UNIT : 4 भारतीय राजनीति के उभरते आयाम
L : 1 :: नियोजन
एवं विकास
अभिप्राय :-
नियोजन क्या है – सोच समझ कर सही दिशा में सही तरीके
से किया गया कार्य नियोजन है।
नियोजन के
लिए आवश्यक है :- (1) उद्देश्य स्पष्ट हो, (2) उद्देश्य प्राप्ति के साधन एवं प्रयास व्यवस्थित हो और (3) समयावधि निश्चित हो।
योजना आयोग के अनुसार नियोजन की परिभाषा :-
” नियोजन संसाधनों के संगठन की
एक ऐसी विधि है जिसके माध्यम से संसाधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग
निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है।”
नियोजन का इतिहास
:-
वैश्विक दृष्टि
से सर्वप्रथम सोवियत रूस ने अर्थव्यवस्था के विकास एवं वृद्धि हेतु नियोजन को स्वीकार किया जिसकी सफलता से प्रेरित होकर भारत में भी नियोजन की
आवश्यकता महसूस की गई की जाने लगी। भारत में नियोजन की दिशा में सर्वप्रथम
प्रयास 1934 ई. में एम. विश्वेश्वरैया की पुस्तक ” प्लान्ड इकोनामी फॉर इंडिया ” द्वारा किया गया। सर्वप्रथम आर्थिक योजना सुभाष चंद्र बोस द्वारा 1938 ई. में शुरू की गई। इसी क्रम में कालांतर में 1944
ई. में बम्बई योजना,
श्रीमन्नारायण की गांधीवादी योजना, एम.एन. रॉय की जन योजना और 1950 ई. में जयप्रकाश नारायण की सर्वोदय योजना सार्थक प्रयास रहे है। स्वतंत्रता उपरांत 1950 ई. में सरकार द्वारा गैर संवैधानिक निकाय के रूप में योजना आयोग का गठन
किया गया। योजना आयोग का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है।
नियोजन की आवश्यकता
:-
तत्कालीन भारत में नियोजन की आवश्यकता के निम्न कारण रहे है :-
1. भारत की कमजोर आर्थिक स्थिति।
2. बेरोजगारी की समस्या।
3. आर्थिक एवं सामाजिक असमानताएं।
4. विभाजन से उत्पन्न समस्याएं।
5. औद्योगीकरण की आवश्यकता।
6. पिछड़ापन एवं धीमा विकास।
7. बढ़ती जनसंख्या।
नियोजन के उद्देश्य
:-
नियोजन के निम्नलिखित उद्देश्य है :-
1. संसाधनों का समुचित उपयोग।
2. रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा
करना।
3. देश के नागरिकों की सोई हुई
प्रतिभा को जागृत कर परंपरागत कौशलों को नवीनीकृत रूप में विकसित करना।
4. आर्थिक एवं सामाजिक असमानताओं को दूर करना।
5. सभी प्रांतों एवं क्षेत्रों
का संतुलित विकास करना।
6. व्यक्ति की आय एवं राष्ट्रीय
आय में वृद्धि करना।
7. सामाजिक उन्नति करना।
8. राष्ट्रीय आत्म-निर्भरता प्राप्त करना।
9. गरीबी मिटाना।
19. आर्थिक स्थिरता प्राप्त करना।
11. जन कल्याण के लिए योजनाएं निर्माण।
आर्थिक नियोजन
के लक्षण :-
अच्छे आर्थिक
नियोजन के निम्नलिखित लक्षण है :-
1. उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम प्रयोग।
2. औद्योगिकरण में क्रमबद्ध वृद्धि।
3. कृषि एवं उत्पादन का समानान्तर विकास।
4. इलेक्ट्रॉनिक्स एवं संप्रेषण
क्षेत्र में तीव्र गति से आगे बढ़ना।
5. शासकीय
कार्य अर्थात नौकरशाही में पारदर्शिता लाना।
6. भौगोलिक दृष्टि से वंचित क्षेत्रों में निवेश को प्राथमिकता देकर क्षेत्रीय असंतुलन
को दूर करना।
7. शिक्षा के क्षेत्र का आधुनिकीकरण एवं प्रसार।
8. बौद्धिक संपदा का समुचित उपयोग।
9. कौशल विकास पर ध्यान देना।
नियोजन का
आर्थिक विकास से संबंध :-
आर्थिक क्षेत्र में नियोजन का लक्ष्य राष्ट्र विकास है। सहभागी और उत्तरदायी प्रबंधन विकास की प्रथम सीढ़ी है
और नियोजन संसाधनों और प्रशासन को सहभागी और उत्तरदायी बनाता है। पई पणधीकर एवं क्षीर सागर ने विकास के लिए नीति निर्माणकर्ताओं के दृष्टिकोण की अभिवृत्ति -परिवर्तन परिणाम प्रदाता, सहभागिता एवं कार्य के प्रति समर्पणवादी होना आवश्यक माना है। महात्मा गांधी के अनुसार नियोजन का लक्ष्य अंतिम व्यक्ति का विकास कर संसाधनों के विकेंद्रीकरण
को प्राथमिकता देना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबका साथ सबका विकास का नारा इसी अवधारणा
को सुदृढ़ करता है।
विकास के मायने लोगों के जीवन स्तर में उन्नति
करने से हैं। आज हम दुनिया के अग्रणी देशों के साथ खड़े नजर आते हैं तो कहीं ना कहीं नियोजित विकास की हमारी
रणनीति सफल नजर आ रही है। विकास के नियोजित प्रयासों में 1950 से 2015 तक योजना आयोग
ने अपनी केंद्रीय
भूमिका निभाई। 2015 में योजना आयोग के स्थान पर नीति आयोग
विकास के नियोजित प्रयासों का नेतृत्व कर रहा है।
नीति आयोग
NITI :- National Institution for Transforming
India अर्थात राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान।
13 अगस्त
2014 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने योजना आयोग को भंग कर नीति आयोग के
गठन को मंजूरी दी। नीति आयोग ने एक जनवरी 2015 से योजना आयोग का स्थान लिया। नीति आयोग सरकार के थिंक टैंक के रूप में कार्य करता है और यह सरकार
को निर्देशात्मक और नीतिगत गतिशीलता प्रदान करता है।
नीति आयोग के गठन के कारण :-
1.विकास में राज्यों की भूमिका को सक्रिय बनाना।
2. देश की बौद्धिक संपदा का पलायन रोक कर सुशासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना।
3. विकास के लक्ष्यों को प्राप्त
करने हेतु केंद्र व राज्य के मध्य साझा मंच तैयार करना।
नीति आयोग
के गठन के उद्देश्य :-
1. प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्रियों
को राष्ट्रीय एजेंडे
का प्रारूप तैयार कर सौंपना।
2. केंद्र व राज्यों के मध्य सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना।
3. ग्राम स्तर पर विश्वसनीय योजना निर्माण हेतु ढांचागत विकास की पहल करना।
4. राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को प्रोत्साहन देना।
5. आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि
से पिछड़े वर्गों पर अधिक ध्यान देना।
6.दीर्घकालीन विकास की योजनाओं का निर्माण।
7. बुद्धिजीवियों की राष्ट्रीय विकास में भागीदारी को बढ़ाना।
8. तीव्र विकास हेतु साझा मंच तैयार करना।
9. सुशासन को बढ़ावा देना।
10. प्रौद्योगिकी उन्नयन एवं क्षमता निर्माण पर जोर देना।
नीति आयोग
का संगठन :-
Ø अध्यक्ष – प्रधानमंत्री
Ø गवर्निंग
परिषद के सदस्य :- समस्त राज्यों के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल।
Ø क्षेत्रीय
परिषद :- संबंधित क्षेत्रों के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल सदस्य होंगे।
उद्देश्य :- एक से अधिक राज्यों को प्रभावित करने वाले क्षेत्रीय मसलों पर विचार एवं निर्णय लेना।
Ø प्रधानमंत्री
द्वारा मनोनीत विशेष आमंत्रित सदस्य।
1. उपाध्यक्ष – प्रधान मंत्री द्वारा नियुक्त।
2. पूर्णकालिक सदस्य।
3. अंशकालिक सदस्य (दो)
4. पदेन सदस्य : केंद्रीय मंत्री परिषद के 4 सदस्य जो प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त होंगे।
5. मुख्य कार्यकारी अधिकारी – सचिव स्तर का अधिकारी।
6.सचिवालय।
L : 13 :: पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधन
पर्यावरण :-
पृथ्वी के चारों ओर के वातावरण को
पर्यावरण कहते हैं।
पर्यावरण
संरक्षण में भारतीय संस्कृति की भूमिका :-
” माता भूमि: पुत्रोsहम पृथिव्या “
पर्यावरण संरक्षण में भारतीय संस्कृति की भूमिका हम निम्नलिखित बिंदुओं से समझ सकते हैं :-
1. वैदिक साहित्य की भूमिका :-
वैदिक साहित्य में वेदों, उपनिषदों, आरण्यकों आदि में पर्यावरण को विशेष महत्व दिया गया है। ऋग्वेद में जल, वायु, व
पृथ्वी को देव स्वरूप मानकर उनकी स्तुति
की गई है, वहीं यजुर्वेद में इंद्र, सूर्य, नदी, पर्वत, आकाश, जल आदि देवताओं का आदर करने
की बात कही गई है।
2. धार्मिक आस्थाओं की भूमिका :-
प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों ने पौधों को धार्मिक आस्था
से जोड़कर इनके संरक्षण का प्रयास किया गया। जैसे पीपल को अटल सुहाग का प्रतीक मानकर, तुलसी को रोग निवारक और भगवान
