवादी विचारों पर भारतीयों
की असहाय दशा और गरीबी की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
दक्षिण अफ्रीका गांधीजी के प्रयोगों की प्रयोगशाला :-
निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि दक्षिण अफ्रीका गांधी
जी के विचारों की प्रयोगशाला थी क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में ही :-
1. गांधीजी में धार्मिक चेतना का विकास हुआ।
2. पाश्चात्य लेखकों की विचारधारा
का अध्ययन किया।
3. सर्वप्रथम सत्याग्रह का प्रयोग
हुआ।
4. नि:स्वार्थ मानव सेवा की भावना पैदा हुई।
5. समाज के प्रति कर्तव्यों की अनुभूति हुई।
6. राष्ट्रवादी विचार पनपे।
7. श्रमिकों के कार्य का महत्व
समझा।
राजनीति
का आध्यात्मीकरण :-
गांधी जी का मानना था कि धर्म व राजनीति में घनिष्ठ संबंध
है और धर्म व राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गांधी जी का मानना था कि धर्म और राजनीति एक ही कार्य के दो नाम है। उनका विश्वास था कि जिस प्रकार धर्म का उद्देश्य अन्याय, अत्याचार और शोषण पर आधारित
सामाजिक संबंधों में परिवर्तन लाना और न्याय की स्थापना करना है, ठीक उसी प्रकार राजनीति भी
इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है। गांधीजी के अनुसार सच्चा धर्म वही है जो मानव सेवा में सलंग्न हो और
जो अहिंसा, प्रेम व सदाचार पर आधारित हो। इसी तरह गांधी जी ने राजनीति को भी मानवीयता पर आधारित माना है। अतः गांधी जी का मानना है कि धर्म और राजनीति दोनों ही नैतिकता पर आधारित
होने चाहिए।
साध्य और साधनों की पवित्रता पर विश्वास :-
गांधी जी ने राजनीति और नैतिकता में निकट संबंध स्थापित करने के लिए साध्य एवं साधनों की पवित्रता पर बल दिया। गांधीजी का मानना
है कि जैसे साधन होंगे, वैसा ही साध्य होगा अर्थात साध्य की प्रकृति साधनों की प्रकृति से निर्धारित होती है। उन्होंने साधन की तुलना बीज से और साध्य की तुलना वृक्ष से करते हुए बताया कि जैसा बीज
बोओगे, वैसा ही वृक्ष उगेगा। बबूल का बीज बोकर आम का पेड़ नहीं उगाया जा सकता। उनका मानना है कि साध्य व साधन एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं जिन्हें पृथक करना संभव नहीं है। यदि साधन अनैतिक होंगे तो साध्य चाहे कितना भी नैतिक क्यों न हो, वह
अवश्य ही भ्रष्ट हो जाएगा क्योंकि गलत
रास्ता कभी भी सही मंजिल तक नहीं ले जा सकता। इसी प्रकार जो सत्ता भय व बल के प्रयोग पर
खड़ी हो जाती है, उससे लोगों के मन में स्नेह और आदर की भावना पैदा नहीं की जा सकती है।
गांधीजी ने
1922 ई. में असहयोग आंदोलन को चौरी-चौरा कांड की घटना से इसीलिए स्थगित कर दिया था कि
लोगों ने हिंसा को साधन के रूप में इस्तेमाल करना प्रारम्भ कर दिया था।
गांधीजी के
अहिंसा संबंधी विचार :-
गांधीजी के अनुसार अहिंसा का अर्थ है मन, कर्म
व वचन से किसी को कष्ट नहीं देना। गांधीजी के अनुसार अहिंसक व्यक्ति
प्रेम, दया, क्षमा, सहानुभूति व सत्य की मूर्ति होता है। गांधीजी के अनुसार अहिंसा के तीन प्रकार हैं :-
1. वीरों की अहिंसा :-
वीरों की अहिंसा वह अहिंसा है जब किसी के पास बल होने के बावजूद भी बल का प्रयोग नहीं करते हैं
2. निर्बलों की अहिंसा :-