विष्णु की प्रिय मानकर, बील के वृक्ष को भगवान शिव से जोड़कर, दूब व कुश को नवग्रह पूजा से जोड़कर आदि।
3. प्राचीन दार्शनिकों की भूमिका :-
प्राचीन युग में विभिन्न दार्शनिकों और शासकों ने पर्यावरण संरक्षण
के प्रति जागरूकता दिखाई है। वैदिक ऋषि पृथ्वी, जल व औषधि शांतिप्रद रहने की प्रार्थना करते हैं। नदी सूक्त में नदियों को देव स्वरूप माना गया है। आचार्य चाणक्य ने साम्राज्य की स्थिरता स्वच्छ पर्यावरण पर निर्भर
बताई है।
4. धर्म और संप्रदाय की भूमिका :-
जैन धर्म अहिंसा को परम धर्म मानते हुए जीव संरक्षण पर बल देता है। विश्नोई संप्रदाय के 29 नियम प्रकृति संरक्षण पर
बल देते हैं।
“सिर साठे रूख रहे तो भी सस्ता जाण” कहावत को चरितार्थ करते हुए 21 सितंबर 1730 को जोधपुर
के खेजड़ली गांव के विश्नोई संप्रदाय के 363 लोगों ने अमृता
देवी विश्नोई के नेतृत्व में अपना बलिदान दे दिया अर्थात बिश्नोई समाज के लोगों ने
वृक्ष की रक्षा हेतु अपने सिर कटाने की जो मिसाल पेश की, वह आज भी पर्यावरण हेतु सबसे
बड़ा आंदोलन माना जाता है
उपरोक्त समस्त बिंदुओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण रोम
रोम में बसा था।
पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता :-
पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता के संबंध में निम्नलिखित
तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं :-
1. वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक विकास के कारण पर्यावरण
दूषित हो रहा है।
2. वनों की कटाई व वन्य जीवो में निरंतर कमी।
3. औद्योगिकरण और शहरीकरण में
वृद्धि।
4. जनसंख्या विस्फोट।
5. परमाणु भट्टियों की रेडियोधर्मी राख।
6. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का कचरा।
7. ग्लोबल वार्मिंग।
8. प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन।
9. घटता प्राकृतिक परिवेश।
ग्रीन हाउस
प्रभाव या ग्लोबल वार्मिंग :-
कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सीएफसी आदि गैसों के अत्यधिक
उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल के चारों ओर इन गैसों का घना आवरण बन जाता है। यह आवरण सूर्य से आने वाली किरणों
को पृथ्वी तक आने देता है परंतु पृथ्वी से परावर्तित अवरक्त किरणों को बाह्य वायुमंडल में जाने से रोक देता है जिससे पृथ्वी के वातावरण का तापमान
बढ़ने लगता है। इसे ग्लोबल वार्मिंग कहते है। क्योंकि पृथ्वी की स्थिति ग्रीन हाउस की तरह हो जाती हैं इसलिए इसे
ग्रीन हाउस प्रभाव भी कहते है।
Note :- ग्रीन हाउस प्रभाव :-
वर्तमान समय में अधिक सब्जियों के उत्पादन के लिए ऐसे कांच के घरों
का निर्माण किया जाता है जिसमें दीवारी ऊष्मा रोधी पदार्थों की और छत ऐसे कांच की बनाई जाती हैं जिससे सूर्य के प्रकाश को अंदर प्रवेश मिल
जाता है परंतु अंदर की
ऊष्मा बाहर नहीं निकल पाती है। इससे उस कांच के घर का तापमान लगातार बढ़ता
रहता है। ऐसे घरों को ग्रीनहाउस कहते है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण :-
1. ग्रीन हाउस गैसें जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, मीथेन, सीएफसी आदि का उत्सर्जन।
2. वाहनों, हवाई जहाजों, बिजली घरों, उद्योगों आदि से निकलता हुआ
धुआं।
3. जंगलों का विनाश।
ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव
:-
1. वातावरण का तापमान बढ़ना :-
पिछले 10 वर्षों से
पृथ्वी का तापमान औसतन प्रति वर्ष 0.03 से 0.06℃ बढ़ रहा है।
2. समुद्री सतह में वृद्धि :-
समुद्र की सतह में वृद्धि होने से अब तक 18 द्वीप
जलमग्न हो चुके हैं और सैकड़ों द्वीपों व समुद्र तटीय महानगरों पर खतरा मंडरा
रहा है।
3. मानव स्वास्थ्य पर असर :-
ग्लोबल वार्मिंग
के कारण गर्मी बढ़ने से मलेरिया, डेंगू, येलो फीवर आदि जैसे
अनेक संक्रामक रोग बढ़ने लगे है।
4. पशु-पक्षियों और वनस्पतियों
पर प्रभाव :-
ग्लोबल वार्मिंग
के कारण पशु-पक्षी गर्म स्थानों से ठंडे स्थानों की ओर पलायन करने लगते हैं और वनस्पतियों लुप्त होने लगती है।
5. शहरों पर असर :-
गर्मियों में अत्यधिक
गर्मी और सर्दियों में अत्यधिक सर्दी के कारण शहरों में एयर कंडीशनर का प्रयोग बढ़
रहा है जिससे उत्सर्जित
होने वाली सीएफसी गैस से ओजोन परत पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।
ग्रीन हाउस
गैसों के उत्सर्जन के मुख्य कारक :-
क्र. सं. | ग्रीन | प्रतिशत |
1 | बिजली | 21.3 |
2 | उद्योग | 16.8 |
3 | यातायात | 14.4 |
4 | कृषि | 12.5 |
5 | जीवाश्म | 11.3 |
6 | रहवासी | 10.3 |
7 | बायोमास | 10.0 |
8 | कचरा | 3.4 |
ग्लोबल वार्मिंग रोकने के उपाय :-
1. आसपास पर्यावरण हरा-भरा रखे।
2.वनों की कटाई पर रोक लगाए।
3. कार्बनिक ईंधन के प्रयोग में कमी लाए।
4. ऊर्जा के नवीनीकृत साधनों जैसे
सौर ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा, वायु ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा आदि का प्रयोग
करे।
जलवायु परिवर्तन पर
वैश्विक चिंतन :-
1. स्टॉकहोम सम्मेलन 1972 :-
जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक चिंतन हेतु सर्वप्रथम 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में प्रथम बार
मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन हुआ जिसमें जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
पर विस्तृत विचार-विमर्श किया गया।
2. नैरोबी सम्मेलन 1982 :-
स्टॉकहोम सम्मेलन के 10 वर्ष होने पर केन्या की राजधानी नैरोबी में 1982 में राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ जिसमें पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं के संबंध
में कार्य योजनाओं का घोषणा पत्र स्वीकृत किया गया।
3. रियो पृथ्वी सम्मेलन 1992 :-
स्टॉकहोम सम्मेलन की 20वीं वर्षगांठ
पर ब्राजील की राजधानी रियो में प्रथम पृथ्वी शिखर सम्मेलन 1992 में आयोजित किया गया जिसमें पर्यावरण की सुरक्षा हेतु सामान्य अधिकारों
और कर्तव्यों को परिभाषित किया गया।
4. जलवायु परिवर्तन पर प्रथम COP सम्मेलन :-
जलवायु परिवर्तन
पर यूएनएफसीसीसी संधि के तहत जर्मनी की राजधानी बर्लिन में प्रथम COP सम्मेलन 1995 में आयोजित
किया गया।
5. COP – 20 सम्मलेन 2014 :-
जलवायु परिवर्तन पर COP-20 सम्मेलन
पेरू की राजधानी लीमा में 1 से 14 दिसंबर
2014 को आयोजित किया गया जिसके महत्वपूर्ण बिंदु निम्न है :-
(i) विश्व के 194 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
(ii) वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में
कटौती के संकल्प पर राष्ट्रों में आम सहमति बनी।
(iii) विकासशील देशों की चिंताओं
का समाधान किया गया।
(iv) अमीर देशों पर कठोर वित्तीय
मदद की प्रतिबद्धताएं लागू की गई।
(v) 2020 तक हरित जलवायु कोष को $100 अरब डॉलर प्रतिवर्ष करने का अधिकार दिया गया।
(vi) सभी देश अपने कार्बन उत्सर्जन
में कटौती के लक्ष्य को पेरिस सम्मेलन 2015 में प्रस्तुत करेंगे।
6. COP-21 सम्मेलन
2015 :-
जलवायु परिवर्तन पर COP-21 सम्मेलन
का आयोजन फ्रांस की राजधानी पेरिस में 30 नवंबर से
12 दिसंबर 2015 तक आयोजित हुआ जिसके महत्वपूर्ण
बिंदु निम्न है :-
(i) 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस पर 175 देशों ने पेरिस जलवायु
परिवर्तन समझौते पर हस्ताक्षर किए।
(ii) पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर
उपरांत सदस्य देश अपनी संसद से इसका अनुमोदन करवाएंगे।
(iii) यह समझौता विश्व में कम से
कम 55% कार्बन उत्सर्जन के जिम्मेदार 55 देशों के अनुमोदन के 30 दिनों के भीतर में अस्तित्व
में आएगा।
(iv) 21वीं सदी में दुनिया के तापमान में वृद्धि 2 डिग्री
सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य रखा गया।
(v) 2022 तक 175 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा गया।