गरीब व कमजोर वर्ग की अहिंसा को निर्बलों की अहिंसा कहा जाता है।
3. कायरों की हिंसा :-
ऐसे व्यक्ति जो डर या भय के कारण अहिंसक हो जाते हैं उनकी अहिंसा को कायरों की अहिंसा का
जाता है।
सत्याग्रह :-
शाब्दिक अर्थ :- सत्याग्रह = सत्य + आग्रह अर्थात सत्य पर अडिग रहना।
अर्थात व्यक्ति जिसे सत्य समझता है उस पर अडिग रहना।
गांधी जी
ने सत्याग्रह की 7 विशेषताएं बताई है :-
1. ईश्वर में श्रद्धा
2.सत्य-अहिंसा पर अटल विश्वास 3. चरित्र 4. निर्व्यसनी
5. शुद्ध ध्येय
6. हिंसा का त्याग
7. उत्साह, धैर्य व सहिष्णुता।
सत्याग्रह
का प्रयोग :-
सत्याग्रह का प्रयोग दूषित सरकार, कौम, जाति,
समूह या व्यक्ति विशेष के विरोध में हो सकता है। इसका प्रयोग शासन / शासक की अत्याचारी नीति के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों के विरोध में भी किया जा सकता है।
सत्याग्रह
के स्वरूप :-
गांधी जी ने सत्याग्रह के चार विभिन्न स्वरूप बताएं :-
1. असहयोग
2. हिजरत
3.सविनय अवज्ञा
4. उपवास
1. असहयोग :-
गांधीजी के अनुसार इसका तात्पर्य है कि जिसे व्यक्ति असत्य, अवैध, अनैतिक या अहितकर समझता है, उसके साथ सहयोग नहीं करना चाहिए। गांधीजी के अनुसार बुराई के साथ असहयोग करना व्यक्ति का न केवल कर्तव्य है बल्कि धर्म भी है। असहयोग के निम्न प्रकार हो सकते हैं :-
(i) हड़ताल :-
व्यक्ति या व्यक्तियों
के समूह द्वारा उनकी न्याय पूर्ण मांगे नहीं माने जाने पर अहिंसक रूप से अपने काम को
बंद करने को हड़ताल कहते हैं।
(ii)
बहिष्कार :-
अवांछनीय शासनों, सेवाओं, व्यक्तियों, वस्तुओं, आयोजनों आदि का त्याग करना बहिष्कार है।
(iii) धरना :-
सरकार, व्यक्ति या व्यवसायी के विरुद्ध मांगे नहीं मानने पर एक स्थान पर
बैठना, धरना कहलाता है।
2. हिजरत :-
हिजरत का शाब्दिक अर्थ है – स्वेच्छा से स्थान परिवर्तित कर लेना।
गांधी जी ने उन लोगों को हिजरत की सलाह दी है जो अहिंसक तरीके से अपने
आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर पाते हैं। अतः उन लोगों को
अपना आत्म-सम्मान बचाने
के लिए घर/ गांव /शहर / देश छोड़ देना चाहिए। गांधीजी ने 1928 ई. में बारडोली में और 1939 ई. में जूनागढ़ के सत्याग्रहियों को हिजरत की सलाह दी है।
3. सविनय अवज्ञा :-
इसका अभिप्राय है – अनैतिक कानून को भंग करना।
गांधीजी के अनुसार अहिंसक रूप से सरकार के कानून को नहीं
मानना, कर देने से मना करना, राज्य की सत्ता को मानने से
इनकार करना आदि सविनय अवज्ञा के रूप है। 1930 ई. में नमक कानून के विरोध में गांधीजी ने सविनय
अवज्ञा आंदोलन चलाया था।
4. उपवास
:-
गांधीजी के अनुसार उपवास ऐसा कष्ट है जिसे व्यक्ति स्वयं अपने ऊपर लागू
करता है। उपवास आत्म-शुद्धि के लिए होता है। व्यक्ति को उचित, न्यायसम्मत और स्वार्थरहित कार्य करने के लिए उपवास करना चाहिए। इसे भूख हड़ताल नहीं समझना चाहिए।
गांधीजी के आर्थिक विचार :-
गांधी जी न तो कोई अर्थशास्त्री थे और न ही उनके आर्थिक विचार अर्थशास्त्र के नियमों पर आधारित है। उनके आर्थिक विचार वास्तविक जीवन और अनुभव पर आधारित है। उनके आर्थिक विचार इस प्रकार हैं :-
1. यंत्रों
का विरोध :-
गांधी जी ने अपनी पुस्तक ” हिंद स्वराज्य ” में यंत्रों अर्थात मशीनों का विरोध