(vi) यह समझौता विकासशील देशों के
विकास की अनिवार्यता को सुनिश्चित करता है।
(vii) भारत ने 2 अक्टूबर 2016 से इस समझौते
की क्रियान्विति की प्रक्रिया आरंभ कर दी।
भारतीय संविधान और पर्यावरण संरक्षण
:-
भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्व और मूल कर्तव्यों के
रूप में पर्यावरण संरक्षण को महत्व दिया गया है जो इस प्रकार हैं :-
1. अनुच्छेद 48 :-
राज्य पर्यावरण सुधार एवं संरक्षण की व्यवस्था
करेगा और वन्यजीवों को सुरक्षा प्रदान करेगा।
2. अनुच्छेद 51 :-
प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण (वन,
झील, नदी, वन्य जीव) की रक्षा करें एवं उनका संवर्धन करें और प्राणी मात्र के प्रति
दया का भाव रखें।
3. अनुच्छेद 21 :-
प्रत्येक
व्यक्ति को उन गतिविधियों से बचाया जाए जो उनके जीवन, स्वास्थ्य और शरीर को हानि
पहुंचाती हो।
4. अनुच्छेद 252 और 253 के अनुसार राज्य कानून का निर्माण
पर्यावरण को ध्यान में रखकर करेगा।
संसदीय अधिनियमों द्वारा पर्यावरण संरक्षण :-
A. वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 संशोधन 2003 :-
भारतीय संसद द्वारा 1972 में वन्यजीवों के अवैध शिकार और उनके हाड़-मांस व खाल के व्यापार पर रोक लगाने के लिए वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 पारित किया
गया जिसमें 2003 में संशोधन करते हुए इसे और अधिक कठोर बनाया
गया और इसका नाम भारतीय वन्यजीव संरक्षण (संशोधित) अधिनियम 2002 रखा गया। इसकी मुख्य विशेषताएं निम्न प्रकार हैं :-
1.वन्य जीव संरक्षण का विषय राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में रखा गया।
2. वन्य जीवों का संरक्षण एवं प्रबंधन सुनिश्चित करना।
3. वन्यजीवों के चमड़े और चमड़े
से बनी वस्तुओं पर रोक।
4. अवैध आखेट पर रोक।
5. अधिनियम का उल्लंघन करने पर 3 से 5 वर्ष की सजा और
₹5000 का जुर्माना।
6. राष्ट्रीय पशु बाघ और राष्ट्रीय
पक्षी मोर के शिकार पर 10 वर्ष
का कारावास।
B. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम – 1986 :-
इस अधिनियम को 23 मई 1986 को राष्ट्रपति
की स्वीकृति मिली। इसके प्रमुख प्रावधान निम्न है
:-
1. प्रथम बार उल्लंघन करने पर 5 वर्ष की कैद एवं ₹100000 का का जुर्माना।
2. मानदंडों का निरंतर उल्लंघन करने पर ₹5000
प्रतिदिन जुर्माना और 7 वर्ष की कैद।
3. नियमों का उल्लंघन करने पर
कोई भी व्यक्ति दो माह का नोटिस देकर जनहित में मुकदमा दर्ज कर सकता है।
4. इस अधिनियम की धारा 5 के तहत केंद्र सरकार अपनी शक्तियों के निष्पादन हेतु स्थापित प्राधिकारी को लिखित में निर्देश दे सकती हैं।
5. केंद्र सरकार का यह अधिकार
है कि इस अधिनियम की पालना न करने वाले उद्योग बंद कर दे और उनकी विद्युत व पेयजल कनेक्शन की सेवाएं रोकने का
निर्देश दे।
C. वायु प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1981 :-
इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान है :-
1. राज्य सरकार अपने विवेक से
किसी भी क्षेत्र को वायु प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्र घोषित कर सकती है।
2. समस्त औद्योगिक इकाइयों को
राज्य बोर्ड से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होगा।
3. अधिनियम के प्रावधानों की अनुपालना
नहीं करने पर उद्योग बंद कराए जा सकेंगे और उनके विद्युत व जल कनेक्शन काटे जा सकेंगे।
D. जल प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 संशोधन 1988 :-
इस अधिनियम
की मुख्य विशेषता जल को प्रदूषण मुक्त रखने के उपाय से संबंधित है। उद्योगों की स्थापना से पहले प्रदूषणकर्त्ताओं के
लिए कड़े दंड का प्रावधान है।
पर्यावरण संरक्षण हेतु न्यायपालिका
के महत्वपूर्ण निर्णय :-
पर्यावरण संरक्षण
हेतु भारतीय न्यायपालिका ने सदैव तत्परता दिखाते हुए समय-समय पर निम्न निर्देश जारी किए हैं :-
1. सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान निषेध का निर्देश।
2. दिल्ली में 2001 से टैक्सी, ऑटो-रिक्शा और बसों में सीएनजी गैस के प्रयोग का निर्देश।
3. 2000 में चारों महानगरों में सीसा रहित पेट्रोल के उपयोग का निर्देश।
4. वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने हेतु विभिन्न निर्देश।
5. ताजमहल को बचाने हेतु 292 कोयला आधारित उद्योगों को बंद करने या अन्यत्र स्थानांतरित करने का निर्देश।
6. दिल्ली नगर में प्रतिदिन सफाई
करने, सघन
वानिकी अभियान चलाने और आरक्षित वन कानून
लागू करने का आदेश।
7. विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों
में अध्ययन हेतु पर्यावरण को अनिवार्य विषय बनाने का निर्देश।
8. दूरदर्शन एवं रेडियो पर प्रतिदिन लघु अवधि और सप्ताह में एक बार लंबी अवधि के पर्यावरण
संबंधी कार्यक्रम प्रसारित करने के निर्देश।
9. सिनेमाघरों को वर्ष में दो बार पर्यावरण संबंधी फिल्म नि:शुल्क दिखाने का निर्देश।
पर्यावरण जागरूकता संबंधी महत्वपूर्ण दिवस :-
1. विश्व जल
दिवस :
22 मार्च
2. पृथ्वी दिवस : 22 अप्रैल
3. विश्व पर्यावरण
दिवस :
5 जून
4. वन महोत्सव
दिवस :
28 जुलाई
5. विश्व ओजोन
दिवस। :
16 सितंबर
उपभोक्तावादी संस्कृति :-
उपभोक्तावाद एक प्रवृत्ति है जो इस विश्वास पर आधारित है कि अधिक उपभोग और अधिक
वस्तुओं का स्वामी होने से अधिक सुख एवं खुशी मिलती है।
यह संस्कृति क्षणिक, कृत्रिम और दिखावटी है जिसमें व्यक्ति समाज में अपना स्टेटस दिखाने
के लिए बाजार से ऐसी अनेक वस्तुएं खरीद बैठता है जिसको अगर वह नहीं खरीदता है तो भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। परंतु उत्पादक भ्रमित और आकर्षित विज्ञापनों से ग्राहकों को यह विश्वास दिला देता है कि अमुक वस्तु उसके उपयोग योग्य हैं और
व्यक्ति उसे खरीद कर अनावश्यक रूप से अपनी जेब पर अतिरिक्त भार बढ़ा देता है।
उदाहरण के लिए अगर किसी महिला को नेल पॉलिश खरीदनी है तो बाजार में
वह नेल पॉलिश ₹5 से लेकर हजारों की कीमत
में उपलब्ध है। जब वह नेल पॉलिश खरीदती है तो उसके साथ-साथ उसे नेल पॉलिश रिमूवर भी खरीदना होता है, नेल कटर भी खरीदना होता है
और अन्य सह-उत्पाद भी खरीदने के लिए वह बाध्य हो जाती हैं। अब वह एक रंग की नेल पॉलिश नहीं
खरीदेगी बल्कि अपनी विभिन्न रंगों की ड्रेसों, चूड़ियां आदि से मिलती-जुलती
नेल पॉलिश भी खरीदेगी। यही उपभोक्तावादी संस्कृति है।
उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण :-
1. उद्योगपतियों की अत्यधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति।
2. विज्ञापनों द्वारा उपभोक्ताओं
का भ्रमित होना।
3. ग्राहकों को आकर्षित करने के
लिए उनमें कृत्रिम इच्छा जाग्रत करना।
4. अपव्ययपूर्ण उपभोग की प्रवृत्ति।
उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव :-
1. विकसित देशों द्वारा पूंजी
एवं संसाधनों का अपव्यय।
2. विलासिता की सामग्रियों से
ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा।
3. आर्थिक दिवालियापन की स्थिति उत्पन्न होना।
4. उत्पादों का जीवनकाल कम होना।
5. नई आवश्यकताओं की पूर्ति की इच्छा रखने के कारण मानसिक तनाव को बढ़ावा।
6. अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण
की समस्या।
7. प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक
दोहन।
8. प्राकृतिक संसाधन खत्म होने
के कगार पर।
L : 14 :: भारत और वैश्वीकरण
वैश्वीकरण का अर्थ समझने से पूर्व हमें निजीकरण और उदारीकरण
का अर्थ समझना चाहिए।
निजीकरण :-
निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सार्वजनिक स्वामित्व एवं नियोजन
युक्त किसी क्षेत्र या उद्योगों को निजी हाथों में स्थानांतरित किया जाता है।
उदारीकरण :-
उदारीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यवसायों एवं उद्योगों पर लगे प्रतिबंधों एवं बाधाओं को दूर कर ऐसा वातावरण स्थापित
किया जाता है जिससे देश में व्यवसाय एवं उद्योग स्वतंत्र रूप से विकसित हो सके अर्थात
व्यवसायों और उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण और स्वामित्व को हटाना ही उदारीकरण
है।
वैश्वीकरण का अर्थ :-
वस्तु, सेवा एवं वित्त के मुक्त प्रवाह की प्रक्रिया को भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण कहते है।
वैश्वीकरण की विशेषताएं :-
1. अन्तर्राष्ट्रीय एकीकरण।
2. विश्व व्यापार का खुलना।
3. वित्तीय बाजारों का अन्तर्राष्ट्रीयकरण।
4. जनसंख्या का देशांतर गमन।
5. व्यक्ति, वस्तु, पूंजी, आंकड़ों एवं विचारों का आदान-प्रदान।
6. विश्व के सभी स्थानों की परस्पर
भौतिक दूरी कम होना।
7. संस्कृतियों का आदान-प्रदान।
8. राष्ट्र राज्यों की नीतियों पर नियंत्रण।
वैश्वीकरण के कारण :-
वैश्वीकरण की प्रक्रिया निम्नलिखित कारणों के आधार पर की गई है :-
1. नवीन स्थानों व देशों की खोज।
2. मुनाफा कमाने की इच्छा।
3. प्रभुत्व की इच्छा।
4. संचार क्रांति एवं टेक्नोलॉजी
का प्रसार।
5. विचार, वस्तु, पूंजी व लोगों की आवाजाही।
6. उदारीकरण।
7. निजीकरण।
वैश्वीकरण
के प्रभाव :-
( A ) वैश्वीकरण के राजनीतिक प्रभाव :-
वैश्वीकरण के राजनीतिक प्रभाव को दो भागों में बांटा जा सकता है :-
( a ) नकारात्मक प्रभाव :-
1. राष्ट्र राज्यों की संप्रभुता का क्षरण।
2. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्थापना से सरकारों की स्वायत्तता प्रभावित।
3. राष्ट्रीय राज्यों की अवधारणा
में परिवर्तन। अब लोक कल्याणकारी राज्य की जगह न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य की स्थापना।
4. नव
पूंजीवाद व नव साम्राज्यवाद का पोषण।
( b ) सकारात्मक प्रभाव :-
1. शीत युद्ध एवं संघर्ष के स्थान पर शांति, रक्षा, विकास एवं पर्यावरण सुरक्षा
पर बल।
2. मानवाधिकारों की रक्षा पर बल।
3. वैश्विक समस्याओं के निवारण
हेतु विशाल अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन।
4. संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक आदि अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं राष्ट्रीय राज्यों
की हिस्सेदारी और भागीदारी पर आधारित।
5. तकनीकी क्षेत्रों में अग्रणी
राज्यों के नागरिकों के जीवन स्तर में व्यापक सुधार।
6. राज्य लोक कल्याण के साथ-साथ आर्थिक व सामाजिक प्राथमिकताओं का निर्धारक बना।
7. स्वतंत्रता, समानता और अधिकारों को बल मिला।
( B )
वैश्वीकरण के
आर्थिक प्रभाव :-
मूल रूप से देखा जाए तो वैश्वीकरण का सीधा संबंध अर्थव्यवस्था से ही
है जिसके कारण विश्व अर्थव्यवस्था पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है :-
( a ) अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव :-
1. अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों की स्थापना।
2. मुक्त व्यापार एवं बाजारों
पर बल।
3. विदेशी निवेश को प्रोत्साहन।
4. लाइसेंस राज की समाप्ति।
5. उदारीकरण व निजीकरण को बढ़ावा।
6. निजी निवेश को प्रोत्साहन।
7. आर्थिक विकास दर बढ़ना।
8. उत्पादन में प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता बढ़ना।
9. विश्व व्यापार में वृद्धि।
10. प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को
बढ़ावा।
11. विकसित देशों को अत्यधिक फायदा।
12. बैंकिंग, ऑनलाइन शॉपिंग एवं व्यापारिक
लेन-देन में सरलता।
13. आईएमएफ एवं डब्ल्यूटीओ की सक्रिय
भूमिका।
14. आयातों पर प्रतिबंध शिथिल हुए।
15. रोजगार के अवसर बढ़े।
( b ) नकारात्मक प्रभाव :-
1. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्थापना से कुटीर उद्योगों की समाप्ति।
2. कुटीर उद्योगों की समाप्ति
से स्थानीय रोजगार के अवसर समाप्त।
3. नव उपनिवेशवाद के नाम पर पिछड़े
देशों का शोषण।
4. पूंजीवादी देशों को अत्यधिक
लाभ।
5. विकसित देशों द्वारा वीजा नियमों
को कठोर बनाना जिससे उन देशों में अन्य देशों के नागरिकों का रोजगार हेतु पलायन रुक जाए।
6. व्यापार के बहाने अवैध हथियारों एवं अवैध लोगों की आवाजाही बढ़ने से आतंकवादी घटनाओं
में इजाफा।
7. निजीकरण एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों
की स्थापना से सरकारी संरक्षण समाप्त।
8. पैकेट
सामग्री को बढ़ावा मिलने से पर्यावरण को क्षति।
उपर्युक्त सभी तथ्यों से स्पष्ट है कि वैश्वीकरण से वैश्विक अर्थव्यवस्था को लाभ एवं नुकसान दोनों ही संभव है। फिर भी यह स्पष्ट है कि वैश्वीकरण से वैश्विक विकास और समृद्धि दोनों
में वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान के शब्दों में, “वैश्वीकरण का विरोध करना गुरुत्वाकर्षण के नियमों का विरोध करने के समान
है।”
वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव :-
वैश्वीकरण ने न केवल राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र
को प्रभावित किया है अपितु इस प्रभाव से सांस्कृतिक क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा है। इसके सांस्कृतिक प्रभावों को हम इस प्रकार समझ सकते हैं :-
( a ) सकारात्मक प्रभाव :-
1. विदेशी संस्कृतियों के मेल
से खान-पान, रहन-सहन, पहनावा, भाषा आदि पसंदो का क्षेत्र
बढ़ गया है।
2. विभिन्न संस्कृतियों का संयोजन
हुआ है।
3. सांस्कृतिक बाधाएं दूर हुई
है।
4. एक
नवीन संस्कृति का उदय।
( b ) नकारात्मक प्रभाव :-
1. उपभोक्तावाद एवं खर्च की प्रवृत्ति बढ़ी है।
2. देशज ( स्थानीय ) संस्कृतियों पर प्रतिकूल प्रभाव
पड़ा है।
3. संस्कृतियों की मौलिकताएं समाप्त हो रही
है।
4. पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण हो रहा है।
5. तंग पहनावों में बढ़ोतरी हो रही है।
6. फास्ट फूड संस्कृति को बढ़ावा।
सांस्कृतिक प्रभाव
बढ़ाने वाले माध्यम :-
वैश्वीकरण द्वारा विश्व के एक देश की संस्कृति का दूसरे देश में प्रवाह निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा संभव हुआ है :-
( a ) सूचनात्मक
सेवाओं द्वारा :-
1. इंटरनेट एवं ईमेल के द्वारा।
2. इलेक्ट्रॉनिक क्रांति एवं दूरसंचार
सेवाओं द्वारा।
3. विचारों और धारणाओं के आदान-प्रदान द्वारा।
4. डिजिटल क्रांति द्वारा।
( b ) समाचार सेवाओं
द्वारा :-
विभिन्न विश्वव्यापी समाचार चैनलों द्वारा भी सांस्कृतिक प्रवाह संभव हुआ है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है :-
1. CNN
2. BBC
3. अल जजीरा
भारत एवं वैश्वीकरण :-
भारत में जुलाई 1991 में
तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव एवं वित्त मंत्री श्री मनमोहन सिंह ने नवीन
आर्थिक नीतियों की घोषणा कर उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत
की।
उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण हेतु
उठाए गए कदम :-
Ø 1991 में नवीन आर्थिक नीतियों की घोषणा।
Ø 1992-93 में रुपए को पूर्ण परिवर्तनीय बनाना।
Ø आयात-निर्यात पर प्रतिबंध हटाए गए।
Ø लाइसेंस राज व्यवस्था समाप्त की गई।
Ø वैश्विक समझौतों के तहत नियमों एवं औपचारिकताओं को समाप्त किया गया।
Ø 1 जनवरी 1995 को भारत डब्ल्यूटीओ
का सदस्य बना।
Ø प्रशासनिक व्यवस्थाओं में सुधार किए गए।
Ø सरकारी तंत्र की जटिलताओं को हल्का किया गया।
भारत के समक्ष वैश्वीकरण की चुनौतियां
:-
वैश्वीकरण के दौर में भारत को निम्न चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा
है :-
1. आर्थिक विकास पर विषम प्रभाव :-
वैश्वीकरण की प्रक्रिया का सर्वाधिक लाभ विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों
को हो रहा है। अर्ध विकसित एवं पिछड़े देशों को वैश्वीकरण का अपेक्षाकृत कम लाभ हो रहा है। भारत एक
विकासशील देश है जिसके कारण भारत को विकसित देशों की तरह विकास का संपूर्ण लाभ
नहीं मिल पा रहा है।
2.