करते हुए लिखा है कि वह यंत्रों की निम्न बुराइयों के कारण विरोध करते
है :-
(i) यंत्रों की नकल
हो सकती है।
(ii) यंत्रों के विकास की कोई सीमा नहीं है।
(iii) यह मानव श्रम का स्थान ले लेता है।
2. पूंजीवाद का विरोध :-
गांधी जी का मानना है कि पूंजीवादी व्यवस्था ने गरीबी, बेरोजगारी, शोषण और साम्राज्यवाद को बढ़ावा
दिया है। परंतु गांधीजी मार्क्स की तरह पूंजीवाद का विरोध नहीं करते है। गांधीजी का पूंजी से कोई विरोध नहीं है परंतु वे पूंजी से उत्पन्न असमानताओं का विरोध करते हैं।
3. शारीरिक श्रम पर बल :-
गांधीजी का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीविका के लिए निरंतर श्रम करते रहना चाहिए और जो लोग बिना श्रम के पेट भरते हैं, वह समाज के लिए चोर है।
4. अपरिग्रह :-
गांधीजी के अनुसार
आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से आर्थिक विषमता उत्पन्न होती है। अतः आवश्यकतानुसार ही वस्तुओं का संग्रह करना चाहिए।
5. आर्थिक विकेंद्रीकरण पर बल :-
गांधीजी के अनुसार
बड़े-बड़े उद्योग अधिक पूंजी का उत्पादन करते हैं तथा मशीनों द्वारा व्यक्तियों के
शारीरिक श्रम का स्थान ले लिया जाता है जिससे बेरोजगारी बढ़ती
हैं। अतः बड़े उद्योगों की जगह कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
6. ट्रस्टीशिप सिद्धांत :-
गांधीजी के अनुसार पूंजीपति लोगों को अपनी आवश्यकतानुसार संपत्ति का
प्रयोग करना चाहिए तथा आवश्यकता से अधिक संपत्ति का ट्रस्टी बनकर उसका उपयोग जन कल्याण
के कार्य में करना चाहिए।
7. स्वदेशी :-
गांधीजी के अनुसार हमें अपने धर्म, राज्य, अपने उद्योग और अपनी वस्तुओं का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिए।
8. खादी :-
गांधीजी के अनुसार खादी गांवों को स्वावलंबी बनाने
का साधन है जिससे एक ओर लोगों को रोजगार मिलेगा वहीं दूसरी ओर खादी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक भी है।
गांधीजी के आर्थिक
विषमता दूर करने के सुझाव :-
1. अस्तेय :-
अस्तेय का सामान्य अर्थ है – चोरी नहीं करना।
गांधीजी के
अनुसार मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, वैचारिक और आर्थिक चोरी से सदा दूर रहना चाहिए। गांधीजी के अनुसार पूंजीपति लोग श्रमिक के श्रम की पूंजी की चोरी कर
धन का संचय करते हैं। इसी प्रकार व्यक्ति शारीरिक श्रम की चोरी कर आलसी
बन जाते है। अतः सभी तरह की चोरी के समाप्त हो जाने
पर समाज में आर्थिक समानता आ सकती है।
2. अपरिग्रह :-
अपरिग्रह का शाब्दिक
अर्थ है – संग्रह नहीं करना।
गांधीजी के
अनुसार व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक वस्तु या धन का संचय नहीं करना चाहिए। व्यक्ति को निरंतर श्रम करते हुए समाज
से उतना ही ग्रहण करना चाहिए जितना उसके
जीवन के लिए अनिवार्य हो। शेष को समाज के कल्याण हेतु समर्पित कर देना चाहिए। इस अपरिग्रह का दृढ़तापूर्वक पालन करते रहने से मनुष्य की आवश्यकताएं सीमित रहेगी और समाज में व्याप्त
आर्थिक विषमताओं का अंत संभव होगा।
3. ट्रस्टीशिप का सिद्धांत :-
गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के अनुसार पूंजीपति अपनी आवश्यकता के अनुसार ही संपत्ति का उपयोग करें तथा शेष संपत्ति का वह ट्रस्टी अर्थात संरक्षक बन कर उसका उपयोग