वैश्वीकरण
की वैधता का संकट :-
वैश्वीकरण की प्रवृत्ति से राष्ट्रीय राज्यों की आर्थिक संप्रभुता में
कमी आने के साथ-साथ आंतरिक संप्रभुता पर भी असर पड़ रहा है। अतः घरेलू संप्रभुता के क्षेत्र को बढ़ाने के लिए स्थानीय शासन यानी
पंचायत राज संस्थाओं की रचना करनी पड़ी है ताकि राज्य की वैधता को आगे बढ़ाया
जा सके।
3.
नागरिक
समाज संगठनों में तीव्र वृद्धि :-
वैश्वीकरण के दौर में दूरसंचार व इंटरनेट की पहुंच से विचारों और धारणाओं में तीव्र गति
आई है जिसके कारण नागरिकों में जागरूकता आने के कारण अनेक नागरिक संगठनों
का निर्माण हुआ है जिन्होंने राष्ट्रीय एवं प्रांतीय सरकारों को अप्रत्यक्ष रूप से
चुनौती दी है। साथ ही कई संगठनों की संरचना लोकतांत्रिक शासन के समानांतर हो जाने के कारण लोकतंत्र
के संचालन पर कुप्रभाव पड़ा है।
भारत में वैश्वीकरण अपनाने के कारण :-
1. पूंजी की आवश्यकता हेतु।
2. नवीन तकनीकों की आवश्यकता हेतु।
3. नवीन रोजगार के अवसरों का सृजन हेतु।
4. विश्व व्यापार में भागीदारी बढ़ाने हेतु।
5. स्वयं को आर्थिक शक्ति बनाने हेतु।
भारत में वैश्वीकरण का प्रभाव :-
( a ) सकारात्मक प्रभाव :-
1. विदेशी निवेश से पूंजी का आवागमन हुआ जिससे सेवा क्षेत्र ( रेल, सड़क, विमान, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि ) का विस्तार एवं विकास हुआ है।
2. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के साथ नवीन उच्च तकनीकों का प्रयोग
होने से औद्योगिक उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई है।
3. नए-नए उद्योगों की स्थापना से रोजगार के अवसर बढ़े है।
4. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यापक सुधार हुए है।
( b ) नकारात्मक प्रभाव :-
1. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की प्रतिस्पर्धा में स्थानीय भारतीय उद्योग समाप्त हो रहे हैं।
2. बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अपना लाभ अपने मूल देश को भेजने
से धन का प्रवाह विकसित देशों की ओर हो रहा है।
3. बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अपने कर्मचारियों को अधिक वेतन व सुविधाएं देने से अन्य कर्मचारियों के मध्य
आर्थिक असमानता उत्पन्न हो रही है।
4. गरीब और
अधिक गरीब एवं अमीर और अधिक अमीर बनता जा रहा है।
5. उपभोक्तावाद एवं व्यर्थ व्यय की संस्कृति को
बढ़ावा मिल रहा है।
6. राज्य का कल्याणकारी स्वरूप बदल कर न्यूनतम
हस्तक्षेपकारी होता जा रहा है जिससे सरकार द्वारा आम आदमी को संरक्षण कम होता जा
रहा है।
7. फूहड़ संस्कृति का उदय हो रहा है।
8. परंपरागत संगीत की जगह पाश्चात्य संगीत अपना प्रभुत्व जमा रहा है।
9. परंपरागत त्योहारों की जगह पाश्चात्य त्योहारों को अधिक महत्व दिया
जा रहे हैं। जैसे वेलेंटाइन डे, क्रिसमस डे, नववर्ष आदि।
10. सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का पतन हो रहा है।
भारतीय लोक संस्कृति
एवं सामाजिक मूल्यों पर वैश्वीकरण का प्रभाव :-
( a ) लोक संस्कृति पर प्रभाव :-
1. देश के विशिष्ट लोक संगीत एवं कला को नुकसान पहुंचा है।
2.
प्रादेशिक सांस्कृतिक
गतिविधियों का उन्मूलन हो रहा है।
3. शास्त्रीय संगीत की जगह पाश्चात्य एवं फूहड़ विदेशी संगीत स्थान ले रहा है।
4. लोक वाद्य यंत्रों की जगह इलेक्ट्रॉनिक वाद्य यंत्रों के उपयोग से संगीत
की सुरमयता और विशिष्टता समाप्त होती जा रही हैं।
5. फास्ट फूड, रेस्त्रां एवं पैकिंग खाने का प्रचलन बढ़ रहा है जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
6. कम कपड़ों के प्रचलन से जिस्म की नुमाइशे ज्यादा हो रही है।
( b ) सामाजिक मूल्यों पर प्रभाव :-
वैश्वीकरण का सामाजिक मूल्यों पर सर्वथा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है जो कि इस प्रकार है :-
1. संयुक्त परिवार व्यवस्था का विघटन हो रहा है।
2. एकल परिवार व्यवस्था को बढ़ावा मिल रहा है।
3. पति-पत्नी के संबंधों में दरार पड़ती जा रही हैं।
4. वृद्धों को बोझ समझा जा रहा है।
5. नारी का वस्तुकरण किया जा रहा है।
6. टेलीविजन परिवार का एक नया सदस्य बन गया है।
7. युवाओं ने मान-मर्यादा, रीति-रिवाजों एवं संस्कारों
का त्याग कर दिया है।
8. व्यक्ति के नैतिक चरित्र का पतन हुआ है।
9. आदर्शों और मूल्यों का पतन हो रहा है।
10. सामाजिकता का स्थान स्वार्थपरकता ने ले
लिया है।
वैश्वीकरण के परिणाम :-
वैश्वीकरण के परिणामों को हम निम्न दो प्रकार से समझ सकते हैं – आलोचनात्मक रूप से और उपलब्धियों के रूप में ।
( a ) आलोचना :-
वैश्वीकरण की आलोचना निम्नलिखित तत्वों के आधार पर की जाती है :-
1. राष्ट्रीय राज्यों की स्वायत्तता, संप्रभुता एवं आत्म-निर्भरता प्रभावित हो रही है।
2. अमेरिकी वर्चस्व को प्रोत्साहन मिल रहा है जिससे भारत जैसे देशों के
अमेरिका के ग्राहक देश बनने की आशंका की जा रही है।
3. वैश्वीकरण ने उदारीकरण और निजीकरण को बढ़ावा दिया
है जिससे शासन का लोककल्याणकारी स्वरूप घटता जा रहा है।
4. नव उपनिवेशवादी मानसिकता को बढ़ावा मिल रहा है जिसमें
विकसित देश कम विकसित
देशों के सस्ते कच्चे माल एवं सस्ते श्रम का
उपयोग कर अपना औद्योगिक उत्पादन बढ़ा रहे हैं तथा इसी उत्पादन की बिक्री हेतु कम विकसित देशों को बाजार के रूप में प्रयोग कर रहे है।
5. वैश्वीकरण ने विश्व में शरणार्थी समस्या को बढ़ावा दिया है। कम विकसित देशों के लोग रोजगार हेतु पलायन कर अन्य देशों में आ जाते हैं
और वहां स्थाई रूप से जमा हो जाते हैं जिससे शरणार्थियों की समस्या उत्पन्न हो रही
है। जैसे यूरोप में शरणार्थियों की समस्या, भारत में रोहिंग्या मुसलमानों
की समस्या, श्रीलंका में तमिलों की समस्या
आदि।
6. वैश्वीकरण का प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। विकसित देशों में औद्योगिक कचरे, प्लास्टिक एवं इलेक्ट्रॉनिक
उत्पादों के कचरे के निस्तारण की भयंकर समस्या उत्पन्न हो रही है। विकसित देश इस कचरे को गरीब देशों में स्थानांतरित कर वहां के पर्यावरण को प्रदूषित
कर रहे हैं।
7. वैश्वीकरण विकसित देशों के साम्राज्यवाद का पोषक बन
रहा है। वैश्वीकरण के माध्यम से विकसित देश गरीब एवं अर्द्ध विकसित देशों को ऋण आधारित अर्थव्यवस्था थोप कर अपने
अधीनस्थ करने का प्रयास कर रहे है। इस ऋण आधारित अर्थव्यवस्था से ऋणों में बेहताशा वृद्धि हो रही है और ऋण भुगतान का संकट उत्पन्न हो रहा है।
8. वैश्वीकरण द्वारा सभी वर्गों के हितों की जो अपेक्षाएं की गई, वो पूर्ण नहीं हो पा रही है।
( b ) वैश्वीकरण की उपलब्धियां :-
1. विकासशील देशों की जीवन प्रत्याशा लगभग दुगनी हो गई है।
2. शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर में कमी आई है।
3. व्यस्क मताधिकार का व्यापक प्रसार हुआ है।
4. लोगों के भोजन में पौष्टिकता बढ़ी है।
5. बालश्रम घटा है।
6. प्रति व्यक्ति सुविधाओं में वृद्धि हुई है।
7. सेवा क्षेत्र में अभूतपूर्व सुधार हुआ है।
8. स्वच्छ जल की उपलब्धता बढ़ी हैं।
9. लोगों के जीवन में खुशहाली आई है।
निष्कर्ष :-
वैश्वीकरण की विशेषता और उसके विभिन्न क्षेत्रों पर पड़े प्रभावों का
अध्ययन करने के उपरांत यह स्पष्ट है कि इसका सर्वाधिक लाभ विकसित देशों को हुआ है और
इसका सर्वाधिक नुकसान
अविकसित देशों को उठाना पड़ा है। विकास की अंधी दौड़ में सभ्यता और संस्कृति को अपूरणीय क्षति उठानी
पड़ रही है। ऐसा नहीं है कि वैश्वीकरण एक नवीन प्रवृत्ति हैं बल्कि
हजारों वर्षों के इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि एक देश के गुणवत्ता युक्त माल
एवं कारीगरी का निर्यात पूर्व में भी बड़े पैमाने पर किया जाता था। पहले संचार और इंटरनेट जैसे साधनों की कमी के कारण इसका इतना प्रचार
नहीं था जबकि वर्तमान में इसका प्रचार ज्यादा है।
साथ ही लोक-लुभावने प्रचार एवं सस्ते माल के कारण विभिन्न देशों के स्थानीय माल की उपेक्षा हो रही है। जैसे चीन उत्पादित माल अत्यधिक
लोक-लुभावना, आकर्षक एवं सस्ता होने के कारण विश्व के अन्य देशों
के बाजारों में बहुत ज्यादा बिक रहा है परंतु उस माल में गुणवत्ता एवं टिकाऊपन न के बराबर है। अतः हमें यह समझना होगा कि हमें सदैव
अच्छा और टिकाऊ सामान खरीदना चाहिए ताकि उपभोक्तावादी संस्कृति एवं व्यर्थ खर्च से बचा जा सके।
L :
15 ::
नवीन सामाजिक आंदोलन
नव सामाजिक
आंदोलन ऐसे सामाजिक आंदोलन है जो मानव जीवन में फैले हुए अन्याय के प्रति नवीन चेतना से प्रेरित होकर समकालीन विश्व के कुछ हिस्सों में उभरकर सामने
आए हैं। इसमें नारी अधिकार आंदोलन, पर्यावरणवादी आंदोलन, उपभोक्ता आंदोलन, नागरिक अधिकारों की मांग, दलित आंदोलन, छात्र आंदोलन, शांति आंदोलन एवं अन्ना आंदोलन
विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
नव सामाजिक आंदोलनों की शुरुआत 1960 के दशक से हुई है। नव सामाजिक आंदोलन
मुख्यत: युवा, शिक्षित एवं मध्यवर्गीय नागरिकों
के आंदोलन है जो नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं मानव मात्र के हित को ध्यान
में रखते हुए पर्यावरण के संरक्षण एवं शांति वातावरण को बढ़ावा देना चाहते हैं। इन आंदोलनों में गैर सरकारी संगठनों और नागरिक समाजों की महती भूमिका रही है।
नवीन सामाजिक आंदोलनों ने समकालीन राज्य के नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) की अवधारणा को मजबूत किया है। साथ ही वामपंथी झुकाव वाले कुछ तथाकथित
नागरिक समाजों ने कई बार राज्य की वैधता और शासन के अधिकारों को चुनौती दी है। जैसे अन्ना आंदोलन, नक्सलवाद समर्थक मानवाधिकार
आंदोलन आदि।
कुछ सामाजिक आंदोलनों ने राजनीतिक सत्ता और विचारधारा से संलग्न होकर भी
अपने मत रखे। जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन के आंदोलनकारियों द्वारा बीजेपी की विचारधारा के विरुद्ध मत व्यक्त करना। इसके अलावा कुछ सामाजिक आंदोलनों ने राज्य की भूमिका को पुष्ट करने
एवं सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन के भी प्रयास किए हैं। जैसे वनवासी कल्याण परिषद, सेवा भारती, शिक्षा बचाओ आंदोलन आदि।
सामाजिक आंदोलनों का विभाजन या प्रकार :-
डेविड आवर्ली ने 1966 में सामाजिक आंदोलनों को चार भागों में बांटा है :-
1. परिवर्तनकारी या क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन :-
इस प्रकार के सामाजिक आंदोलनों में आंदोलनकारी वर्तमान में प्रचलित
व्यवस्थाओं में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहते हैं। इसके लिए ये आंदोलनकारी क्रांति का सहारा लेना चाहते हैं। जैसे नक्सलवादी, वामपंथी आंदोलन आदि।
2. सुधारवादी सामाजिक आंदोलन :-
सुधारवादी आंदोलनकारी समाज में प्रचलित असमानताओं और सामाजिक समस्याओं में क्रमिक सुधार के पक्षधर होते हैं। इनका मानना है कि क्रमिक सुधार ही स्थाई रहता है। इसके लिए यह लोग संविधान का सहारा लेते हुए परिवर्तन करना चाहते हैं। जैसे सभी गैर सरकारी संगठन, कर्नाटक में लिंगायत आंदोलन, उत्तर पूर्व में श्री वैष्णव आंदोलन आदि।
3. उपचारवादी या मुक्तिप्रद सामाजिक आंदोलन :-
यह आंदोलन किसी व्यक्ति विशेष या समस्या विशेष पर केंद्रित होते हैं
और उस विशेष समस्या से मुक्ति उपरांत समाप्त हो जाते हैं। जैसे विद्यार्थियों, दलितों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यक वर्गों, निम्न जातियों एवं अन्य विशिष्ट श्रेणियों के लोगों के आंदोलन।
4.