जन कल्याण के कार्यों में करे।
गांधी जी
के ट्रस्टीशिप सिद्धांत के निम्न तत्व बताये है :-
(i) यह पूंजीवादी व्यवस्था को समतावादी समाज में
बदलने का साधन है।
(ii) इसमें पूंजीवाद का कोई स्थान नहीं है।
(iii) यह हृदय परिवर्तन में विश्वास
रखता है।
(iv) यह निजी संपत्ति के अधिकार
को अस्वीकार करता है।
(v) ट्रस्ट की संपति का उपयोग समाज
के हित में हो।
(vi) आवश्यकता पड़ने पर ट्रस्ट का नियमन राज्य द्वारा हो।
(vii) उत्पादन सामाजिक आवश्यकताओं पर आधारित हो।
4. स्वदेशी :-
गांधीजी स्वदेशी
के विचार से समाज में आर्थिक समानता स्थापित करने की बात करते हैं। उनके अनुसार हमें जहां तक संभव हो नजदीक के वातावरण का प्रयोग करना चाहिए और दूर के वातावरण का त्याग करना चाहिए। जैसे हमें अपने धर्म का पालन करना चाहिए, हमें अपनी राजनीतिक संस्थाओं
का प्रयोग करना चाहिए, हमें हमारे समीप में बनी वस्तुओं
का उपयोग करना चाहिए,
हमें अपने उद्योगों का उपयोग करना चाहिए आदि। गांधीजी के स्वदेशी सिद्धांत का आशय यह कतई नही है कि सभी विदेशी वस्तुओं का प्रयोग वर्जित कर दिया जाए। वे केवल उन्हीं विदेशी वस्तुओं को स्वीकार करते थे जो घरेलू या भारतीय
उद्योग को कुशल बनाने में अनिवार्य हो।
5. खादी :-
गांधीजी का मानना है कि आर्थिक संकट की समस्या का हल करने के लिए खादी अर्थात चरखा प्राकृतिक, सरल, सस्ता और व्यवहारिक तरीका है। खादी के माध्यम से गांवों में रोजगार की
समस्याओं को समाप्त कर गांव को स्वावलम्बी बनाया जा सकता है ताकि गांवों से शहरों की ओर पलायन भी नहीं होगा और गांवों का शोषण भी नहीं होगा। इस प्रकार खादी आलस्य व बेकारी की समस्या का तात्कालिक समाधान
है। साथ ही खादी के माध्यम से राजनीतिक संगठन और जनसंपर्क द्वारा राष्ट्रीय
आंदोलन भी चलाया जाना सरल होगा।
गांधीजी के आर्थिक
विचारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन :-
1. अव्यवहारिक।
2. एकपक्षीय।
3. मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं
की उपेक्षा।
4. यंत्रों का अनावश्यक विरोध।
5. वर्तमान समय में खादी का सिद्धांत
प्रासंगिक नहीं।
6. ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अव्यवहारिक एवं मात्र काल्पनिक।
7. पूंजीवाद को समाप्त नहीं करना
चाहते थे।
गांधी जी के राजनीतिक विचार :-
1. अहिंसक आदर्श राज्य की कल्पना :-
गांधीजी ने अपने विचारों के माध्यम से अहिंसक और शांति पर आधारित राज्य का समर्थन किया है जिसमें उन्होंने
बल आधारित राज्य को नकारा है।
2. मर्यादित राज्य :-
गांधीजी का मानना है कि राज्य हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है, साथ ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी
होने के कारण सदैव समाज के प्रति वांछित नैतिक उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं कर पाता
है। इसलिए राज्य को अत्यधिक शक्तियां नहीं देकर उसके कार्यक्षेत्र को सीमित
रखा जाए।
3. राज्य अनावश्यक बुराई है :-
अराजकतावादी विचारक होने के नाते गांधीजी का
मानना है कि राज्य हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है जिससे राज्य बन कर व्यक्तियों की स्वतंत्रता और समाज कल्याण के लिए घातक