वैकल्पिक
सामाजिक आंदोलन :-
इस प्रकार के आंदोलनों में आंदोलनकारी संपूर्ण सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में बदलाव लाकर उसके स्थान
पर अन्य विकल्प की स्थापना करना चाहते हैं। जैसे नारीवादी आंदोलन, दक्षिण भारत में SNDP आंदोलन, पंजाब में अकाली आंदोलन।
नवीन सामाजिक आंदोलनों के उदाहरण :-
1. कृषक अधिकार आंदोलन :-
वैश्वीकरण और निजीकरण के दौर में मुक्त बाजार व्यवस्था
में लघु कृषकों के हितों की रक्षा हेतु अनेक किसान संगठन कार्यरत है जिनमें भारतीय किसान संघ, शेतकरी संगठन (महाराष्ट्र में) आदि प्रमुख
हैं।
2. श्रमिक आंदोलन :-
श्रमिकों के हितों की रक्षा हेतु अनेक श्रमिक संगठन कार्यरत है। जैसे भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, कम्युनिस्ट इंडिया ट्रेड यूनियन आदि।
3. महिला सशक्तिकरण आंदोलन :-
भारतीय महिला सशक्तिकरण आंदोलन आमूलचूल बदलाव
पर आधारित है। यह जाति, वर्ग, संस्कृति, विचारधारा आदि आधिपत्य के विभिन्न रूपों को चुनौती देता है। महिला सशक्तिकरण आंदोलन के चलते ही देश में दहेज विरोधी अधिनियम, प्रसूति सहायता अधिनियम, समान कार्य के बदले समान वेतन, सती प्रथा विरोधी अधिनियम आदि
अनेक कार्य हुए है। वर्तमान में हमारे देश में महिला सशक्तिकरण हेतु अनेक योजनाएं जैसे
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ,
उज्ज्वला योजना आदि चल रही है। महिला मुक्ति मोर्चा, ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक एसोसिएशन, नागा मदर्स एसोसिएशन, शेतकरी महिला अघाड़ी, भारतीय महिला आयोग, निर्भया आंदोलन 2012 आदि महिला आंदोलन के उदाहरण है।
4. विकास के दुष्परिणामों के विरुद्ध आंदोलन :-
पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण विकास हेतु योजनाओं के चलने से अनेक दुष्परिणाम
भी सामने आए हैं जिनमें बांध परियोजनाओं के निर्माण से विस्थापन की समस्या (नर्मदा बचाओ आंदोलन, टिहरी बांध परियोजना विवाद आदि ), नदी जल विवाद ( विभिन्न
राज्यों के मध्य ), पर्यावरण को नुकसान (चिपको आंदोलन) आदि से जुड़े कई आंदोलन समसामयिक
परिस्थितियों में उभरकर सामने आए है। इसके अलावा और अन्य आंदोलन इस प्रकार
हैं :-
साइलेंट वैली बचाओ आंदोलन केरल में, चिपको आंदोलन उत्तराखंड में, जंगल बचाओ आंदोलन 1980 में बिहार में, नर्मदा बचाओ आंदोलन 1985 में, जनलोकपाल बिल आंदोलन 2011, पश्चिम बंगाल में सिंदूर और
नंदीग्राम आंदोलन, नवी मुंबई में सेज विरोधी आंदोलन आदि।
L : 16 :: सामाजिक
और आर्थिक न्याय एवं महिला आरक्षण
भारत के संविधान
के भाग – 4 यानी नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद – 38 में सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात कही गई है।
सामाजिक न्याय का अर्थ :-
सामाजिक न्याय दो शब्दों सामाजिक और न्याय से बना है जिसमें सामाजिक से तात्पर्य है समाज से संबंधित तथा
न्याय से तात्पर्य है जोड़ना। इस प्रकार सामाजिक न्याय का शाब्दिक
अर्थ है समाज से संबंधित सभी पक्षों को जोड़ना।
परंतु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सामाजिक
न्याय का अर्थ बहुत ही व्यापक स्तर पर लिए हुए है।
सामाजिक न्याय से तात्पर्य है कि
1. समाज के सभी सदस्यों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो।
2. सभी की स्वतंत्रता, समानता और अधिकारों
की रक्षा हो।
3. किसी भी व्यक्ति का शोषण नहीं हो।
4. प्रत्येक व्यक्ति प्रतिष्ठा और गरिमा के साथ जीवन जिये।
इस प्रकार स्पष्ट
है कि सामाजिक न्याय से तात्पर्य है उस समतावादी समाज की स्थापना से है जो समानता, एकता व भाईचारे के सिद्धांत
पर आधारित हो, मानवाधिकारों के मूल्यों को समझता हो और प्रत्येक मनुष्य की प्रतिष्ठा
को पहचानने में सक्षम हो।
सामाजिक न्याय की संकल्पना मूलत: समानता और मानव अधिकारों की अवधारणाओं पर आधारित है
सामाजिक न्याय की आवश्यकता क्यों :-
भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना के उद्देश्य की पूर्ति हेतु
संविधान निर्माताओं ने संविधान में अनेक प्रावधान किए है। परंतु उन्हें उस भारत में सामाजिक न्याय प्राप्ति की आवश्यकता क्यों
पड़ी जिसके कण-कण में ईश्वर के व्याप्त होने का गौरव प्राप्त है। इस संबंध में निम्नलिखित कारणों से यह दृष्टिगोचर होता है कि भारत में सामाजिक न्याय की प्राप्ति की आवश्यकता है
:-
1. वर्ण व्यवस्था का जाति व्यवस्था
में परिवर्तन।
2. जाति व्यवस्था में रूढ़िवादिता
होना
3. अलगाववाद, क्षेत्रवाद, असमानता एवं सांप्रदायिकता की भावना पैदा होना।
सामाजिक न्याय की प्राप्ति के प्रयास :-
प्राचीन भारतीय समाज में चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र थे परंतु कालांतर में वर्ण व्यवस्था दूषित होकर जाति
व्यवस्था में परिवर्तित
हो गई। जो वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी अब अपने नए रूप यानी जाति व्यवस्था
में जन्म पर आधारित हो गई। इस प्रकार धीरे-धीरे जाति व्यवस्था
में रूढ़िवादिता और कठोरता के समावेश ने भारतीय समाज में असमानता की स्थिति पैदा कर दी जो आज भी विद्यमान है।
प्राचीन काल में
महात्मा बुद्ध व महावीर स्वामी से लेकर मध्यकाल में कबीर, लोक देवता बाबा रामदेव व अनेक संतों ने और आधुनिक काल में राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर आदि
ने अनेक समाज सुधारक कार्य करके समाज को नवीन दिशा दिखाने
का महत्वपूर्ण कार्य किया है।
भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय :-
200 वर्षो
की गुलामी उपरांत संविधान निर्माताओं ने लोककल्याणकारी प्रजातंत्र की स्थापना के लिए सामाजिक न्याय की स्थापना को अत्यंत महत्वपूर्ण माना। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक न्याय को संविधान का उद्देश्य
और लक्ष्य बताया गया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मौलिक
अधिकारों को संविधान में शामिल किया गया है। साथ ही संविधान के भाग – 4 में नीति
निदेशक तत्वों में राज्य को सामाजिक न्याय की स्थापना के प्रयास करने के निर्देश
दिए गए है।
A. सामाजिक न्याय की प्राप्ति हेतु मूल अधिकारों में प्रावधान :-
1. अनुच्छेद – 14 : विधि के समक्ष समता
2. अनुच्छेद – 15 : धर्म, मूलवंश, जाति, व जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं।
3. अनुच्छेद – 16 : लोक नियोजन में अवसरों की समानता।
4. अनुच्छेद – 15(4) एवं 16(4) : अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान।
5. अनुच्छेद – 17 : अस्पृश्यता का अंत।
6. अनुच्छेद – 21( क) :
6 से 14 वर्ष के बच्चों को
नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार।
7. अनुच्छेद – 23 : मानव क्रय
और बेगार पर रोक।
8. अनुच्छेद – 24 : कारखानों में बाल श्रम निषेध।
9. अनुच्छेद – 29 एवं 30 : शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार।
B. सामाजिक न्याय की प्राप्ति हेतु नीति निर्देशक
तत्वों में प्रावधान :-
संविधान के भाग – 4 में भी सामाजिक न्याय के
अनेक प्रावधान किए गए हैं जिसमें राज्य को निर्देशित किया गया है कि :-
1. अनुच्छेद – 38 : राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था
की स्थापना करेगा जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय
सुनिश्चित हो सके।
2. अनुच्छेद – 41 : बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी एवं असमर्थता में सार्वजनिक सहायता प्राप्त करने का प्रावधान।
3. अनुच्छेद – 42 : काम की अनुकूल एवं मानवोचित अवस्था उपलब्ध करवाना और प्रसूति सहायता उपलब्ध करवाना।
4. अनुच्छेद – 43 : श्रमिकों के लिए निर्वाह मजदूरी एवं उद्योगों के प्रबंधन
की भागीदारी सुनिश्चित करना।
5. अनुच्छेद – 44 :
एकसमान नागरिक संहिता का निर्माण करना।
6. अनुच्छेद – 46 : अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं दुर्बलों की शिक्षा और उनके हितों की उन्नति करना।
7. अनुच्छेद – 47 : मादक पदार्थों पर प्रतिबंध
लगाना और पोषण का स्तर ऊँचा रखना।
सामाजिक न्याय की व्यवहारिक स्थिति :-
भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान में किए गए सामाजिक न्याय
के उपबंधों से दो पहलू उभर कर सामने आ रहे है। एक पहलू जिसमें जमीदारी उन्मूलन अधिनियम, भूमि सुधार अधिनियम, हिंदू बिल कोड, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, दास प्रथा, देवदासी प्रथा, बंधुआ मजदूरी व अस्पृश्यता का उन्मूलन आदि ने समाज में आमूलचूल परिवर्तन किए है।