सिद्ध हो सकता है।
अतः राज्य एक आवश्यक बुराई है।
4. राज्य की शक्ति व्यक्ति के विकास में बाधक
:-
गांधीजी का मानना है कि राज्य की शक्ति व्यक्ति के नैतिक गुणों को नष्ट
कर देती हैं जिससे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। अतः राज्य व्यक्ति के विकास में बाधक होता है।
5. व्यक्ति को प्राथमिकता :-
गांधी जी ने राज्य के प्रभुत्व के सिद्धांत का खंडन करते हुए माना है
कि राज्य का निर्माण व्यक्ति के लिए हुआ है न कि व्यक्ति राज्य के लिए है। अतः राज्य को व्यक्ति के कल्याण पर प्राथमिकता से कार्य करना चाहिए।
6. स्थानीय स्वशासन का समर्थन :-
गांधीजी राज्य को व्यक्ति के दैनिक
जीवन से बाहर की संस्था मानते है। इसलिए वे विकेंद्रीकृत आदर्श समाज की स्थापना पर बल देते हैं। उनका मानना है कि गांव को आत्मनिर्भर बनाया जाए। इसके लिए गांवों को प्रशासन और प्रबंध के अधिकार
मिलना चाहिए।
उपरोक्त सभी तथ्यों से स्पष्ट है कि गांधीजी अपनी राज्य संबंधी विचारों
से स्पष्ट करना चाहते हैं कि राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित होना चाहिए अर्थात उन्होंने न्यूनतम राज्य का समर्थन किया है।
गांधीवाद की राजनीति शास्त्र को देन :-
गांधीवादी दर्शन की राजनीति शास्त्र को निम्नलिखित देन है :-
1. अहिंसा :-
यह गांधीजी की राजनीति शास्त्र को सबसे बड़ी देन है। गांधीजी का अहिंसा का सर्वोत्तम साधन सत्याग्रह विश्व के लिए अभूतपूर्व देन है। जहां अब तक विश्व में अन्याय को दूर करने के लिए एकमात्र विकल्प युद्ध
ही था, वहां अब गांधी जी के सत्याग्रह का सिद्धांत विकल्प के रूप में सामने आया है।
2. साधन और साध्य की पवित्रता में आस्था :-
गांधीजी ने मनुष्य के लक्ष्य अर्थात साध्य और उसे प्राप्ति के विभिन्न तरीकों अर्थात साधनों की पवित्रता पर बल देकर मनुष्य को नैतिक बनाने का प्रयास किया
है।
3. राजनीति में नैतिकता व आदर्शवाद का समावेश :-
गांधीजी
ने राजनीति का आध्यात्मीकरण कर उसे धर्म से संबंधित कर दिया है। बगैर धर्म के राजनीति को अपूर्ण माना है। इस प्रकार गांधीजी राजनीति में धर्म अर्थात नीति पर बल देते हैं।
4. नए विचारों का स्वागत :-
गांधीवादी दर्शन में सभी विचार सम्मिलित है। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, एवं धर्म सभी को एक दूसरे से सम्बद्ध किया गए हैं और नए विचारों का सदैव समर्थन किया है।
गांधीवाद का आलोचनात्मक
मूल्यांकन :-
गांधीवाद के पक्ष में तर्क :-
1. गांधीजी के विचार नैतिक नियमों पर आधारित है।
2. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रांतिकारी विचार है।
3. नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ है।
4. राजनीतिक दृष्टि से सरल, व्यापक और व्यवहारिक हैं।
5. सामाजिक दृष्टि से सरल, व्यापक और व्यवहारिक हैं।
6. आर्थिक स्वावलंबन पर बल।
7. धर्म और नैतिकता पर बल।
8. सर्वधर्म समभाव पर बल।
9. ग्राम स्वराज्य पर बल।
10. सत्याग्रह पर बल।
गांधीवाद के विपक्ष
में तर्क :-
1. व्यवहारिक
2.अवैज्ञानिक
3. एक पक्षीय
4. मौलिकता रहित
5. काल्पनिक
6. कोरा आदर्शवाद
7. पूंजीवाद का समर्थक