वही दूसरे पहलू
को देखें तो आज भी भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग असमानता, भुखमरी, कुपोषण और शोषण का शिकार है। देश के इन करोड़ों लोगों के लिए सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात तो दूर आज भी दो वक्त की रोटी का प्रबंध
नहीं हो पा रहा है।
कहने को तो भले ही यह कहा जाता है कि आज देश
में 50% आरक्षण का लाभ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़े
वर्ग को मिल रहा है परंतु इस आरक्षण का लाभ आज भी इन वर्गों के वास्तविक लाभार्थियों को नहीं मिल पा रहा है क्योंकि
इन पिछड़ी जातियों में आरक्षण प्राप्त कर एक ऐसे नवीन वर्ग का जन्म हुआ है जो आर्थिक
और राजनीतिक आधार पर बार-बार आरक्षण का लाभ उठा रहा है जिससे गांव का गरीब व आदिवासी अभी भी अपने वास्तविक लाभ की पहुंच से कोसों दूर है। वर्तमान में वोट बैंक की राजनीति और चुनावीकरण ने आरक्षण व्यवस्था को इस कदर जटिल बना दिया है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी
इसमें किंचित भी परिवर्तन करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही है।
-: आर्थिक न्याय
:-
यह सत्य है कि समाज में पूर्ण रूप से आर्थिक समानता स्थापित नहीं की जा सकती है। आर्थिक न्याय का मूल लक्ष्य आर्थिक असमानताओं को कम करना है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक युग और प्रत्येक क्षेत्र
में आर्थिक आधार पर दो वर्ग रहे हैं एक शोषक वर्ग जो अमीरों का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा
शोषित वर्ग जो गरीबों का प्रतिनिधित्व करता है। इन आर्थिक विषमताओं के कारण ही हमारे देश में नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, तस्करी और आतंकवादी जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ विकसित हुई है जो कि हमारी एकता और अखंडता के लिए बहुत बड़ी चुनौती
है।
आर्थिक न्याय का अर्थ :-
आर्थिक न्याय से तात्पर्य हैं कि
1. धन एवं संपत्ति के आधार पर व्यक्ति–व्यक्ति में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना।
2. प्रत्येक समाज एवं राज्य में आर्थिक संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण।
3. समाज के सभी लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो ताकि वे अपना
अस्तित्व और गरिमा बनाए रख सके।
आर्थिक न्याय के अर्थ को निम्नलिखित कथनों से बहुत अच्छी तरह से समझा
जा सकता है :-
पंडित जवाहरलाल
नेहरू के अनुसार, “भूख से मर रहे व्यक्ति के लिए लोकतंत्र का कोई अर्थ एवं महत्व नहीं
है।“
डॉक्टर राधाकृष्णन
के अनुसार, “जो लोग गरीबी की ठोकरें खाकर इधर-उधर भटक रहे है, जिन्हें कोई मजदूरी नहीं मिलती हैं और जो भूख से मर रहे है, वे संविधान या उसकी विधि पर गर्व
नहीं कर सकते।“
अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के अनुसार, “आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के बिना कोई भी व्यक्ति सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता।“
इस प्रकार स्पष्ट है कि सामाजिक और राजनीतिक न्याय के लिए आर्थिक न्याय
अनिवार्य शर्त है।
भारतीय संविधान और आर्थिक न्याय :-
संविधान निर्माताओं ने भारत में आर्थिक न्याय की संकल्पना को साकार करने के
लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किए है :-
A. मूल अधिकारों के रूप में प्रावधान :-
1. अनुच्छेद – 16 : लोक नियोजन में अवसरों की समानता।
2. अनुच्छेद – 19(1)(छ) : वृति एवं व्यापार की स्वतंत्रता।
B. नीति निदेशक तत्वों के रूप में प्रावधान :-
भारतीय संविधान के भाग – 4 में नीति
निदेशक तत्वों में आर्थिक न्याय की प्राप्ति के निम्न प्रावधान किए गए है :-
1. अनुच्छेद – 39 : राज्य अपनी नीति इस प्रकार निर्धारित करेगा कि
(i) सभी नागरिकों को जीविका प्राप्ति के पर्याप्त साधन प्राप्त हो।
(ii) समुदाय की संपत्ति का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार हो कि सामूहिक
हित का सर्वोत्तम साधन हो।
(iii) उत्पादन के संसाधनों का केंद्रीकरण न हो।
(iv) स्त्री-पुरुष को समान कार्य के लिए समान वेतन।
(v) श्रमिक पुरुष व महिलाओं के स्वास्थ्य एवं शक्ति
और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो।
2. अनुच्छेद – 40 : गरीबों को नि:शुल्क विधिक सहायता।
भारत में आर्थिक न्याय की स्थापना हेतु सुझाव :-
(1) आर्थिक विषमताओं को दूर करना।
(2) असीमित संपत्ति के अधिकार पर प्रतिबंध लगाना।
(3) प्रत्येक नागरिक को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना।
(4) सार्वजनिक धन का उचित वितरण।
(5) गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाओं
का निर्माण करना एवं
क्रियान्वयन करना।
(6) प्रभावशाली कर प्रणाली की स्थापना करना और कर प्रणाली में सुधार करना।
(7) आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था
करना।
आर्थिक न्याय की वस्तु–स्थिति :-
वित्त वर्ष 2015-16 में भारत की विकास दर 7.6 प्रतिशत थी जो विश्व में सर्वाधिक रही। नवंबर 2016 में विमुद्रीकरण
के उपरांत आर्थिक विकास दर में थोड़ी गिरावट जरूर आई हैं परंतु फिर भी संतोषजनक है। परंतु विश्व में अग्रणी आर्थिक विकास दर वाला देश होने के
उपरांत भी आर्थिक विकास का समुचित लाभ सभी वर्गों को समान रूप से नहीं मिल पा रहा है। आज भी गांवों में सुविधाओं का अभाव है एवं इंटरनेट
व प्रौद्योगिकी का अपेक्षित विस्तार गांवों में नहीं हो पाया है। विकास का वास्तविक लाभ केवल शहरों तक ही सीमित है।
-: महिला आरक्षण :-
भारत में पुरुष प्रधान समाज होने, विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक
कारणों के चलते महिलाओं की क्षमताओं का पूर्ण रूप से विकास नहीं हो
पाया है। स्वतंत्रता उपरांत महिला शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति अवश्य हुई है
परंतु आज भी रोजगार, व्यवसाय, उद्योग एवं राजनीतिक क्षेत्रों
में महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है।
अतः देश की वास्तविक प्रगति तब तक संभव
नहीं है जब तक की महिलाओं की स्थिति पुरुषों के समतुल्य न हो जाए। महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने
के उद्देश्य से सरकार ने लोक नियोजन में महिलाओं के लिए पद आरक्षित रखने का प्रावधान
किया है। विभिन्न सरकारी क्षेत्रों के अलावा सैन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं को आंशिक कमीशन के द्वारा नियोजित किया जा रहा है। सीआरपीएफ और सीआईएसएफ में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण आरक्षित किए गए है जबकि एसएसबी और आइटीबीपी में 15% स्थान आरक्षित किए गए है।
पंचायतीराज संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33% स्थान आरक्षित किए गए है।
लोकसभा, राज्यसभा एवं विधानसभाओं में महिला आरक्षण की मांग :-
A. आवश्यकता के कारण :-
1. राजनीति में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व नहीं होना।
2. महिलाओं का सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा होना।
3. पुरुष प्रधान समाज से मुक्ति
दिलाने हेतु।
4. महिलाओं से संबंधित विभिन्न
कुरीतियों एवं कुप्रथाओं से बचाने हेतु।
5. लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को सुदृढ़ करने हेतु।
B. महिला आरक्षण विधेयक का इतिहास :-
1. 1996 में एच. डी. देवगौड़ा सरकार द्वारा 81वां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया परंतु पारित नहीं हो सका।
2. 1998 में एनडीए सरकार द्वारा 86वां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया।
3. 1999 में एनडीए सरकार द्वारा विधेयक पुनः प्रस्तुत।
4. 2008 में यूपीए सरकार द्वारा 108वें संविधान संशोधन
विधेयक के रूप में राज्यसभा में पेश।
5. 2010 में राज्यसभा द्वारा पारित परंतु लोकसभा से पारित नही।
6. 2016 में पुनः महिला आरक्षण की मांग उठी परंतु
कोई प्रस्ताव नहीं रखा गया।
7. 2018 में एनडीए सरकार द्वारा महिला आरक्षण की मंशा जाहिर करना परंतु अब तक कोई
कार्यवाही नहीं।
महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं होने के कारण :-
1. सभी राजनीतिक दलों द्वारा इसमें
रुचि नहीं लेना।
2. राजनीतिक संस्थाओं में पुरुषों का वर्चस्व कम होने का भय।
3. कई राजनीतिक दलों द्वारा सामान्य
महिलाओं की बजाय अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की महिलाओं के
अत्यधिक पिछड़ेपन के कारण उनके लिए विशेष व्यवस्था की मांग करना।